Wednesday, December 4, 2019

दास्तान-ए- इश्क

उस दिन गहन निस्पंद  आधी रात में अचानक टहनियों की फुनगी पर पढ़ी बदली से निकलते चांद की रोशनी उतार लाई थी, अतीत का स्वप्न

अहा! कैसे तो स्वप्न थे बारम्बार बांधते थे मन के सुने द्वार पर पंखों के तोरण

आज फिर मादल की थाप कानो में गूंज रही है....
पलाश के फूल तारों भरे सफेद दुपट्टे पर गिर रहे है । उधर कुछ दूर बंदिशें अपनी मुस्कान लिए बिखर- बिखर जा रही है।
पलकों की कोरें  बंदिशों की छांव बन अपनी आंखों से काजल का टीका लगा रहीं है।

काजल का टीका आत्माओं के अंधेरों से  कहां कभी बचा पाया है?

बिखरे शब्द जंगल के रास्ते शहर की धूप भरी सड़को पर पहचाने गये   लाल स्याही से गोले लगाए जाने लगे.....
बंदिशें भूल गई थी मात्राओं का खेल निराला है इसलिए राजा है तभी न उसकी नीति व अनीति का साया है।

पलाश तो स्वच्छंद उगता है.... इसलिए जंगल मे ही फलता फूलता है...जंगल मे शब्द नही होते सिर्फ ध्वनि होती है,हर राजा कहां समझ पाता है हर ध्वनि  गुरुत्वाकर्षण का भेदन नही करती....।

आज भी निस्पंद रात में जब कभी बादलों की ओट से चांद की रोशनी टहनियों की फुनगियों पर पड़ती है तो न जाने क्यूं मन के नक्शे पर एक हराभरा जंगल बंदिशें गाने लगता है।
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Wednesday, November 27, 2019

गांधी कहाँ हैं ?

गांधी के  व्यक्तित्व को  लेखों पुस्तकों नही समेटा जा सकता है । गांधी का जीवन तो वह  महान गाथा  है जिसके द्वारा  शब्दों में ब्रह्म की शक्ति को समाहित कर उस गूढ़ मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से लोगों का परिचय कराया और  दिखाया गया  कि विचार, वाणी, और कर्म से जो चाहे वो किया जा सकता है  । हालांकि जो वह  नहीं कर सकते थे उस के लिए उन्होंने कभी किसी से कहा भी नहीं । अपने आचरण से मण्डित  शब्दों को उन्होंने मन्त्र से भी ज्यादा प्रभावशाली बना डाला था यही कारण था कि  उनके एक -एक कार्य शैली को लोगो ने जिया था। उनका जीवन सदैव  आत्मा के प्रकाश से  प्रकाशित रहा और उस प्रकाश में ही उन्होंने अपनी जीवन यात्रा तय की। 
हम सब जिस गांधी को जानते है वह वो व्यक्ति हैं  जिसे समय ने  हिन्दुस्तान के लिए चुना और फिर गढ़ा उस भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जो राम से चलती हुई बुद्ध   तक आई थी। 
गांधी ने करोड़ो देशवासियो की संभावनाओं  को गढ़ा और भर दिये  उनकी आंखो में सपने आजाद भारत के ।  एक गुलाम देश का फेका गया चोट खाया स्वाभिमान जो एक  सूने प्लेटफार्म में अपनी संस्कृती और सभ्यता समेटता हुआ भारतवर्ष के भविष्य को एक नूतन आकार  देने के संकल्प के साथ उठ खड़ा हुआ। गांधी ने अपने अपमान को देश और देशवासियों का सामूहिक अपमान को स्वतन्त्रता में बदल डाला। बुद्ध की करुणा को ह्रदय में धारण करके गांधी ने पीड़ित जनमानस के ह्रदय में धंसा  तीर निकला था और दुखी संतृप्त देश को आशा की न सिर्फ किरण दिखलाई थी बल्कि उन्होंने उन्हें उनके अस्तित्व से रूबरू भी कराया था। 
यह प्रश्न ही काफी है कि हमें गांधी की जरुरत है तो क्या गांधी के विचारो की प्रासंगिकता पर विचार करना चाहिए ? पर हम तो विकास के रास्ते पर चल पढ़े है फिर गांधी के विचारो का आत्ममंथन क्यों करे? पर  उन समस्याओं का क्या जो विकास के रास्ते में मजबूती से गढ़ी है ये समस्याएं है- आर्थिक असमानता एवं पर्यावरणीय परिस्थितिकी असंतुलन।क्या  ये समस्याएं  आर्थिक वृद्धि की सफलता का या बड़े पैमाने पर अपनाई गई  प्रौद्योगिकी को अपनाने का परिणाम है?  ऐसे ढेरों प्रश्नों के उत्तर गांधी में ही ढूंढा  है  । आज के समय गांधी की प्रासंगिकता क्या  है यह जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि गाँधी के व्यक्तित्व एवं विचार दर्शन का मूल आधार क्या है?  
गांधी राजनीतिज्ञ हैं, दार्शनिक हैं, सुधारक हैं, आचारशास्त्री हैं, अर्थशास्त्री हैं, क्रान्तिकारी हैं। समग्र दृष्टि से गाँधी के व्यक्तित्व में इन सबका सम्मिश्रण है मगर उनके व्यक्तित्व एवं विचार दर्शन का मूल आधार धार्मिकता है। बक़ौल  गांधी- मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है. सत्य मेरा भगवान है। अहिंसा उसे साकार करने का साधन है। एक धर्म जो व्यावहारिक मामलो पर ध्यान नहीं देता और उन्हें हल करने में कोई मदद नहीं करता धर्म नहीं है।  
स्वामित्व और प्रबंधन का केन्द्रीयकरण श्रम का अवसर कम होना एवं पर्यावरण का प्रदूषण और प्राकृतिक  संसाधनों के तेजी से दोहन के कारण  वो समाप्ति की तरफ है । इसके फलस्वरूप  परिस्थितिक  असंतुलन का खतरा तेजी से बढ रहा है ऐसे समय मे हमें गांधी के व्यवहारिक धर्म को अपनाने की आवश्यकता है। आज अगर महात्मा गांधी होते तो इसके समाधान स्वरुप 'स्वदेशी' प्रौद्यौगिकी’ का सुझाव देते जिसका  स्थानीय संसाधनों से ही  स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति करना है । उत्पादन स्थानीय जरुरतो के लिए होने के कारण उसके माल भाड़े,विक्रय और उसके प्रबन्धन आदि की लागत में कमी होती। चूँकि  लाभ केन्द्रिकत नहीं होता या सीमित होता तो आर्थिक असमानता में निरंतर कमी होती जाती। 
गांधी के विचारो से प्रेरित अमर्त्य सेन विकास का तात्पर्य मनुष्य की स्वतंत्रता को मानते है। यह स्वतंत्रता केवल तभी पाई जा सकती है,यदि हम उसे केवल 'अंतिम मंजिल न' मान कर उसकी प्रक्रिया में ही उसे समाहित कर सके।  आर्थिक केन्द्रीयकरण  की जरूरतें राजनीतिक, केन्द्रीयकरण के बिना पूरी नहीं की जा सकती है।गांधी ने अपने जीवन के साथ बहुतेरे प्रयोग किये वो अपनी आत्मकथा में लिखते है मेरी आत्मकथा के हर पन्ने में मेरे प्रयोग झलके तो में इस आत्मकथा को निर्दोष मानूंगा। क्या हमारे अर्थशास्त्री  एवं राजनेता प्रयोग नहीं कर सकते?  मानव -मानव में भेद धर्म -धर्म में भेद राग- द्वेष इन सबको मिटाने का प्रयोग हमें करना होगा ताकि राजनेता लोकतान्त्रिक आकाँक्षाओं व अधिकारों को पोषित करना छोड़ दें और एक हिंसक सोच को अहिंसक रूप देने का प्रयोग शुरू हो। 
हमारे देश को प्रशासन की बुनियाद की तरफ देखना ही होगा जनता के निचले तबके की भागेदारी व सरकारी नियंत्रण से मुक्त स्वराज के लिए गांधीवाद को अपनाना ही होगा। एक राष्ट्र की बुनियादी प्रगति के लिए ये सोच बहुत ही जरुरी है इससे विकास की गति बहुपक्षीय  होगी जो आर्थिक व सामाजिक आसमनाता की खाई को भर देगी।मार्टिन सुआरेज ने अपनी पुस्तक ' पोप गोज टू अलास्का 'में लिखा है , अगर जीसस या बुद्ध होने की राह चाहिए तो गांधी को समझ लीजिये । अगर इंसानियत की राह  चाहिए तो गांधी को सिर्फ समझना ही नहीं होगा बल्कि उनके वाद को  लोकतंत्र में स्थापित भी करना होगा। आज के समाज की मनोदशा को दिशा देने के लिए गांधी को फिर से समझना होगा ऐसा न हो कि हम देर कर दे और फिर से बर्बर युग में प्रवेश कर जाएं। 
स्वीडिश अर्थशास्त्री गुर्नार मिर्डल  का कहना है,  जिस सामाजिक और आर्थिक क्रांति का स्वप्न गांधी ने देखा उसमे गहन दूरदर्शिता थी। आज समानाताओं की बड़ी वजह दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है । ऐसी प्रणाली जो श्रमिक और शिक्षित के बीच की दूरियों को पाट नहीं पाई ।ये कैसी शिक्षा है जो डिग्री धारक को श्रमिक बना देती है और श्रमिक को श्रम का मूल्य  नहीं दे पाती है ।ऐसी स्थिति में गांधी तकनीकी  शिक्षा का रास्ता सुझाते हैं जिसमे शिक्षा का मापदंड डिग्री नहीं ज्ञान हो ताकि व्यक्ति अपने कार्य से अर्थ अर्जित आसानी से कर सके। 
भारत ने सदा ही अपना सर्वोतम दुनिया को दिया है। यह वह धरती है, जहां बुद्ध ने जन्म लिया था। वही बुद्ध, जिन्हें मानने वाले करोड़ो देश के बाहर है तो मुठ्ठी भर देश के अन्दर है । कालांतर में यही मिटटी दुनिया को गांधी जैसा द्रष्टा सौंपती है लेकिन वह  भी कही गुम हो जाता है। गांधी कहां है?  क्यों हमारे अन्दर या हमारे सिद्धांतो में दिखाई नहीं देते? 
भारत देश में जो गांधीवाद है क्या वह  सच में उनकी राह  पर चल रहा  है ? कहीं गांधी खोया हुआ महात्मा तो नहीं ।क्या इस फरिश्ते की चमक अपनी ही धरती पर मिट रही है? सच है गांधी किताबो में गुम है जो निकल आते है कभी -कभी विशेष दिनों में । यह कैसी बिडम्बना है हम गांधी को अपनाना चाहते है उन्हें समझना चाहते है पर कहीं न कहीं भाग रहे है खुद से समस्याओं से । हमें खुद को जांचना होगा ।आने वाली पीढ़ी के लिए उन्हें वह  सपने देने होंगे जिनका सपना बापू ने देखा था । क्या जवाब हम बच्चो को देंगे जब वो कहेंगे कि बापू जो अहिंसा का पाठ आप को पढ़ा गए थे  तब भी इतना हिंसक समाज क्यों है? गांधी को वाद, विचार, सिद्धांत से मत जोडिये गांधी को इंसानियत से जोडिये क्योंकि यहीं  से शुरुआत होगी बेहतर जीवन की, बेहतरीन समाज की.....। 

