Thursday, December 31, 2015

बीते बरस....तुम कहां जाते हो


बीते बरस बीत गए ये सोच कर की आने वाले बरस कैसेबीतेंगे थोड़ी सी ख़ुशी देकर या बेरुखी से मुह मोड़ कर फिर चल देंगे ,साथ छोड़ कर। ये क्रम यूं ही चलेगा ,ये रहा गुजर रहेंगे हमारी अंतिम घड़ी तक ।
लोग बतियाना चाहते है लेकिन बाते नहीं हैं। हलाकि हम वैश्विक हो गए है लेकिन ये हो कर कोलाहाल में जो बदले है सो लड़ रहे है खुद से । पुराने पड़े बिंबो की अधूरी रचना मात्र बन कर हम अतीत की खिड़की से अब भी झाक लेते है और महान सभ्यता का गुणगान शुरू कर देते है। हालाँकि
अप्रासंगिक हो चुके पुराने किस्से कुछ नहीं देते लेकिन फिर भी कुछ रातें तो खुशगवार छोड़ ही जाते है । पड़ोस का देश महसूस कर रहा है उस बीती खुशबू की रूमानियत और जज्बे को। वीरान वेदना अगर कुछ पालो की मुस्कुराहाट दे  पाट दे पुराने जख्म तो इस से अच्छा क्या ?
आतंक से लेकर कलह खरीदने वाले हम बच्चों के लिए विगत वर्षो से वो खरीदना भूल ही गए जिन्हें देख उनका खिलखिला वापस आ सके और  बच्चे है कि सरहद पर सो कर निकल पढ़े  खुशियों के किसी और जहां को खोजने ।
इतनी सजायाफ्ता उम्मीदों हो चुकि है कि बिचारी उफ्फ भी नहीं करती । लेकिन गजब है वो जिनके जिस्म और आत्मा को इतना कुरेचा गया देश- विदेश में फिर भी अपने जीवट के साथ युद्ध में शांति और सुरक्षा की बात करती हैं। सारी बहसों को इनकी स्मृतियां समेटती हैं , जीवन के साथ जीवन जीने के पल देती है उस पर उलाहना यह ये आधी आबादी करती क्या है ?
इतिहास हो चुके युद्ध का ठीकरा फोड़ कर हम उनके सर आज भी कहां  युद्ध से निकल पाए है जबकि युद्ध में शांति के गीत उन्होंने ही गाये है । वो कौन सी भाषा होगी जिनमे औरते कहेंगी अपने मन की बात और वो कौन से पल होंगे जो उनकी बात सुनेगें । खैर
बीती बरस से गाँव मर रहे है मजबूर मजदूर पिसान किसान यही चलन है देखते है गाँव कब लौटते है या नहीं। पिछले साल का दुःख,भय,दर्द बन कर लटका न रहे । हर कोई डूब रहा है बचने की चाह में। पगडंडियां ख़त्म हो रही है सड़के फैल रही है और डर से नदिया सिमिट रही है या जाने सभ्यताएं इसके बावजूद नदी इंतजार कर रही है ताल का उसे सागर तक जो जाना है अकेली पढ़ चुकि नदी कहे भी तो क्या कहे।नदी डार्विन को याद कर के आँखों से निकले आसूं सी बची है ।
पहाड़ियों से ज्यादा गलियों में वो अब दिखाई देता है सालो से खौंप के रूप में जेहन से लिपटा बढता ही जा रहा है शायद कोई गांधी फिर से आ कर इस आतंक को जहन से निकल फेके।
कोई बुद्ध अब तो निकले महल से ...शांति के लिए अभी कबूतर से ही काम चलन पढ़ेगा ,तब तक बारूदों की महक में ही बच्चे बड़े होंगे हलाकि बच्चोे ने बारूदों की महक सूघने से मन कर दिया ये बात और है की उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पढ़ा ।
बीते कई बर्षो से चुप्पियों में भी शोर सुनाई देता रहा ये जंगल का शोर है वो भी क्या करे उसके पैरो के नीचे से उसकी शांति खिसकी भय शोर तो देता ही है। पुरानी सभ्यता हम तुम्हारे गुनाहगार है।अब जंगल कर्मा नहीं खेलता अब वो खेलता है संताप।
शिकायतों से भरे हम उमीदो पर खड़े है देखना ये है कि ये उम्मीदें कब तक कयाम रहती है।
किसी अनजाने से शहर की अनजानी सी गली में के आखरी अँधेरे कोने में दिलो की बात न हो बल्कि गली के आखिरी में उजाला हो ताकि सबसे बड़े संवेदना की कहानी रिश्तों में बदले अँधेरे में नहीं।प्रेम में पंचायत ओफ़्फ़......... बंद भी करो।
देश के लोग लेकिन भूख और भूगोल के सम्बन्ध को अच्छे से समझते है एक घटना की तरह उनका जीना बंद हो भूख के साथ इस युद्ध में जीत मनुष्य की हो । थोड़ा ठहर कर ठिठुरती उस सर्दी को भी देख ले जो स्टेशन ,फुटपाथ पर याचना की निगाहों से हमें देख कर सिहरन दे जाती है हलाकि प्रेमचंद जैसे लेखक उन्हें बचा लेते है अपनी कहानियों में। ये कहानियां बरस दर बरस हकीकत हो आने वाले वर्षो में ये कामना तो हम कर ही सकते है ।
बीते बरस बहुत कुछ ले कर गया कुछ दे कर गया ये अलाप का दुहराव है जो यूं ही चलता रहेगा। बीते बरस तुझे सलाम  आने वाला बरस तेरा स्वागत चमचमाती रोशनी और धुंआ के साथ।

Friday, December 25, 2015

साझा चूल्हा

अचानक हर गली में
सहिष्णुता और सहिष्णुता गुथमगुथा हो
असहिष्णुता में बदल रही है।
हटा रही है तीनो बंदरो के
आँखों कानो और मुह से हाथ ।
अब तीनो बन्दर दे रहे है विचार,
उनके विचारो से त्रस्त हो
भाग रहे है गाँधी
बुद्ध समाधिस्थ हो लोप हो गए है ।
अनोखे असहनशील वक्तव्य पर
नरेन्द्र परेशान हो
समेट रहे है सारे कुटुंब को
ले जाने ऐसी जगह
जहां साझा चुल्हा की मिट्टी मिलती हो।

