Monday, November 12, 2018

लोक का रंग लोकगीत

रोपा रोपे गेले रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये
लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये
हर जोते गेले रे डिंडा दंगोड़ा एड़ी भईर तोलोंग लोसाते जाये
लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ा एड़ी भईर तोलोंग लोसाते जाये।
कितना उल्लास है इस लोकगीत में
हल जोतते हुए युवक की धोती का 'तोलोग' लहरा रहा है और धान रोपती युवती की बाली 'गुंगु' के ऊपर हिल रही है । ये लोकगीत है वही लोक गीत जो सबसे पहले हमारे पूर्वजों ने अन्ना के लिए गया था।
असल में लोकगीतो का मनोरंजन के साथ-साथ एक समाजशास्त्रीय संदर्थ भी होता है। धान रोपनी ही नहीं हर वो गीत जो लोक जीवन से जुड़ा है उसमें आभाव में उल्लास का फलसफा है शायद ये भविष्य में होने वाली बेहतर की उम्मीद है ये वो आशा है जो भारतीय संस्कृति व भारतीय संस्कारों का प्रतिनिधित्व करती है।
वैदिक ॠचाओं की तरह लोक संगीत या लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय संवेदनाओं के सहजतम उद्गार हैं। ये लेखनी द्वारा नहीं बल्कि लोक-जिह्वा का सहारा लेकर जन-मानस से निःसृत होकर आज तक जीवित रहे।
उपनिषद के रचयिताओं की कल्पना में ऐसा कोई गीत आ ही नहीं सकता था जिसका संबंध अन्न प्राप्ति के विचार से न हो या ऐसी किसी इच्छा की पूर्ति से न हो तभी तो सबसे पहला लोकगीत अन्ना प्राप्ति के लिए ही किसी स्त्री ने गया होगा।
उपनिषद के राचयियताओं को ऐसे किसी गीत की शायद ही जानकारी हो जो उदगीत न हो ।
उद का अर्थ था श्वास, गीत का अर्थ था वाक् और था का अर्थ था अन्न अथवा भोजन
तो भोजन खोजते अन्न लगाते हुए ऐसे हुआ लोकगीत का जन्म।
लेकिन वो गीत ही क्या जिसमे ठहराव आ जाए लोक बदलते रहे उनके संस्कार बदलते  रहे तो गीत कहा ठहरने वाले थे वो जिसके कंठ से फूटे उसी जैसे होते गये, इसलिए लोक संस्कृति में कुछ जुड़ा तो कुछ घटा
पर इस सारे जोड़ घटाव के बाद भी उसकी मूल सुगन्धि ज्यों की त्यों बनी रही लोक का व्यूत्तिपरक अर्थ है "जो कुछ दिखता है, इंद्रिय गोचर है प्रत्यक्ष विषयता का बोध होता है वही लोक है" और उसके जनमानस से निकला संगीत लोक संगीत है।
लोकगीत इतिहास की वो दरवाजा है जिसने युद्धों, आंदोलनों बर्बरता से सभ्यताओं को सुरक्षित रखा है दरवाजे के पार हमारा अतीत चाहे कैसा भी हो लोकधुन उसमे उल्लास भारती है। इस युग पुरानी परम्परा से जुड़ाव ने शब्दों के संयोजन को बचाए रखा है।
हमें अगर लोकगीतो के विषय में जानना है तो हमें अतीत की दीवारों पर कान लगाना ही होगा वेदों से लेकर मोहन जोदड़ो तक और शायद उस से भी आगे तमाम स्त्री स्वर हमें सुनाई देंगे जिन्हें वर्तमान युग में  सोहर गीत, मुंडन गीत, जनेउ गीत,विवाह गीत,उत्सव गीत,खेल गीत,पेशा गीत,,लोकगाथा गीत,पर्व गीत,जाती गीत आदि नाम दे दिया है।
आचार्य रामचंद शुक्ल कहते है -जब-जब शिष्टों का काव्य पंडितों द्वारा बंधकर निश्चेष्ट और संकुचित होगा तब-तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश के सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई प्राकृतिक भाव धारा से जीवन तत्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा।
राजाओं की सभाओं में साहित्य के महापंडित हो सकते है और उनके गुणगान करते गीत भी लेकिन जान साधारण ने जो रचा वो भावना झोपड़ियों में गुंजाते- गूंजते छंद तोड़कर ऐसी उमड़ी जिससे सातों लोकों का तो पता नहीं पर लोकजीवन अपने अभाव में भी भाव से भर उठा भाव की झंकार में एक उमड़ती हुई पुकार है , एक आक्रोश है और ललकारती हुई चुनौती है तो करुण कतार भावना है तो प्रेम भी है।
संगीतमयी प्रकृति जब गुनगुना उठती है लोकगीतों का स्फुरण हो उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न ॠतुओं के सहजतम प्रभाव से अनुप्राणित ये लोकगीत प्रकृति रस में लीन हो उठते हैं। बारह मासा, छैमासा तथा चौमासा गीत इस सत्यता को रेखांकित करने वाले सिद्ध होते हैं। पावसी संवेदनाओं ने तो इन गीतों में जादुई प्रभाव भर दिया है। पावस ॠतु में गाए जाने वाले कजरी, झूला, हिंडोला, आल्हा आदि इसके प्रमाण हैं।
सामाजिकता को जिंदा रखने के लिए लोकगीतों/लोकसंस्कृतियों का सहेजा जाना बहुत जरूरी है। कहा जाता है कि जिस समाज में लोकगीत नहीं होते, वहां पागलों की संख्या अधिक होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी  ने कहा था कि लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं।
सदियों से दबे-कुचले समाज ने, खास कर महिलाओं ने सामाजिक दंश,अपमान,घर-परिवार के तानों,जीवन संघषों से जुड़ी आपा-धापी को अभिव्यक्ति देने के लिए लोकगीतों का सहारा लिया और बना लिए अपने दर्द से रूह के रिश्ते और इस तरह जाते हुए सूरज को आँख भिगोकर उन्होंने भले ही देखा हो या उगते चाँद से मुस्कुराकर नज़रे भले ही मिलाई हो दोनों ही स्थति में जो उनके साथ था वो था उनका गीत वो गीत जिन्हें आपने ,हमने नाम दिया लोकगीत।
कला को खूबसूरत होना चाहिए मगर उससे भी पहले कला को सच्चा होना चाहिए । हर गीत एक दर्द भरी निजी प्रक्रिया से गुजरकर अपने निजी सत्य को जानता है इसलिए ही शायद लोकगीत सदियों से जनमानस में अपनी पैठ बनाएं है।
लोकगीत अनगढ़ भले ही हो पर लिजलिजी भावनाओं की भयंकर बाढ़ में ये बाकायदा कश्ती बन जनमानस को उनके गंतव्य तक पहुंचा ही देता है।
मूसलाधार बारिस में भीगते हुए या तपते हुए सूर्य  की किरणों को सहते हुए किसी अज्ञात कंठ से फूटते हुए उस काल उस समय को नमन जिसने हमें जीवन के उल्लास सुरों में ढाल कर दिया ।
अज्ञात रचयिताओं तुम्हें नमन तुमने अपने हरेपन को बचा कर रखा ताकि हमारे रास्तों में रस बना रहे।