Wednesday, October 30, 2019

यात्रा


सभ्रम के साथ हम साथ यात्रा पर निकले राही है

कहीं से गुजरना और गंतव्य तक पहुंचना
दोनों यात्राएं अलग-अलग होती है
यात्रा में दूरी की जांच-पड़ताल नहीं की जाती
बस यात्रा की लहरों के
के साथ कदमताल मिलाया जाता है

जीवन के खुरदुराहट के भीतर
मन की अँगुलियों ने
यात्रा सुखद हो
इसलिए कितने ही रास्ते बनाएं
सारे संताप उलीचने की कोशिश की
और यात्रा जारी रखी

न जाने कब से यात्रा चल रही है
हर कोई यात्री है अपने सपनों के साथ
वो कहाँ भस्माभूत होते है सिर्फ चेहरा बदलते है
वक्त के साथ उनकी यात्रा भी चलती रहती है

सूर्य यात्रा के आधे रस्ते पर
अँधियारा दूर करता आगे बढ़ रहा है,
अंधियारा ,सितारों को रास्ता बताने के लिए यात्रा पर है

इश्क की बिसात पर रांझे कश्ती खे रहे है
रात आईने में बदलती है
पर बारिश सबके लिए नहीं होती

चाँद हर यात्रा में बताता है इश्क की हक़ीक़तें
तब देह की यात्रा
पाक हो पहुँचती है आत्मा तक

सुदूर सितारों की भट्ठी से
धरती पर चली आई धूल की यात्रा
अज्ञात में सिमटी है

मिट्टी की यात्रा उस बूँद के इंतज़ार में है जो जीवन को आगे बढ़ाएं।
पुरुष की देह से गुज़री एक बिंदु की यात्रा
स्त्री देह तक आकार अगर ख़त्म हो जाती तो
यात्रा के महत्त्व को कैसे समझते हम

कोई भी यात्रा यूं ही नहीं होती
प्रशांत नयन से भाद्रपद के चंद्रमा तक
साँस से आस तक।
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Wednesday, October 16, 2019

मेरी प्रकृति और तुम्हारी प्रकृति से
हमारा सह - अस्तित्व बना है.
तुमने मेरे अन्दर प्रेम के बीज बोये है 
और मैने प्रेम पूर्ण उत्पादन करा है 
तुम्हे दी है प्रसन्नता की फसल 
तुम्हारा प्रेम मेरी रचना मे हमेशा प्रवाहमान रहा है 
कभी वृक्ष, वन, सागर,
कभी परबत, हवा, बादल मे
बस इतना करना 
अपने अंतर्मन के सत्य से
मेरे मन को बाँध  कर 
मेरे भौतिक मन को 
प्राकृतिक मन मे बदल देना  