Wednesday, December 23, 2015

प्रेम के औजार

अब दीवारे अश्लील नहीं होती
क्योकि दीवारे अब होती नहीं
अगर होती भी तो
न होती मैली
क्योकि अब शील ही नहीं
अब कुछ कहने के लिए
अक्षरों की जरुरत नहीं
अब दिल के गुबार जिस्म में समां गए है
शायद हम प्रेम में सभ्य होते जा रहे है
पहले अक्षर थे औजार प्रेम के
फिट करते थे मन से मन को
कसते थे पैच एकनिष्टता समर्पण वफादारी के
तब होता था प्रेम सहज सरल सवेदनशील
अब देह पर सवार प्रेम अपने अक्षर खुद गढ़ रहा है
दो मिनिट प्रेम हर पल बदल रहा है

Wednesday, December 16, 2015

इठलाती इतराती शरद ऋतु आई

मन की झील पर यादें कोहरे सी छाई
एक बार फिर प्रीत की शरद ऋतु आई
बीती बातों ने नवल किरणें बिखराई
आँखों में प्रेम की फिर छवि लहराई
प्रीत सी प्यारी शरद ऋतु आई
कुमुदनी मन हुआ चादनी तन पर छाई
अम्बर के होठों पे लाली  उतर आई
भीनी भीनी सी खुशबू लिए शरद ऋतु आई
अलाव पर बैठे है मीत  का संग लिए
दिल दहक रहा है प्रीत का रंग लिए
कांस सी श्वेत शरद ऋतु आई
प्रीत के तान छेड़े खंजन भी चले आए
चांदनी ने तान पर अमृत बरसाये
नील धवल सी शरद ऋतु आई
विराहते चाँद से मिली जब चांदनी
बजने लगी हर तरफ रात की रगनी
इठलाती इतराती शरद ऋतू आई

Saturday, December 5, 2015

महत्वकांक्षी लेखनी

ओं मेरी कविता तुम दुखी हो पर क्यों
क्योंकि तुम जीना चाहती हो ऐश्वर्य में
जिनके पेट खाली पर मन भरे हैं प्रेम में
दर्द उनका बाट तुम खुश क्यों नहीं
तुम अपनी कीमत लगाना चाहती हो क्यों
अपने को बैच ऐश्वर्य नहीं आता पगली
अरे ये समय है लाभ लोभ का
तुमसे  हानी नहीं इसलिए लाभ क्या
तुमसे टका भी नहीं मिलेगा
और बैचने के लिए कला के साथ कारी होती है
वो भी नहीं तुम्हारे पास
बाज़ार की नजर में तुम खोटा सिक्का
जिसकी कीमत नहीं
हैं तुम बिक सकती हो
लाश बन जाओ
मृत लोगो बेशकीमती होते है
लेखनी ये सब छोड़ो
तुम ने लगा दी अगर अपनी कीमत
तब हम कहाँ सुन पाएंगे
प्रेम के गीत
जीवन संगीत
गरीबो का दर्द
बच्चो की पुकार
न देख पाएंगे
झूमते पहाड़
लहलराते खेत
+++++++
मैं ऐश्वर्य माय लेखनी
मैंने संवेदनाओं को मार
हर्द्धय को कर सक्त
हटा लिया है अन्दर से
असहयो गरीबों का दर्द
अब समर्थक हूँ पूंजीवाद की
कर रही हूँ चाटुकारिता महराज की
जय बोल रही हूँ व्यवस्था की
जय जय जय
+++++++
आत्मा बैच कितना जगमगा रही हो
धन से लदी भदी तुम कितना इतरा रही हो
सर झुकाते लोग तुम्हे अपना इष्ट बता रहे है
पर तुम्हारा दमान कुछ और कहानी सुना रहा है
अहसयो गरीबों के आसू दिखा रहा है
अब तुम प्रेम प्यार की  कविता नहीं
ऐश्वर्य में लिपटी लाश हो
आओ मैं तुम्हे शांति दू
आज मैं तुम्हारी अन्तेष्टी  कर दू
ओम शांति शांति शांति 

Wednesday, November 18, 2015

चाँद का दर्द


चाँद पर लिखने वालो
क्या उसका दर्द समझते हो
उससे बात हमेशा तुम अपनी ही तो करते हो
कभी कुफ्र की बाते करते
कभी इश्क के चर्चे
कितनी -कितनी बार सुनाते तुम कितने ही किस्से
इशक का मारा कोई फिरता चाँद का साथ लिए
भूखे पेट चाँद से कोई रोये हुलस-हुलस के रात ढले
मन की बातें  उससे करके  कितनी रातें  बीती
पर चंदा की तो हर रतिया ही हैं रीति
 चंदा मेरे मन की  सुन ले एक प्रश्न बताना तुम
तेरे मन के प्रश्नों को भी आज मुझे समझना तुम
सुन कर चंदा बोला जिसमे  राज है बहुत  गहरा
मेरे अंतस में दुःख का है बहुत बड़ा है  डेरा
गाँधी की बात बताऊ या  ईसा   की बताऊ बात
जिस दिन भगत सिंह को फासी दी मैं रोया सारी रात
चौसा के युद्ध से घायल राजा  ममता के घर आया
 मूक गवाह उसके उस  पल का में था उसका  हमसाया
आश्रय दे दुश्मन को  उसने मेरा मान बढाया
मैंने गर्व से भर कर उसके चरणों में शीश झुकाया
अरे नादानों तुम्हें  बताऊ बाते बलिदानों की
तुम प्यार में बलिदान होगे बाते करते नादानी की
चन्दन नहीं चंदा कहती मेरा नाम बुलाती
अपने बेटे को मुझे दिखा वो तो थी कितनी  हर्षाती
पर एक दिन फर्ज हुआ माँ की ममता पर भारी
उसी दिन चितोड़ में लिखि एक नई कहानी
 उदय सूर्य का  करके पन्ना ने कर दिया पुत्र  बलिदान
मेरे साथ याद करता   उसे सारा हिन्दुस्तान
खंडित और क्षत विक्षत हो रही थी जब भारत माता
लक्ष्मी सी देवी उसने संहार दुश्मनों  का कर डाला
उस पवन समाधी पर में आधी रात जाता हूँ
 झूम-झूम कर  देशभक्ति के वहां  गीत गाता  हूँ
प्यार की बाते तुम करते प्यार तुम्हारा कच्चा है
 जहाँ  मटकी डूबी थी प्यार वही  सच्चा था
मुझे अब नहीं रहना ये गिद्दो की बस्ती है
मानवता यहा चंद रुपयों में बिकती है
नदियों के सँवलायी जल मे मैं भी काला दीखता हूँ
 प्रथ्वी माँ मैं  तुमसे  क्षमा याचना करता हूँ
अगर चाहो  में तुममे एक रूप हो जाऊ
तो झुल्फे सावन आँचल छोडो नया नजरिया लाओ




















Friday, October 23, 2015

बीते पल राहगुजर

अक्टूबर का माह मुझे कोमल सा लगता है.इस माह में ठंड धीरे- धीरे दस्तक देती है .किसी का हौले-हौले यू आना कितना सुकून देता है . संधि के बाद का मिलन हमेशा सुखद होता है वो फिर ऋतू- संधि ही क्यों न हो .ये महिना मुझे ऐसा लगता है मनो अलाप ले रहा हो धूप का, बदली हुई हवा का उत्सव का और दस्तक देता है वर्ष के जाने का मनो अपने विगत होने का जश्न मना रहा हो .....वैसे ही जैसे कितने ही लम्हें विगत होते है .वक्त की ठहरी परछाइयां को हटाकर आओ आशाओं की रहा पर निकल जाए ऐसा ही कुछ कहता है ये माह, पर हैं इतना याद रखना बीते बरस की सुखद स्मृतियों को तह कर के रखना है...... क्यों ?
अरे ये बीते पल ही तो राहगुजर है आने वाले पल के........

Tuesday, October 20, 2015

प्रेम की लाश पर पलाश



पता नहीं दूर जंगल में
कब्र दो प्रेमियों की है
या प्रेम की
कोलाहल से दूर
बस कब्र है और प्रेम है 
कभी कभी जंगल से निकलता हुआ
पथिक कोई सुस्ताने के लिए
करता है कब्र पर विश्राम
तब कब्र की रूह को मिलता है सुकून
जब ग्रहण हटता है
और निकलता है चाँद
सितारे उतर आते है कब्र पर
तब कब्र से निकल
दो शारीर की रूह
जो अब एक है
आलिंगनबद्ध होकर
चाँद को देखती है
सितारों से बातें करती है
चम्पा की डालियों को चूमती है
और तभी होती है आकाशवाणी
बस और नहीं
तुम्हे फिर से लेना होगा जन्म
तब रूह हस कर
किसी शाख पर
ले लेती है फांसी
खो जाती है ब्लैक होल में
सुना है कब्र के ऊपर
जो पेड़ है वो पलाश है
स्वेच्छा से उगता है पलाश
प्रेम , प्रेम भी स्वेच्छा से ही किया जाता है
और जीया, जीया भी स्वेच्छा से ही जाता है
अब दो प्रेमी कब्र के ऊपर पलाश बन जी रहे है

Friday, October 16, 2015

आवारगी पर उतरती आशिकी


आज तुम्हारा ये कहना कि
याद आ रही थी तुम्हें मेरी
मुझे न जाने कितने अर्थ थमा
ओझल हो गया
और जा पंहुचा 
उन विराने में
जहाँ पहली बार
मन के भीतर खुला था दरवाजा
और देखा था हमने
एक दूसरे की संभावनाओं को
कैसा तो हमारे बीच बह रह था मानस रस
जैसे कभी बह होगा
उन प्रेमियों के बीच
जिन्होंने सहरा में छानी थी खाक प्रेम के लिए
हमारा होना न होना होकर रह गया था
में आज भी तुम्हारी उन सांसो को सहेज रही हूँ
जो मेरे हिस्से आई थी
आज आशिकी आवारगी पर उतर आई है
आज भीतर से बाहर की भटकन है
आज हिंडोला 
 होता मन है

Wednesday, October 7, 2015

जनता का तंत्र है क्या .....


लोकतंत्र में व्यवस्थापिका को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है इस रूप में इसका उत्तरदायित्त्व भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण  है . भारत में व्यवस्थापिका अपने वास्तविक उतरदायित्व की कोई छाप नही छोड़ पाया. व्यवस्थापिका की सर्वोच्च शक्ति के सन्दर्भ में उसके कर्तव्यों का आभाव है. यह अपनी गरिमा के अनुरूप भारतीय समाज में मूल्य एवं आदर्श स्थापित नहीं कर सका है .यह राजनीति , सत्ता,अधिकार एवं व्यक्तिगत सुख -समृद्धि के इर्द -गिर्द सिमट कर रहा गया है.परिणामस्वरूप भारतीय समाज में असंतोष,अराजकता, भ्रष्टाचार जैसी नकारात्मक प्रवृतिया आम हो चली है. आवश्यकता इस बात कि है कि विभिन्न उपायों एवं सुधारों के द्वारा व्यवस्थापिका के व्यापक एवं प्रभावी उत्तरदायित्व को सुनिश्चित किया जाये.वस्तुत: यहा वास्तविक लोकतंत्र को स्थापित कर सकता है .

Tuesday, October 6, 2015

चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा ......