Thursday, October 3, 2019

षोडशोपचार

लोक संस्कृति हो या वैदिक संस्कृति मानव के मन मे जब जब इच्छा उठेगी तब तब वो उसकी पूर्ति के लिए ईश्वर का आहवान करेगा आराधना का तरीका भिन्न हो सकता है जैसे पूर्णरूप से भौतिक या दिव्य आनंद से युक्त या पूर्ण आधयात्मिक।
  
हिन्दू धर्म में किसी भगवान को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार की पूजा के विधान है पर मुख्य रूप से पूजन के मुख्य छ: प्रकार है--
  • पंचोपचार (5 प्रकार)
  • दशोपचार (10 प्रकार)
  • षोडशोपचार (16 प्रकार)
  • द्वात्रिशोपचार (32 प्रकार)
  • चतुषष्टि प्रकार (64 प्रकार)
  • एकोद्वात्रिंशोपचार (132 प्रकार)

षोडशोपचार

पूजन का कृत्य

१. प्रथम उपचार : देवता का आवाहन करना (देवता को बुलाना)
‘देवता अपने अंग, परिवार, आयुध और शक्तिसहित पधारें तथा मूर्ति में प्रतिष्ठित होकर हमारी पूजा ग्रहण करें’, इस हेतु संपूर्ण शरणागतभाव से देवता से प्रार्थना करना, अर्थात् उनका `आवाहन’ करना । आवाहन के समय हाथ में चंदन, अक्षत एवं तुलसीदल अथवा पुष्प लें ।
इ. आवाहन के उपरांत देवता का नाम लेकर अंत में ‘नमः’ बोलते हुए उन्हें चंदन, अक्षत, तुलसीrदल अथवा पुष्प अर्पित कर हाथ जोडें ।
टिप्पणी – १. देवता के रूप के अनुसार उनका नाम लें, उदा. श्री गणपति के लिए ‘श्री गणपतये नमः ।’, श्री भवानीदेवी के लिए ‘श्री भवानीदेव्यै नमः ।’ तथा विष्णु पंचायतन के लिए (पंचायतन अर्थात् पांच देवता; विष्णु पंचायतन के पांच देवता हैं – श्रीविष्णु, शिव, श्री गणेश, देवी तथा सूर्य) ‘श्री महाविष्णु प्रमुख पंचायतन देवताभ्यो नमः ।’ कहें ।
२. दूसरा उपचार : देवता को आसन (विराजमान होने हेतु स्थान) देना
देवता के आगमन पर उन्हें विराजमान होने के लिए सुंदर आसन दिया है, ऐसी कल्पना कर विशिष्ट देवता को प्रिय पत्र-पुष्प आदि (उदा. श्रीगणेशजी को दूर्वा, शिवजी को बेल, श्रीविष्णु को तुलसी) अथवा अक्षत अर्पित करें ।
३. तीसरा उपचार : पाद्य (देवता को चरण धोने के लिए जल देना;पाद-प्रक्षालन) 
देवता को ताम्रपात्र में रखकर उनके चरणों पर आचमनी से जल चढाएं ।
४. चौथा उपचार : अघ्र्य (देवता को हाथ धोने के लिए जल देना; हस्त-प्रक्षालन)
आचमनी में जल लेकर उसमें चंदन, अक्षत तथा पुष्प डालकर, उसे मूर्ति के हाथ पर चढाएं ।
५. पांचवां उपचार : आचमन (देवता को कुल्ला करने के लिए जल देना; मुख-प्रक्षालन)
आचमनी में कर्पूर-मिश्रित जल लेकर, उसे देवता को अर्पित करने के लिए ताम्रपात्र में छोडें ।
६. छठा उपचार : स्नान (देवता पर जल चढाना)
धातु की मूर्ति, यंत्र, शालग्राम इत्यादि हों, तो उन पर जल चढाएं । मिट्टी की मूर्ति हो, तो पुष्प अथवा तुलसीदल से केवल जल छिडवेंâ । चित्र हो, तो पहले उसे सूखे वस्त्र से पोंछ लें । तदुपरांत गीले कपडेसे, पुनः सूखे कपडे से पोंछें । देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछने के लिए प्रयुक्त वस्त्र स्वच्छ हो । वस्त्र नया हो, तो एक-दो बार पानी में भिगोकर तथा सुखाकर प्रयोग करें । अपने कंधे के उपरने से अथवा धारण किए वस्त्र से देवताओं को न पोंछें ।
अ. देवताओं को पहले पंचामृत से स्नान करवाएं । इसके अंतर्गत दूध, दही, घी, मधु तथा शक्कर से क्रमानुसार स्नान करवाएं । एक पदार्थ से स्नान करवाने के उपरांत तथा दूसरे पदार्थ से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं । उदा. दूध से स्नान करवाने के उपरांत तथा दही से स्नान करवाने से पूर्व जल चढाएं ।
आ़ तदुपरांत देवता को चंदन तथा कर्पूर-मिश्रित जल से स्नान करवाएं ।
इ. आचमनी से जल चढाकर सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाएं ।
ई. देवताओं को उष्णोदक से स्नान करवाएं । उष्णोदक अर्थात् अत्यधिक गरम नहीं, वरन् गुनगुना पानी ।
उ. देवताओं को सुगंधित द्रव्य-मिश्रित जल से स्नान करवाने के उपरांत गुनगुना जल डालकर महाभिषेक स्नान करवाएं । महाभिषेक करते समय देवताओं पर धीमी गति की निरंतर धारा पडती रहे, इसके लिए अभिषेकपात्र का प्रयोग करें । संभव हो तो महाभिषेक के समय विविध सूक्तों का उच्चारण करें ।
ऊ. महाभिषेक के उपरांत पुनः आचमन के लिए ताम्रपात्र में जल छोडेें तथा देवताओं की प्रतिमाओं को पोंछकर रखें ।
७. सातवां उपचार : देवता को वस्त्र देना
देवताओं को कपास के दो वस्त्र अर्पित करें । एक वस्त्र देवता के गले में अलंकार के समान पहनाएं तथा दूसरा देवता के चरणों में रखें ।
८. आठवां उपचार : देवता को उपवस्त्र अथवा यज्ञोपवीत (जनेऊ देना) अर्पित करना 
पुरुषदेवताओं को यज्ञोपवीत (उपवस्त्र) अर्पित करें ।
९-१३. नौंवे उपचार से तेरहवें उपचारतक, पंचोपचार अर्थात देवता को गंध (चंदन) लगाना, पुष्प अर्पित करना, धूप दिखाना (अथवा अगरबत्ती से आरती उतारना), दीप-आरती करना तथा नैवेद्य निवेदित करना ।
नैवेद्य दिखाने के उपरांत दीप-आरती और तत्पश्चात् कर्पूर-आरती करें ।
१४. चौदहवां उपचार : देवता को मनःपूर्वक नमस्कार करना
१५. पंद्रहवां उपचार : परिक्रमा करना
नमस्कार के उपरांत देवता के सर्व ओर परिक्रमा करें । परिक्रमा करने की सुविधा न हो, तो अपने स्थान पर ही खडे होकर तीन बार घूम जाएं ।
१६. सोलहवां उपचार : मंत्रपुष्पांजलि
परिक्रमा के उपरांत मंत्रपुष्प-उच्चारण कर, देवता को अक्षत अर्पित करें । तदु पूजा में हमसे ज्ञात-अज्ञात चूकों तथा त्रुटियों के लिए अंत में देवतासे क्षमा मांगें और पूजा का समापन करें । अंत में विभूति लगाएं, तीर्थ प्राशन करें और प्रसाद ग्रहण करें ।
मानवीय अंतःकरण में सत्प्रवृत्तियों, सद्भावनाओं, सुसंस्कारों के जागरण, आरोपण, विकास व्यवस्था आदि से लेकर महत् चेतना के वर्चस्व बोध कराने, उनसे जुड़ने, उनके अनुदान ग्रहण करने तक के महत्त्वपूर्ण क्रम में कर्मकाण्डों की अपनी सुनिश्चित उपयोगिता है । इसलिए न तो उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए और न उन्हें चिह्न पूजा के रूप में करके सस्ते पुण्य लूटने की बात सोचनी चाहिए । कर्मकाण्ड के क्रिया-कृत्यों को ही सब कुछ मान बैठना या उन्हें एकदम निरर्थक मान लेना, दोनों ही हानिकारक हैं । उनकी सीमा भी समझें, लेकिन महत्त्व भी न भूलें । संक्षिप्त करें, पर श्रद्धासिक्त मनोभूमि के साथ ही करें, तभी वह प्रभावशाली बनेगा और उसका उद्देश्य पूरा होगा ।