अजीब सा होता है मन हमेशा जो जी रहा होता है उसके विपरीत चाहता है. जब नौकरी कर रही थी तो फुरसत के पलो को चुराती थी आज जब अवैतनिक अवकाश पर हूँ ,और फुरसत है तो मन काम करना चाहता है.इसी उधेड़ बुन में हूँ कि ख्याल आता है आज अकेले दिल्ली देखू ,ख्याल अच्छा है पर किसकी नजर से देखू दिल्ली को.
इतिहास की नजर से देखू तो दिल्ली कहेगी इसमे नया क्या है बहुतो ने देखा है. अपनी नजर से देखूँगी तो दिल्ली के साथ अनन्य करुँगी। इसलिए आज दिल्ली को उसकी ही नजर से देखती हूँ। देखू दिल्ली अपने बारे में क्या कहना चाहती है।
कभी किसी जगह या इंसान के आंतरिक स्वरूप के साथ देखना हो तो मूक नहीं मौन होकर देखो कहते है उसको संपूर्ण रूप से उसके पूरे वजूद के साथ समझ जाओगे। बस में भी यही करने निकल पड़ती हूँ। घूमते- घामते पहुचती हूँ स्टेशन, स्टेशन के बाहर की तरफ एक बैंच पर बैठ कर आते जाते लोगो को देखती रहती हूँ। मौन तो नहीं हो पाती मूक जरूर हूँ।
दिमाग में सनातन प्रश्न चल रहा है एक दिन सबको जाना है फिर क्यों इंसान इतना हैरान परेशान है. फिर उन विचारो को झटका देकर भगाने की कोशिश करती हूँ कि तभी भागो-भागो की आवाज आने लगती है देखती हूँ कुछ बेहद ही गरीब लोग पर, भिखारी नहीं इधर से उधर होने लगते है मैं भी बैंच छोड़ कर स्टेशन की दुसरी तरफ चली आती हूँ,जहा कुछ कम गहमा-गहमी है तभी मेरी नजर एक औरत पर पड़ती है, अरे इसे भी तो मेने भागते देखा था मैं उसके पास जाती हूँ इतने कष्ट में भी उसके चहरे पर मुस्कान है मेरा चेहरा तुरंत उसका प्रतियुत्तर देता है.
मैं पूछती हूँ वो तुम सब लोगो को भगा क्यों रहे थे मुस्कुरा कर वो कहती है नई हो अखबार से आई हो क्या करोगी मैम साहब हर साल तो वो अखबार वाले हमारी कहानी छापते है पर क्या होता है मैं कहती हूँ मैं अखबार वाली नहीं, कहानी लिखुंगी पर छापूगी नहीं दिल्ली देखने आई हूँ वो पहले तो मेरी बात सुनकर अपनी बड़ी -बड़ी आँखे जो गरीबी से अंदर धस गई फैला लेती है फिर जोर से हस पड़ती है में उसे मन ही मन नमन करती हूँ इतनी गरीबी और लाचारी में उसकी हसी कायम है और एक हम तथाकथित ऐशो आराम की जिंदगी बसर करने वाले को इनसे सबक लेना चाहिए खैर वो कहती है अरे मैम साहब दिल्ली देखना है तो आप क़ुतुबमीनार दखो वो बड़ा दरवाजा देखो यहाँ क्या रखा है
मैं उसकी बात अनसुनी करके उसे खोदती हूँ तुम्हारा घर कहा है वो चहरे पर फीकी मुस्कान लाती है और कहती है अभी थोड़ी देर पहले था अब नहीं अरे क्यों मेने कहा ऐसा ही होता है हर वार ,हम जुग्गी वाले है न मैम साहब क्या करू मेरी किस्मत ही ख़राब है और उसने जो कहानी बताई वो कुछ ऐसी थी माँ बाप थोड़ा बड़े होने पर मर गए चाचा दिल्ली स्टेशन पर एक दिन छोड़ कर जो गए तो आज तक नहीं लोैटे फिर एक दिन कोई एन. जी. ओ वाले ले गए वही रही मेरा मरद वही सफाई का काम करता था उससे मैंने शादी कर ली सोचा था अब सुख से रहूगी रही भी दोनों काम करते और रात को अपनी टूटी-फूटी जुग्गी में सो जाते थे। दो साल में आठ से दस बार भगाया गया है हमें। अब तो समझ नहीं आता मैम साहब क्या करे. हमारे इसी कारन वोट नहीं बन पाते इसलिए कोई हम पर ध्यान नहीं देता। मैंने उसका नाम पूछा उसने अपना नाम तारा बताया और आगे बड़ गई और मैं सोचने लगी संविधान तो सभी नागरिको को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की बात करता है। सरकार जो योजनाए बनती भी है इन बेघर लोगो के लिए उनसे ये बेखबर रहते है। कोई समाधान नहीं।
मैं उठ कर चल दी कही दूर रेडियो पर एक ग़ज़ल की आवाज आ रही थी ....चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला ……… मैं अब मौन हूँ मैंने शायद दिल्ली देख ली है

पत्रकार कौन


पत्रकार को हमेशा सत्ता के प्रतिपक्ष में होना चाहिए .गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने पत्रकारों के लिए ये यू ही नहीं कहा था .लेकिन आज पत्रकार प्रतिपक्ष के विकल्प के रूप में ज्यादा दिखते है . लाचार और आलसी विपक्ष मुखर पत्रकारों का परजीवी बन जाता है . पत्रकार विपक्ष का विकल्प नहीं . अगर विपक्ष सत्ता पक्ष से परेशान है तो सड़को पर उतरे , आन्दोलन करे लेकिन आप तो कम से कम सरकार या विपक्ष के पक्ष में आकर अपनी कलम ना चलाए . एक पत्रकार को उम्मीद और उलाहनाओ के बीच ही रहना चाहिए फिसल कर किसी एक का दामन थामने का मतलब आप सत्ता पक्ष के साथ है या फिर विपक्ष के साथ आप तटस्थ रहें जो आज शायद आप के लिए मुश्किल हो पर नामुमकिन तो नहीं . आप अपने पेशे के लिए जवाबदेह बने ना कि राजनेताओं के लिए . ईमानदारी से काम करे विकल्प ना बने .

Monday, October 5, 2015

सरहद


ओ प्यार मेरे
तुम जुदा हो मुझ से अर्थ से क्यों जा मिले
प्यार तुम्हारे लिए शायद
ये होगा बहुत आसान
ये बिल्कुल ऐसा ही था 
जैसे बेवक्त किसी को सोते से जगाना
या छुड़ा लेना किसी बच्चे से उसका कोई खिलौना
किसी वृद्ध से छीन लेना उसका जवान बेटा
तुम्हारे लिए
अर्थ के आधार पर प्यार को बाटना
जैसे बाट देना धरती को सरहदों में
और छोड़ कर चले आना
पार सरहदों के
अपनी आशा उमंग
सावन के गीत
या प्यारा मीत
ओ अर्थ के लिए
छोड़ने वाले
प्रथम मिलन के गवाह
उस मंदिर के पीछे
दफना देना मिलन के एहसास को
जब तुमने हौले से अपनी रख दी थी
गर्म हथेली मेरे हाथ पर
और एक हो गए थे दो एहसास
ओ मेरे अर्थ के साथी बने प्रेम
जो तुमने सरहद बंधी है
उसके इस पार
कैसे जीयेगा प्रेम
बिना रूह के

Monday, September 28, 2015

मशीन से आदमी

आधी रात को तुम 
थके अनमने से 
लौटते हो घर को 
कहीं कोई आँखे 
राह पर तुम्हारी टिकी है 
तुम्हारे एक एक पग के साथ चलती
तुम्हारे रस्ते को बुहारती
तुम्हें निहारती,
दूर कहीं वंशी की धुन
भंग कर देती है तुम्हारी तंद्रा
और तुम निकल आते हो
अपनी रोज रोज की जद्दोजहद से
देखते हो बुहारे रास्ते को
सोचते हो निहारती आँखों को
फिर भर लेते हो
वंशी के सातो सुर
ह्र्दय में अपने
और बन जाते हो
मशीन से फिर आदमी 

Tuesday, September 22, 2015

अपूर्णता

कुछ आहटें ऐसी होती हैं, जो सुन्दरतम क्षण से हमें जोड़ती हैं | उन आहटों के कुछ लम्हें हम जी पाये | कितना मधुर था वह क्षण! ... और जो अनसुना रह गया था , वह शायद और मधुर अपूर्णता थी | लगता है, मानो हम उन्हीं मोहक लम्हों के क़रीब हैं|  |जीवन की इस आपाधापी में धड़कती साँसें बन्द हो, गुमनाम हो जातीं और हम उन्हीं साँसों की मादकता का एहसास तक नहीं कर पाते | हाँ, आज एहसास हो रहा है--- एक क़िस्म की अपूर्णता भी ज़रूरी है, ज़िन्दगी के लिए .......|

Tuesday, September 8, 2015

उसकी दुआओं का ऐसा असर है .....


जुल्म की इन्तहा कर कर के परेशान हैं वो
हमने मुस्कान फेंक दी आज तक हैरान हैं वो
गया था परदेस मेरी चूड़ियों की तलाश में
सुना है कलाइयां सजा दी है किसी और की
मंजिल तो ढूंढ ही लेंगे इतना तो हुनर रखते है
थोड़ा वक्त लगेगा ये दीवार गिरेगी न कैसे
ख्वाब मरते नही मिटते नही बस सो जाते हैं
जगा के उनकी तामीर का हुनर हम भी जानते है
जो जेहन में आया वही हमने लिखा
चलता वही है जो बाजार का चलन है
उसकी दुआओं का ऐसा असर है
गम आता नही मेरी चौखट पर
जुल्म सी सी कर लिहाफ बना डाला है
हर बार ओढ़ लेते हैं जुल्म होने पर

Saturday, September 5, 2015

सारयात अश्वान इति सारधि :



नृत करती आकाशगंगाए
और ग्रह नक्षत्र तारे
नाद करता आकाश
इनके बीच जो काला घना अंधकार है
वो तुम हो युग्म कृष्ण
तुम्ही तो हो
एक अनाहत की गूंज
तुम्हारी वो बंसी
गुरु है हमारी
अरे ओं बंसी तुम गति हो और आवृति भी
जो जोडती हो हम मानव को
एक लय और ताल में
अरे पारिजात
सारयात अश्वान इति सारधि :
हमारे जीवन संचालक
तुम ही हो हमारे प्रारंभ और अंत
अरे ओं युग्म
हमें काल के प्रवाह से निकाल
उर्ध्वगामी बनाओ

Saturday, August 29, 2015

बाबुल की यादें



पिता को समर्पित ----------

बाबा हम कहाँ समेट पाएंगे तुम्हें शब्दों में 
तुम तो अनुभूति थे खोए हुए पलो की 
दस्तक थे उस अंतर्मन की 
जब जिन्दगी रुकी रुकी थकी थकी लगती थी 
तब धीरे से रातो की उन बातो में 
बचपन के किस्से सुनाकर 
और हमें हँसा कर 
ले जाते थे आशाओं के समंदर में
हमारे होने का एहसास करते तुम 
बाबा आज तुम नहीं
तब उन तमाम किस्सों में खोज रही हूँ
उन बीते पलो को
और जी रही हूँ बचपन को
बाबा आप हमेशा विचार बन बहते रहना अंतस में
तभी तो में मौन बन ठहर पाउंगी

Sunday, July 26, 2015

रिश्ते, बंधन , मुक्ति

मुक्ति कोई क्षणिक बात नहीं है. वह एक जीवन अनुभव होती है और उसे बार –बार अनुभव करना पड़ता है .जिन्हें मुक्त होने की इच्छा है या जो मुक्त होना चाहते है बे स्वयं के मन को जाने बौध्द – साहित्य की ये शिक्षा उसकी विशेषता है और हमारे मन का प्रतिबिंब भी है .

जितनी तरह के लोग उतनी ही तरह के दिमाग उतनी ही तरह के दिल और उतनी ही तरह के इश्क .....रिश्ते भी ऐसे ही होते है हर रिश्ते में सूत्र , दर्शन, तर्क, आत्मा, समर्पण, द्वन्द है जो कभी नजर आता है कभी नहीं, पर होता तो है ही मुश्किल तब होती है जब कुछ रिश्ते चेतना ही नहीं अंतश्चेतना तक को अपने अधीन चाहते है और यहीं आकर HE या SHE विस्तार की चाह में निरंकुश हो जाते है और अपने अंह से दुसरे के स्वाभिमान को चुनौती देते है . बिना ये समझे बिना ये जाने कि इससे रिश्ते में आकर्षण खत्म होगा और अपकर्षण ही पैदा होगा जो सामाजिक प्रतिपालनाओं के प्रति कोई एक बावरा विद्धोह करेगा और प्रेम, लक्ष्य, सपने के लिए मुक्त हो देहरी लांघेगा .