Saturday, August 10, 2019

सावन और उद्गगीत

धरा की नैसर्गिक सौन्दर्यता देख लोक की मनः भावना करोड़ो-करोड़ मुखों से पावस गीतों के रूप में फूट पड़ती है | वर्षा ऋतू में भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कजरी, हिन्दुली, चौमासा,  सावन गीत ,वन्य प्रदेशों में टप्पा, झोलइयां, मलेलबा  आदि तमाम तरह के मधुर गीतों से प्रकृति गुंजायमान हो जाती है |
लेकिन ये गीत आए कहां से इन्हें किसने रचा....?

उपनिषद के रचयिताओं ने उद्गगीत  का सृजन किया उनका संबंध अन्न प्राप्ति के विचार से ही था असल मे  उद का अर्थ था श्वास ,गी का अर्थ था वाक्र और था का अर्थ था अन्न अथवा भोजन।(लोकायत)
अन्न पर स्थित सारे विश्व की मंगलकामना करने का विचार ही कितना मनमोहक है।

ऋतु प्रेम, उल्लास, उछाह साथ ही करुणा की अभिव्यक्ति की ऋतू है ऐसी ही किसी ऋतु में रिमझिम बारिश में डूबे खेत, हरियाली का दुशाला ओढ़े पर्वत, कल - कल करती नदियां और झूमते दरख्त ऐसे में श्रम में लीन किसी तरुनी ने काले- काले बादलों के समूह को जाता देख तान छेड़ी होगी जिसमे प्रेम के साथ-साथ विरह भी था और थी कहीं न कहीं अन्न प्राप्ति की भावना जो श्रम की थकान से मुक्ति का मनोविज्ञान भी था।

इस सुंदर धरती पर अपना जीवन खुद गढ़ने का अद्भुत वरदान ईश्वर ने मानव को दिया है इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम इस धरती को मौसम के अनुकूल रहने दे तभी सावन आएगा बादल छाएंगे और तरुणी गा उठेगी---   


रसे रसे पानी बरसे हुलसे है परान 
रसे रसे बाढ़े, खेतवा में हरियर धान
रसे रसे बोले धनिया रसभरी बतिया   
रसे रसे भीजे, पोरे पोरे देहिया जुड़ान  

मटियारी गीत और निरबंसियों की कथा ठहर कर सुनने के लिए प्रकृति को सुनना जरूरी है 
बादर बुनियाते रहे... मानस  .. के स्वर और तेज होते रहे बस प्रकृति से यही कामना है--

'घन घमंड नभ गरजत घोरा ...प्रिया हीन डरपत मन मोरा' ।


Friday, July 19, 2019

ज़रा पढ़ना दिल की ये किताब आहिस्ता आहिस्ता

बचपन में मालवा के बिताए सालों में मां के साथ जब भी बाज़ार जाती थी तो काकीजी के हाथ से बनी डबल लौंग सेव खाना कभी नही भूलती वो मुझे इतने पसंद थे कि उनके लिए मैं कुछ भी छोड़ सकती थी। लेकिन खाते ही जो मुंह जलता सो बस की बोलती बंद ।
जबान की बोलती बंद आंखे बोलती वो भी आंसुओ की भाषा.... तब काकी रामजी की मूरत के सामने से मिश्री की डली उठा कर मेरे मुहं में रख देती... अब दोनों स्वाद मेरी जबान पर होते।
मिश्री की डली  मैं ने भी उठा कर अपने मुंह में रखी मुझे क्या पता था डबल लौंग वाले सेव का स्वाद भी चला आएगा....😊 
बाप रे बाप तुम्हारा गुस्सा पहली बार जब मेरा इससे सामना हुआ तो... तुम किसी को डांट रहे थे और मैं अंदर ही अंदर कांप रही थी कुछ कहना चाहती थी लेकिन सब भूल गई थी समझ नही आ रहा था पहली बार मोहिनी मुस्कान लिए जो मिला था वो क्या यही है....। लो मैं कहां फंस गई।😊
मिश्री की डाली कब की घुल गई थी अब केवल लौंग का स्वाद ही जुबा पर था। लेकिन प्यारा था।
न तुम भाई, न बंधु, न सखा न...।
लेकिन मन साध रहा था शायद कोई रिश्ता....।

गंगा के मैदान पर पहली बार तुम्हें देखा तो जाना फाल्गुन पंचाग का अंतिम महीना नही पहला महीना होता है
कुछ था जो मन से चित्त की तरफ चलने लगा था ।
आसमान कितना ऊपर था धरती कितनी नीचे कुछ पता ही नही चला जैसे हर तरफ क्षितिज ही क्षितिज....जाती ठंड मुझ में एक सिहरन छोड़े जा रही थी।

अजीब जगह थी जहां तुम मिले थे वहां अलसाई सुबह थी उदास शाम थी और तन्हा रात ,लेकिन रात की सारी उदासी सुबह की मीठी आवाज़ में गुम हो जाती... कितनी कशिश थी उस बुलावे में.... उफ़्फ़

दोपहर की रौनकों का कस्बा है ये जगह जहां एक दिन दोपहर में मैं ने तुम्हारी आहट को पहचाना था आहट क्या थी रिफ़त- ए- चाहत थी जो लम्हा लम्हा रूह में समा रही थी.... पल पल रहत में दिन निकल रहे थे।
धूप के साए कम होने लगते थे कि फिर आने के लिए तुम चले जाते और मैं तुम्हें देखती उसी खिड़की से । बस उसके बाद शुरू होता तुम्हें देखने का सिलसिला तुम्हारा आना पल पल देखती ये जानते हुए भी कि तुम अभी नही आओगे।
 तुम्हारे आने की आहट कैसे तो मन मे गुदगुदी लाती मैं अपने को बमुश्किल संभाल पाती....।

फ़क़त बिजनिस में उलझे तुम, तुम कविता लिखने वाली लड़की के मन की बात पता नही समझते थे या नही लेकिन  डूबता सूरज दिखाने पर तुम्हारी मुस्कान गहरी होती ।कभी कभी मेरी कुछ कविता सी बातें पढ़ते तुम मुझे कोई और ही लगते.... तुम भी अब रच रहे थे ,कविता नही मुझे और  मैं रच रही थी पल- पल हर पल मन में पलते तुम्हारे अहसासों को।
कैसे तुम्हें बताती कि तुम्हारे साथ बिताए पल सितारों की तरह टंक गये है मेरे अंतस में या 
कि मेरी सीधी- सुलझी बातें और तुम्हारा उलझे- उलझे मुझे देखना 
कि मेरी ढेर सी अभिलाषाएं कि तुम्हारी विवशताएं....।
कि वो दो आंखे जो मुझे सच बयान करती थी और जिन्हें मैं चूमना चाहती हूं मरने से पहले।
 कि तुम्हारे सामने  झुकता मेरा सर लाज थी  उस प्यार की जो अब मन से चित्त में उतर चुका था। 
कि जब भी मैं तुम्हारे पीछे- पीछे चलती मैं मन ही मन रचती अपने अंदर पग पग तुम्हारे प्यार को  ..।

ढलता हुआ सूरज मैं देखा करती और तुम अपने लैपटॉप में काम करते रहते शायद खुद से मुझ से बेख़बर और मैं हर लम्हा संभाल रही होती इस आशा में कि कभी तो तुम उन अहसास से गुजरोगे जिन से मैं गुजर रही हूं।
प्रेम तो प्रकृति है
ये कोई व्यवहार थोड़ी है कि,
तुम करो तो ही मै भी करू

तुम्हारी आहट से धड़कते इस दिल मे ढ़ेरो स्पर्श लिए मैं जा रही हूं ये जानते हुए कि हमारे बीच मे कोई वादा नही वादा जैसा कोई रिश्ता नही फिर भी कुछ ख्वाहिशें थी , थे कुछ सपनें भी जो मैं ने अंजाने ही में खुली आंखों से देखे थे ।
यकीन करो मेरा में ने आंखे बंद भी की लेकिन न जाने कब कैसे तुम उनमे समा गये।
पता ही नही चला....।

ख्वाहिश थी कि हल्की बारिश में एक लंबी सड़क पर तुम मेरा हांथ पकड़ कर चलो और बारिश की बूंदे हमारे तन मन को भिंगो दे 
कि तुम बाइक चलाओ और मैं तुम्हारे पीछे बैठी तुम्हारी पीठ पर अपना सर रखें तुम्हें रूह तक महसूस करूं।
कि किसी गुमनाम से थियेटर में हम साथ- साथ हो और लाइट बंद होते ही हौले से तुम मेरा हांथ थाम लो 
कि मैं तुम्हें सोता हुआ देखूं.....।
कि कभी- कभी तुम्हारी डांट खा कर बच्चों की तरह तुमसे ही  लिपट जाऊं
कि किसी दिन मैं इठलाकर तुम से रंग बिरंगी चुड़िया लेने के लिए कहूं और तुम उन्हें ले कर मेरे हांथो में पहना दो 
कि तुम्हारे नाम की मेहंदी लगा कर तुम्हें दिखाऊं 
कि तुम किसी चांदनी रात में मोगरे की वेणी धीरे से मेरे बालों में लगा दो ।
तुम जानते हो न मुझे सफेद रंग पसंद है.....।
कि किसी दिन दूर कहीं किसी जगह तुम्हारी पीठ पर अपने प्यार का चुम्बन टांक दूं 
कि....।
ख्वाहिशों का क्या ... जानती हूं मौन का धर्य साथ लेकर चलना ही होगा इस अधूरे प्रणय बंध में किस ठौर कहां तुमको जोडू ,बोलूं तो क्या बोलूं।

अब विदा लेती हूं दोस्त विदाई के इन पलों के शुक्रिया करना चाहती हूँ शुक्रिया करना चाहती हूँ उस आहट का जिसके आने से जीने की उमंग आती थी, जिंदगी में सलीका आता था, आती थी रोहानी खुशबू और आता था अपने को शेष रखने का भाव।
यहां से सिर्फ मैं नही जाऊंगी दोस्त 'हम' जाएंगे कहां छोड़ा तुमने कभी अकेला न अलसाई सी सुबह में न भींगती रातों में न पूर्ण चांद में न अमावस में।अब हर पल तुम मेरे साथ ही रहोगे ।

जानती हूं जीवन की आपा-धापी गंगा छोड़ते ही शुरू होगी लेकिन इस बार इस आपा-धापी में पुर-सुकूँ मिलेगा
चांद अब पूरी कलाएं दिखाएगा अमावस की काली रातें मेरे हिस्से नही होंगी।

अब विदा लेती हूं दोस्त तुम्हारी प्यारी सी मुस्कान से, इंतज़ार करती रहूंगी कि मुस्कान से बोल फूटे और तुम वो कहा दो जो में सुनना चाहती हूँ।
विदा अब शायद अलविदा।

Thursday, July 11, 2019

प्रकृति संवर्धन और संरक्षण

'स्नो पियर्सर' के अमेरिकी डिस्ट्रीब्यूटर टॉम क्विन का कहना है, जलवायु परिवर्तन के बाद की स्थितियों को दिखाने वाली फिल्म नई पीढ़ी को प्रभावित करें तो शायद बहुतायत में लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक हो ।

 गॉडजिला बनाने वाले एडवड्रस का कहना है, 'गॉडजिला' जैसी फिल्म हमने जो कुछ किया है, उसका काल्पनिक दंड है। अगर हम ऐसा ही करते रहे तो वास्तविक दंड मिलेगा।

बात सही भी है जिस तेजी से पर्यावरण में बदलाव देखने को मिल रहा है, तब वो दिन दूर नही कि सारे मौसम  अपना रास्ता ले लेंगें, सिर्फ एक को छोड़ कर, चाहे वो हिम युग हो, जल युग हो या तपता सूरज।

स्टीफ़न हॉकिंग कहते है- 'मानव समुदाय इतिहास के सबसे ख़तरनाक समय का सामना कर रहा है ।

हमारे पास पृथ्वी की बरबादी की तकनीकें तो बड़ी संख्या में आ गई हैं, लेकिन इनसे बचने की तकनीकों का विकास नहीं हो सका है ।