अपकर्षण जहां शुरू हो जाता है वह हमेशा पलायन ही होता है तभी तो गौतम बुद्ध हो मुक्त हुए. अगर आप अधिकाधिक प्रतिदान की मांग अपने रिश्ते से करते है तो एक न एक दिन रिश्ता ठंडा पड़ता है और आप रिश्ते से दूर हो जाते है . मूलभूत प्राकृतिक व आदिम प्रवृतियों से न प्रेमी न दांपत्य और न ही माँ जैसे पवित्र रिश्तों को बांधा जा सकता है इसलिए मुक्त हो बंधन से रिश्तों से नहीं.             

Monday, July 20, 2015

मैं एक स्त्री





मैं एक स्त्री ईमानदारी से अपने सारे दोष को स्वीकार करती हूँ और उनकी जाँच - पड़ताल करती हूँ तो ये पाती हूँ हर बार पुरुष जाति पर लगा के तोहमत और बन कर अबला मैंने अपने उन दोषों को खूबसूरती से छिपाया है जिन्होंने मुझे हमेशा कमजोर किया है . इन दोषों को मैंने मेरे अन्दर खुद ही पैदा किया सदियों से उन्हें पोषा और वक्त आने पर उन दोषों को बिचारी , अबला, त्याग की देवी और ना जाने कितने नाम देकर अपने वजूद के साथ ऐसा आत्मसात किया कि सतयुग से लेकार आज तक मैं उनका इस्तेमाल अपनी सुविधा अनुसार करती आ रही हूँ और जब कभी मैं इसमे सफल नहीं हो पाती तो लगा कर पुरुषों पर दोषारोपण अपने दोष को जस्टिफाई करती रही हूँ .
परम्पराएँ , रीति -रिवाज , संस्कार सब को बनाने में मेरा साथ था और उन्हें समाज को सिखाने में मेरी भूमिका पुरुष से ज्यादा थी फिर भी मेने ही उन परम्पराओं की दुहाई दे दे कर अपने आप को कमजोर करने में जुटी रही क्यों ....? क्योकि मैं अपने ही बनाए खोल से बाहर नहीं निकलना चाहती थी .
मैं एक स्त्री आज ईमानदारी से ये स्वीकार करती हूँ कि हमारी दुनिया कि क्रांति सिर्फ और सिर्फ हमारे दोषों को स्वीकार करने में है खुद को खुद से बचाने में है शायद ये प्रतिक्रांति ही हमें हमारे आत्मसम्मान , आत्मविश्वास से मिला सकती है जिसे हमने अपने खोल में जिसमे हम वर्षो से बंद है उसके बाहर कही दूर फेक दिया हैं .

Saturday, July 4, 2015

मैं और मेरा विश्वास


अपने पुरे वजूद के साथ 
मेरे वजूद का हिस्सा 
वो मेरा है और मैं उसकी 
अजीब सा है हमारा गठजोड़ 
शायद गठजोड़ नहीं हम घुल गए है एक दुसरे में 
मिश्री और दूध की तरह
उसने न जाने कितने दुखो को
मेरे सुखो में बदला है
मेरी ख्वाहिशों को हक़ीकत में
कभी जो थोडा सा इधर उधर हुआ भी
अपनी तेज सांसो को भर कर
होठों पर मुस्कान सजाये
मैंने लिपटा लिया अपने दामन में
और हम फिर साथ साथ थे
मैं और मेरा विश्वास

Wednesday, June 10, 2015

तुम



रोम रोम मुस्कुराया है मेरा
कहीं तुम भी मुस्कराये हो 

होने न होने के परे तुम
विश्वास बन
जीने की इच्छा जगाते हो 

चाहती हूँ
बन कर भोर की किरण
तुम्हारी अलसाई आंखों की चमक बन जाऊं
या भोर का शीतल झोका बन
सहलाकर तुम्हारे गालों को
स्वागत करूं जिन्दगी का 

सूरज से तपते तुम्हारे कंठ में
जल बन उतर जाऊं
रात तुम्हारे सिरहाने
बचपन की कोई मीठी याद बन
तुम्हें गुदगुदाऊं 

या फिर तुम्हारे खेतों की
भीगी मिट्टी की सौंधी खुशबू बन
तुम्हारी सांसो में मिल जाऊं

Wednesday, May 13, 2015

माँ



जब उड़ने लगती है सड़क पर धूल
और नीद के आगोश में होता है फुटपाथ 
तब बीते पलों के साथ 
मैं आ बैठती हूँ बालकनी में 
अपने बीत चुके वैभव को अभाव में तौलती 
अपनी आँखों की नमी को बढाती
पीड़ाओं को गले लगाती 
तभी न जाने कहां से 
आ कर माँ पीड़ाओं को परे हटा 
हँस कर 
मेरी पनीली आँखों को मोड़ देती है फुटपाथ की तरफ
और बिन कहे सिखा देती है 
अभाव में भाव का फ़लसफा 
मेरे होठों पर 
सजा के संतुष्टि की मुस्कान 
मुझे ले कर चल पडती है 
पीड़ाओं के जंगल में 
जहाँ बिखरी पडी हैं तमाम पीड़ायें 
मजबूर स्त्रियां
मजदूर बचपन
मरता किसान 
इनकी पीड़ा दिखा सहज ही बता जाती हैं 
मेरे जीवन के मकसद को 
अब मैं अपनी पीड़ा को बना के जुगनू 
खोज खोज के उन सबकी पीड़ाओं से 
बदल रही हूँ 
माँ की दी हुई मुस्कान
और सार्थक कर रही हूँ 
माँ के दिए हुए इस जीवन को

Saturday, May 9, 2015

अंतराल



कोई गतिशील बिंदु 
किसी बिंदु से मिले 
उस अंतराल के बीच 
उसे बांधने के भ्रम में खड़ी मैं 
बट गई हूँ 
पहरों, घंटो, मिनिट और सेकेण्ड में 
देख रही हूँ एक मीठी दोपहर को 
कोई शायद गुजरा है बिना किसी आहट के 
वो जो अविरल, अनत है 
सन्निकट था मेरे 
अब किसी दूरदराज के खेतों में 
विहंसती सरसों की पीली बालियों के 
बीच झूम रहा है 
और मैं 
एक एक बोझिल पालो को समेट रही हूँ 
इस आस में 
कि इन पलों पर फिर छिटकेगी मुस्कान उसकी 
जो कर देगी मुझे लींन 
उस अनूठी लय में 
जिसमे कालचक्र अनवरत घूमता है

Tuesday, May 5, 2015

अक्षर



कुछ मिलने, कुछ होने की कामना का अंत कर
वासना का कर विसर्जन
सुन पा रही हूँ प्रकृति के कण-कण का संगीत
सूखे पत्तो की मीठी राग
फूलो की पंखुड़ियों का थरथराना
वर्षा की बूँदों की झनकार
अंतस के गीत
इस तरह
वाक्यों और शब्दों के बंधनों से मुक्त
अक्षर बन जाती हूँ मैं
और पहुंच जाती
उस विराट उर्जा के पास
घुल जाती हूँ सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में
यही मेरी नियति, प्रारब्ध और आध्यात्म है।

Friday, May 1, 2015

शिव और शक्ति



भौतिक शास्त्र के अनुसार गति और लय किसी भी पदार्थ का आधारभूत गुण है हम सभी इस जगत में एक लय में जीते है और प्रकृति के साथ उस लय में उसके नृत्य में शमिल होते है । यह नृत्य "सृजन और विनाश की एक ऐसी स्पंदनकारी प्रक्रिया है जहां केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि सृजनकारी एवं विनाशकारी ऊर्जा का अंतहीन प्रतिरूप शून्य भी जगत नृत्य में हिस्सा लेता है इसको आप हिन्दू धर्मग्रन्थो में शिव के नटराज छवि के प्रतीक रूप में देख सकते हैं ।

ये रचना कविता , गीत आदि कि तरह है पर एक विज्ञान है जिससे जगत का प्रत्येक पदार्थ संचालित होता है ।
लेकिन ये लय पूर्ण होती है शक्ति से क्योकि शिव मृत है एक शव , प्राण फूंकने वाली स्वर ध्वनि शक्ति के बिना जीवन संभव नहीं शिव की शक्ति तो देवी है उनका बल उनकी स्त्रैण उर्जा उनकी दिव्य क्रीड़ा उनकी माया का कारण और प्रभाव दोनों हैं । शिव जिस उर्जा को अपने तप में प्रयोग करते हैं शक्ति उन सभी क्रियाओं को धारण करती है ।

हमारी पुरानी कथाएं हमें जटिल भले ही लगे पर उन्हें पढ़ कर हमें स्त्री- पुरुष के समाकृति रूप की गहरी समझ और लैंगिकता दोनों का व्यापक स्वर बोध होता है ।

Wednesday, April 29, 2015

प्यार

रूह  को  भी  उसका  एहसास  न  हुआ  जिस्म  समझ  नहीं  पाया  आँखे देख  न  सकी  बस  उसका  होना  हमारे होने  से  टकराया  और  हमारा  होना  न  होना  होकर  रहा  गया।  मानो  रूह  ने  साथ  छोड़ा  हो  जिस्म  का। ऐसा  ही  होता  है  प्रेम  किसी  अनजाने  से  गाँव की  पगडंडी  से  चलता  हुआ  एक  उदास  घर  में  एक  उदासी से  मिलता  है ,  फिर  आदान  प्रदान  होता  है  ' शेखर एक जीवनी"  या  'गुनाहों का देवता'  का  और  रात  भर बारिश  होती  है  कहानी  भींगती है।   ठिठुरी  हुई  लम्बी  रातों  में  दो  तारे  बारी - बारी  से  जागते  हैं।
कही  दूर  किसी  सिसकी  का  जवाब  होता  है  तेरे  नाम  और  तेरे  ध्यान  की  कश्ती  से  मैं  दरिया  पार  कर लूँगा .ऐसा  ही  होता  है  प्यार  चाहे  तीन  रोज  का  हो  या  तीन  सौ  पैसठ  दिन  का 

किसी ने आवाज दी
जिन्दगी मुस्काई
कली ने पखुडियाँ खोली
और उदासी ढल गई

Friday, April 24, 2015

शिक्षा का व्यवसायिकरण


भारतीय सविधान में शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है . फिर भी सरकार की नीति उच्च शिक्षा में कम खर्च करने की रही है .उच्च शिक्षा में सरकारी भागीदारी को कम किये जाने के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे शिक्षा के स्तर और गुण्वत्ता में बढ़ोत्तरी होगी . निजीकरण की वकालत करने वाली यह मानसिकता खुद में काफी संशिलष्ट हैं . स्ववित्तीय शिक्षा संस्थाएं नई आर्थिक एवं शिक्षा नीति का परिणाम हैं . स्ववित्तीय शिक्षा संस्थाओं से शिक्षा में व्यापारीकरण की वृत्ति और प्रवृत्ति को वेग मिला है . 

निजीकरण किन स्थिति में उत्पन्न होता है इसकी तीन बड़ी वजह है पहली सरकार के पास इसके लिए पर्याप्त धन न हो दूसरा सरकार की प्राथमिकता शिक्षा को लेकर बदल रही हो तीसरे पुरनी शिक्षा पद्धतियों में कुछ ऐसी कमियाँ देखी गई हो जिन्हें निजीकरण के दवरा दूर किया जा सकता हो .

पूरा विश्व बाजार उत्पादन की बजाय सेवा विस्तार में हम फैलते हुए देख्र रहें हैं . कुल निर्यात का लगभग 90 प्रतिशत सेवायें है और उत्पादों का निर्यात मात्र 10 फीसदी है . भूमंडलीकरण होने के कारण अर्धविकास अब बोझ नहीं अवसर है जिसका बाजार फायदा उठा रहा है जिसकी परिणाम 'ग्रोथ विदाउट इम्प्लायमेंट" है और "ग्रोथ विदाउट इम्प्लायमेंट" का परिणाम "नालेज सोसाइटी" है इसीलिए प्राथमिक , माध्यमिक और उच्च शिक्षा तीनों स्तरों में समस्या और गिरावट देखने को मिल रही है . स्ववित्तीय शिक्षा से समाज में कई विधेयात्मक और अविधेयात्मक परिणाम द्रष्टिगोचर हो रहें हैं .