यदि ज़ल्दी ही पर्यावरण और तकनीकी चुनौतियों से निपटने का तरीक़ा ईज़ाद नहीं किया गया तो परिस्थितियाँ बदतर हो जाएँगी और पृथ्वी के बरबादी के निकट होगी ।
इसलिए अब विश्व को उच्चतर जीवन शैली को त्यागना होगा, क्योंकि आजीविका के संसाधन लगातार कम होते जा रहे हैं ।'' 
अपनी भौतिकवादी प्रवत्तियों से किनारा कीजिए ।
पर्यावरण को लेकर जागरूक हो और दूसरे को भी करें।

पर्यावरण पर जागरूकता मिशन पर लगी पत्रिका प्रकृति दर्शन है । ये त्रैमासिक पत्रिका है ,जो मुरादाबाद से निकलती है ।
इसके संपादक संदीप कुमार शर्मा जी है, जिन्होंने इस पत्रिका के द्वारा प्रकृति दर्शन अभियान चला रखा है ।
जिसको इन्होंने नाम दिया है "आओ सुधारें अपनी प्रकृति" जिसमे इन्होंने प्रमुख बिंदु पर अपनी पत्रिका 'प्रकृति दर्शन के माध्यम से आवाज़ उठाई है।
जिसमे इन्होंने कहा है-

1. नेशनल वाटर एक्ट बनाया जाए
2.वाटर-हार्वेस्टिंग एक्ट के गठन किया जाए
3. राष्ट्रीय वैन सरंक्षक, अंकेक्षण अधिनियम व आयोग का गठन हो।
4. पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य की जाए।

ये पर्यावरण संतुलन के लिए अहम सुधार है जिसमे हमारी, आपकी भागीदारी जरूरी है अगर आप भी पर्यावरण बेहतर बनाना चाहते है तो आदरणीय प्रधानमंत्री जी को इस संदर्भ में जरूर लिखें।
प्रकृति यशस्वी हो ये कामना के साथ उसके यशस्वी होने के उपाय भी करें।