उच्च शिक्षा में स्वालंबन एक राष्ट्रीय उपलब्धि है जिसके जरिये सामाजिक गतिशिलता व जनतांत्रिक सपनों को उर्जा मिलती है . इसका व्यवसायिकरण वंचित वर्गों के लिए शिक्षा के जरिए उभरी सम्भावनाओं के विस्तारशील क्षेत्र को तुरंत समाप्त कर जायेगा .

मेरा भारत

तुम एक देश नहीं, भारत !
तुम सृष्टि हो
तुम हिमालय हो
सम्पूर्ण पुरुष हो
या सम्पूर्ण स्त्री के अवतार ।
तुम ब्रह्मविद्या हो
शिव हो
आदिशक्ति हो
तुम नारियों के स्रोत हो
सन्दर्भ हो ।
तुम अज्ञात हो
तुम ओम हो
तुम मौन हो
तुम शून्य हो
इसलिए ही तुम सम्पूर्ण हो ।
हिन्द हमें गर्व है
हम तुम में हैं
और तुम हम में ।

Thursday, April 23, 2015

उलझती सुलझती औरतें

बीते समय में
छत पर जुट आती थीं औरते
झाड़ती थीं छत को, मन को
बनाती थी पापड़, बड़ियाँ अचार
साथ में बनाती थी ख़्वाब

रंगीन ऊन के गोले
सुलझाते-सुलझाते
उलझती थी बारम्बार ।

पर आज की औरते
जाती नहीं छत पर ।

उनके पाँव के नीचे छत नहीं पुरी दुनिया है
उनके पास है जेनेटिक इंजीनियरिंग, एंटी-एजिंग, क्लोनिंग , आटोमेंटेंशन
जिनके एप्लीकेशन में उलझी
सुलझाती है पूरी दुनिया की उलजाने 

Tuesday, April 21, 2015

आँचल भर आशीष



आओ घर में आँगन बोयें
और बोयें इक चाँद
तुलसी चौरा संग प्रभाती
दीप जले हर साँझ
++
बिंदी कुमकुम चूड़ी पायल
जीवन हो संगीत
अम्मा बाबा से मिल जाये
आँचल भर आशीष
++
ड्योढ़ी पर की नीम
ठाँव फिर हो जाये
चलो कि एक बार साथी
हम फिर गाँव हो जायें

Friday, April 17, 2015

कर्म सौन्दर्य

मुझे अवतार नहीं बनना देव
मैं तो कर्म सौन्दर्य
करती हूँ संघटित ।

उसी से मेरा स्वरूप
भिन्न है मनु तुम से
मेरे जीवन में उसी से माधुर्य आता है ।


माधुर्य मुझे देता है
ज्ञानी उद्धव-सी चुप्पी
जो सह लेती है
वाचा का अन्तिम तीर
जो तुम से मुझ तक आता है ।

Wednesday, April 15, 2015

आग का दरिया

गली में आते जाते वो मिला मुझे
देखा और मुस्कुराया
मैं समझी उसे प्रेम है मुझसे
और एक दिन सच में उसने
रोक कर मेरा रस्ता 
बना कर मुझे राजकुमारी
कदमो में मेरे गिर कर कहा
मैं प्रेम करता हूँ तुम से
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था खूद पर
क्या मुझ से भी कोई प्रेम कर सकता है 
वो राँझा मजनू और न जाने क्या क्या बन गया 
ऐसा लगा मानो, 
आग का दरिया पार कर लेगा 
मैंने कहा तू अकेले नहीं 
मैं भी तेरे सफ़र में तेरी हमसफर हूँ 
और मैं अपनी पहचान, अपनी दृष्टि, अपनी समझ 
कपड़ों के साथ रख किनारे 
दरिया पार करने के लिए आग में कूद पढ़ी 
उसके साथ उसके ही तरीकों से तैरने के लिए
अचानक एक दिन उसने कहा, 
तू अच्छी तैराक नहीं 
तू कभी मेरी तरह तैर ही नहीं सकती
और जो मैं इतना तैरी?
उसने कहा बहस फ़िजूल है 
मैंने एक और तैराक खोज ली है 
और मुझे आग के दरिया के बीचो बीच छोड़ कर चलता बना
तब से मैं फीनिक्स की तरह उस आग के दरिया में जल जल कर 
ईजाद कर रही अनगिनत तरीके तैराकी के 
बचाना है उन सभी को, 
जिसे उसने एक एक कर छोड़ा है
आग के दरिया में बीचोबीच.

Tuesday, April 14, 2015

दर्शन



वो जब मिला था 
मुझे ऐसा लगा कि 
मानो उसके अन्दर बुद्ध हो 
फिर ईशु की तरह लगने लगा 
दुनिया का सबसे अच्छा और सच्चा आदमी 
मुझे उससे मिलकर एक साथ 
कई महान आत्माओं के दर्शन होने लगे 
मेरी तो जैसे दुनिया ही बदल गई 
मैं दूसरी दुनिया मैं थी 
जहाँ प्रेम था शांति और दर्शन था 
अर्थ का कोई नामोनिशान नहीं 
मैंने मन ही मन कहा 
मतलबी दुनिया तुझे सलाम 
मैं चली मेरी दुनिया में 
हम घंटो नदी किनारे या किसी दर्रे में बैठे 
बात करते जिसमे सब कुछ होता 
गीत कविता दर्शन संगीत 
फिर एक दो तीन ...न जाने कितने दिन उसने मुझे 
प्रेम का दर्शन बताया 
दर्शन ने आकार लेना शुरू किया 
और मेरे अस्तित्व में दिखाई देने लगा 
और अचानक एक रात 
वो अपने दर्शन के साथ अकेला छोड़ 
किसी नए दर्शन की तलाश में जो गया 
तो नहीं लौटा 
मैं आज कल सुबह सात से शाम सात बजे 
मिल की मशीनों के बीच रहती हूँ अर्थ दर्शन को 
और रात दर्शनशास्त्र की किताबों को फाड़ लिफाफे बनाती हूँ