Wednesday, May 8, 2019

मानवता की रक्त शिराएं हमारी नदियां


कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ।।
तो क्या शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १३ वें श्लोक में स्तुतिकार रावण अविरल प्रेमयुक्त तरल-सरल भावों के साथ अपने मन की साध को प्रकट करता है ।
नदियों की ऐसी क्या महिमा है कि सोने की लंका वाला रावण भाव-भीने मन से, खोया हुआ  नदी के तट के निकट किसी कुञ्ज-कुटीर में वास करता करना चाहता है अपनी दुर्बुद्धि से मुक्त होना चाहता है।
प्रस्तुत श्लोक  से हो यही लगता है कि हमारी प्राचीन नदियों के तट पर रहने से मन में छिपी आसुरी वृत्तिया शिथिल अथवा विनष्ट करती है एवं शुभ विचारों का मन में उदय करती है और ऐसी स्थिति में यह सोच भी अवश्यम्भावी हो जाती है कि क्या नदियां जादुई होती है जिनके जादू से दुष्ट वृत्तियां उभर कर मन-बुद्धि को दूषित व उद्वेलित नहीं होने देती या जल का संबंध मानव से सिर्फ शरीर का नहीं मन का भी होता है।   रावण द्वारा ‘निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे’ कहना ध्यातव्य है कि भारतीय संस्कृति में जल व जलाशयों की महत्ता पुरातन काल से स्वीकार की जाती रही है तभी तो रावण गंगा के कछार में , कूल के कुञ्ज-कानन में बसने की बात करता है।
नदियां कई कालखण्डों के इतिहास को अपने हृदय में समेटे है । किस मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपनी पत्नी का परित्याग किया  किन बच्चों ने माता के परित्याग का प्रतिकार लिया था।
इतिहास बताता है कि किस नदी तट पर बसी बस्तियों से मिले अवशेष तथा इन अवशेषों की कहानी केवल किसी सभ्यता से नहीं जुड़ी बल्कि हिन्द की उन्नति से जुड़ी है
किस प्रकार उसके तट पर अनेक ऋषियों ने अपने आश्रम स्थापित किये, किस प्रकार इस क्षेत्र में कथाओं का सूत्रपात हुआ किस भांति उसके ही क्षेत्र में पौरोहित्य का विश्वविद्यालय स्थापित हुआ?
किसी रणछोड़ के अग्रज ने अपने अपराध का प्रायश्चित किया।
किस तरह से तथागत ने इसके तट पर विश्राम किया और धम्म पद के उपदेश दिये?
एक महान सम्राट की लाल चीवर धारी शांति सेना अपने नृपति के आदेशों-संदेशों के साथ इसके कूलों के किनारों से आगे बढ़ते हुए आत्ममुग्ध भाव से गुजरी थी।
कैसे एक विदेशी पर्यटक ह्वेनसांग धम्म सभा में सम्मलित होने के लिए थेरी गाता हुआ जिसके तट से गुजर था वो भी उसे याद है। 
किस प्रकार धम्म सभा में उपद्रव करने के बाद कुछ लोग उसको  पार करके उत्तरांचल की ओर प्रस्थान किए थे तब राजा की सेनाएं नदी के तट पर आकर उनकी खोज में काफी समय भटकती रह गयी थी।
किसी मुगल अकबर ने यहां पर वाजिपेय यज्ञ कराने के लिए एक लाख रुपये यहां के ब्राह्मणों को दिये और गोमती का तट यजु:वेद की ऋचाओं सेगूंज उठा। इसके बाद अपनी विभेद कारी नीति के तहत विप्रों की मर्यादा आंकी गयी।
तो क्या नदियां हमारी मानवीय चेतना को प्रभावित करती है ? अगर है तो हमें इन्हें मानवीय दर्जा दे देना चाहिए।
नदियों के नामकरण तो यही कहते है
एददः सम्प्रयती रहावनदता हते।
तस्मादा नद्यो3नाम स्थ ता वो नामानि सिन्धवः।।
(सन्दर्भ ग्रंथ: अथर्ववेद, तृतीय काण्ड, सूक्त-13, मंत्र संख्या - 01)
“हे सरिताओं, आप भली प्रकार से सदैव गतिशील रहने वाली हो। मेघों से ताडि़त होने, बरसने के बाद, आप जो कल-कल ध्वनि नाद कर रही हैं; इसीलिये आपका नाम ’नदी’ पड़ा। यह नाम आपके अनुरूप ही है।’’
नदियों के नामकरण के भिन्न आधार दिए गए हैं। अधिकांश नदियों के नामकरण उनके गुण, वंश अथवा उद्गम स्थल के आधार पर किए गए हैं।
भारत के विविध भागों में प्रवाहित इन नदियों को देवी-देवताओं से समीकरण स्थापित किया जाता है यथा: गंगा – भगवान शिव, गोदावरी – श्री राम, यमुना – श्री कृष्ण, सिंधु – श्री हनुमान, सरस्वती – भगवान गणेश, कावेरी – भगवान दत्तात्रेय, नर्मदा – देवी दुर्गा।
ऐसी स्थिति में हमें इनके सन्दर्भ में पुनः विचार करना होगा शायद ये विचार एक पूरी सभ्यता को पुनःमानव बनाने की कवायद होगी।
एक नदी को हम क्या दे सकते है ?आपने कभी सोचा है या एक नदी आज के दौर में हमसे क्या चाहती है ?
प्रश्न बड़ा गंभीर है जिसके उत्तर भी हमें गंभीरता से ही देने होंगे और अगर हम ऐसा नहीं करते तो मानव सभ्यताओं को विलुप्त होते देर नहीं लगेगी।
नदी सिर्फ जीवन चाहती है वो चाहती है कि मानव सभ्यता के साथ- साथ उसके अंदर पलने वाले प्राणियों को बेहतर जीवन मिले लेकिन ऐसा है नहीं देश की समस्त नदियां प्रदुषण का शिकार है ।
एक सर्वेक्षण के अनुसार ज्यादातर नदियों के जल के एक लीटर में ऑक्सीजन की मात्रा इस समय 0.1 घन सेमी रह गई है जबकि 1940 में औसतन यह 2.5 घन सेमी थी। 
कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, भागलपुर, कोलकाता-जैसे कई बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। इन नगरों में अनेक कल-कारखाने हैं। शहरों का मल-जल तथा उद्योगों के अपशिष्ट बिना शोधन के गंगा मे प्रवाहित किये जाते हैं। इसका उपयोग जल-मार्ग की तरह भी किया जा रहा है। गंगा एवं इसकी सहायक नदियों पर बांध बनाकर इसके जल को नहरों में ले जाया जा रहा है। गंगा और सहायक नदियों पर बनाये गये तटबंध गंगा के पारिस्थितिकी तन्त्र पर काफी बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। फलत: इसकी जैव-विविधता में तेजी से ह्रास हुआ है। 
जैव विविधता में ह्रास के दो मुख्य कारण हैं-
1. जीवों का अधिक शिकार या दोहन एवं
2. जीवों के वासस्थान का विनाश।
अधिक शिकार के कारण गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन, घड़ियाल, उदविलाव और मुलायम आवरण वाले कछुए कई क्षेत्रों से विलुप्त हो गये हैं। अन्य क्षेत्रों में ये विलुप्ति के कगार पर हैं।
आर्थिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण रोहू, कतला, नैनी-जैसी प्रजातियों के लिए गंगा का दियारा बरसात के मौसम में प्रजनन क्षेत्र होता है। दियारा में पहले प्राकृतिक रूप से उगने वाली वनस्पतियाँ होती थीं। अब सम्पूर्ण दियारा क्षेत्र में खेती हो रही है। खेती में कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है। इन जहरीले पदार्थों के कारण मछलियों के अंडे से बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं। इस तरह वासस्थान के जहरीला होते जाने और अंधाधुन्ध शिकार के कारण मछलियों में तेजी से ह्रास हुआ है।
वैश्वीकरण के दौर में मछलियों की कई विदेशी प्रजातियाँ भारत में आ रहीं हैं। इनके प्रभाव से गंगा भी अछूती नहीं है। दो दशक पहले तक (1993-95 ई.) गंगा में पटना के आस-पास एक भी विदेशी मछली नहीं पायी गयी थी। लेकिन 2007-09 में विदेशी मछलियों की लगभग दस प्रजातियाँ यहाँ पायी गयीं। ये विदेशी मछलियाँ स्थानीय मछलियों के लिए खतरनाक हैं। 
इस ह्रास के भी कई कारण हैं। इनमें सबसे प्रमुख है प्रदूषण एवं जल प्रवाह की कमी। शहरों से बिना शोधन के जल-मल को सीधे गंगा में गिराया जा रहा है। प्रतिदिन लगभग 13,000 मिलियन लीटर जल-मल गंगा के किनारे वाले शहरों में जनित होते हैं। मगर, मुश्किल से 4,000 मिलियन लीटर जल-मल के शोधन की व्यवस्था हो पायी है।
इसी तरह कल-कारखानों से प्रतिदिन 260 मिलियन लीटर बहि:स्राव निकलता है। इसका अधिकांश भाग बिना शोधन के गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। घरेलू एवं औद्योगिक बहि:स्राव के कारण गंगा काफी प्रदूषित हो गयी है।
कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र को उपयोग में लाये जाने वाले डी.डी.टी., टी.सी.एच, बी.एच.सी. और इण्डोसल्फान आदि कीटनाशक बरसात के महीने में बहकर गंगा में आ जाते हैं। गंगा का जल एवं पारिस्थितिकी तन्त्र इन जहरीले रसायनों से प्रदूषित हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 3,000 टन कीटनाशक प्रति वर्ष गंगा में प्रवाहित हो रहे हैं। कीटनाशकों के अलावा पालीक्लोरिनटेड, बाईफनाईल, परक्लोरिनेटेड- जैसे रसायन भी गंगा में पाए गए हैं।
सोचिए अगर ये हालत भारत देश की सबसे पवित्र नदी मानी जाने वाली गंगा की है तो अन्य नदियों का हाल कैसा होगा ? क्या करें जिनसे हमारी नदियां प्रदूषण से बचे ? क्या हमें उन्हें जीवित दर्जा दे देना चाहिए?
एक नदी की इंसान बनने की कहानी --------------------------------------------
देखा जाए तो ये बुरा भी नहीं अगर ये नदियां हमें जीवन देती है जीवनदायनी है तो इन्हें ये दर्जा मिलने ही चाहिए।
नदी को जीवित का दर्जा दिए जाने का मतलब है, उसे वे सभी अधिकार दे देना, जो किसी जीवित प्राणी के होते हैं। नदी का शोषण करने, नदी को बीमार करने और नदी को मारने की कोशिश करने जैसे मामलों में अब क्रिमिनल एक्ट के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। नदी पर किए गए अत्याचारों के मामले मानवाधिकार आयोग में सुने जा सकेंगे।
भारतीय संस्कृति के आलोक में देखें, तो नदी इतने गुणों का बहाव दिखती है कि लगता है कि सभी सद्गुण तो नदिया के भीतर-बाहर छिपे बैठे हैं।
नदिया-गुणिया एकधन, जो खोजे, सब पाय।
आइये तो खोजें आखिर नदियों में किस तरह और कितने मानवीय गुण है-
प्रहवामाय ,बलशाली,क्रियाशीलता,सक्रिय तत्व की उपस्थिति,क्रिया शक्ति,रसवती-स्पर्शवती आदि
ऋगवेद के सातवें मण्डल में नदी के निरन्तर प्रवाह की स्तुति की गई है। स्पष्ट है कि प्रवाह की निरन्तरता, किसी भी नदी का प्रथम एवम् आवश्यक गुण है। प्रवाह की निरन्तरता बहुआयामी होती है यही नदी का गुण है। किसी एक भी आयाम में हम निरन्तरता को बाधित करने की कोशिश करेंगे; नदी अपना प्रथम और आवश्यक गुण खो देगी। इसके दुष्प्रभाव कितने व्यापक हो सकते हैं; इसका आकलन आज हम कोसी, गंगा, नर्मदा जैसी कई प्रमुख नदियों के आयामों में मनुष्य द्वारा पैदा की गई बाधाओं के परिणामस्वरूप नदी जल की गुणवत्ता तथा जल, रेत, गाद, वेग तथा नदी के बदले रुख से समझ सकते हैं।
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तिष्व श्रवा भवत वजिनः।
देवीरापो यो व ऽऊमिः प्रतूतिः ककुन्मान् वाजसास्तेनायं वाज सेत्।।
यजुर्वेद (नवमध्याय, मंत्र संख्या-छह) में लिखे इस श्लोक का भावार्थ है कि जल के अन्तःस्थल में अमृत तथा पुष्टिकारक औषधियाँ मौजूद हैं। अश्व यानी गतिशील पशु अथवा प्रकृति के पोषक प्रवाह इस अमृत और औषधिकारक जल का पान कर बलवान् हों। हे जलसमूह, आपकी ऊंची और वेगवान तरंगे हमारे लिये अन्न प्रदायक बनें।
वैज्ञानिक दृष्टि भी यही कहती है कि नदी तभी बलवान होती है, जब उसका जल मृत न हो यानी प्रवाह में ऑक्सीकरण की प्रक्रिया सतत् होती रहे। गुणवान होने के लिये औषधियों से संसर्ग करने आने वाले जल का नदी में आते रहना जरूरी है।
नदी, सिर्फ जल नहीं है; लेकिन जलमय है और यही गुण नदी में क्रियाशीलता लाता है अतः क्रियाशीलता को नदी का गुण कहना गलत नहीं।
अथर्ववेद -(काण्ड तृतीय, सूक्त 13, मंत्र संख्या - एक ) में जलधाराओं में सृष्टि के मूल सक्रिय तत्व का आहृान किया गया है।
सृष्टि के शाब्दिक अर्थ पर जायें तो ‘सृष्टि’ शब्द का मतलब ही है, रचना करना। शाब्दिक अर्थ को सामने रखें, तो रचनात्मक सक्रियता को नदी का एक अपेक्षित गुण मानना चाहिए। सृष्टि कर्म देखें तो सृष्टि में रचना के बाद विनाश और विनाश के बाद रचना सतत् चलने वाले कर्म हैं। इस दृष्टि से नदी में रचना और विनाश तत्व की सक्रिय मौजूदगी की अपेक्षा करनी चाहिए। इसका वैज्ञानिक पहलू यह है कि नदी में जहाँ एक ओर शीतल तत्व मौजूद होते हैं, वहीं ऊर्जा उत्पन्न करने लायक ताप और वेग भी मौजूद होता है। नदीजल जीवन भी देता है और आवश्यक होने पर विनाश करने की भी शक्ति रखता है।
भारत में आज कितनी ही नदियाँ ऐसी हैं कि जिनमें इतना जल न के बराबर  है । कितनी ऐसी है जिनके सिर्फ निशान मौजूद हैं। उनमें न जल है और न जीवन। पृथ्वी पर उनकी रचना आंशिक ही है ।
कई नदियां तो नाले में परिवर्तित है तो कुछ अपने बीत चुके वैभव के साथ बीती बात हो चुकी है। जो है उनके पानी में क्रियाशीलता के आभाव में तेज नहीं।
अथर्ववेद -(काण्ड 03, सूक्त 13, मंत्र संख्या -दो) में जलधाराओं से कामना की गई है कि वे क्रियाशक्ति उत्पन्न कर उन्हे हीनता से मुक्त करेंगी तथा प्रगतिपथ पर शीघ्र ले जायेंगी।
इसका मतलब है कि नदी इतनी सक्षम होनी चाहिए कि वह हमारे भीतर ऐसा कुछ करने की शक्ति पैदा कर सकें, जिससे हमारी हीनता यानी कमजोरी मिटे और हम प्रगति पथ पर अग्रसर हों। इस नदी गुण को हम कृषि, उर्वरता वृद्धि, भूजल पुनर्भरण, भूजल शोधन तथा मैदान व डेल्टा बनाने वाले में नदी के योगदान से जोड़कर देखें।
नदी तो प्रेरणा है
यह नदी गुणाों का आध्यात्मिक और सामाजिक पक्ष है। नदी कर्म में निरन्तरता, शुद्धता, उदारता व परमार्थ तथा वाणी में शीतलता की प्रेरणा देती है। नदियों से सीखने और प्रेरित करने के लिये कवियों ने संस्कृत से लेकर अनेक भाषा व बोलियों में रचनायें रची हैं। कभी उन्हे देखना चाहिए।
रूपा रस स्पर्शवत्य आपो द्रवः स्निग्धा:।
मनुस्मृति में किए उक्त उल्लेख का तात्पर्य है कि रूप, स, स्पर्शवान, द्रवीभूत तथा कोमल ‘जल’ कहलाता है; परन्तु इसमें जल का रस अग्नि और वायु के योग से होता है। स्पष्ट है कि ये सभी गुण, नदी के गुण हैं। नदी कोमलता का आभास देती है। नदी तरल होती है। नदी स्पर्श करने योग्य होती है। नदी में रस यानी जल होता है। नदी का अपना एक रूप होता है।
विचारणीय तथ्य यह है कि जल के ये गुण अग्नि और वायु के योग के कारण होते हैं। यह तथ्य हमें सावधान करता है कि जल हो या नदी, वायु और ताप से इनका सम्पर्क टूटने न पाये। पानी से बिजली बनाती परियोजनाएं नदी का वायु और ताप से संपर्क तोड़ देती है।
शीतलत एवं शांति दायक - एक नदी ही हो सकती है
हिमवतः प्रस्नवन्ति सिन्धौ समह संगम।
आपो ह महंन तद् देवीर्ददन् हृदद्योत भेषज्ञम्।।
अथर्ववेद (सूक्त 24, मंत्र संख्या-एक) का भावार्थ यह है
कि हिमाच्छित पर्वतों की जलधारायें बहती हुई समुद्र में मिलती हैं। ऐसी धारायें हृदय के दाह को शान्ति देने वाली होती है।
आज अशांति में जीते हम शांति का मर्म समझना ही नहीं चाहते ऐसे में एक नदी ही हमें इस गुण से परिचित करा सकती है।
ये गौर करने वाली बात है ये गुण हिम धाराओं के है जो पर्वतीय नदियों में मिलते है।
भारत के सांस्कृतिक ग्रंथों में जहाँ जल में ईश का वास माना गया है, वहीं नदियों को देवी तथा माँ का सम्बोधन दिया गया है। पौराणिक कथाओं में कहीं किसी नदी का उल्लेख किसी की पुत्री, तो किसी का किसी की बेटी, बहन अथवा अर्धांगिनी के रूप में आया है। नर्मदाष्टक में नर्मदा को हमारी और हमारी प्राचीन संस्कृति की माँ बताया गया है। यह प्रमाण है कि भारत का सांस्कृतिक इतिहास नदियों को जड़ न मानकर, जीवित मानता है। सांस लेना, गतिशील होना, वृद्धि होना, अपने जैसी सन्तान पैदा करना - किसी के जीवित होने के इन जैविक लक्षणों को यदि हम आधार मानें, तो हम पायेंगे कि नदी में ये चारों लक्षण मौजूद हैं।
नदियां मानवता की रक्त शिराएं हैं
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गौर करें कि तल, तलछट, रेत, सूक्ष्म एवम् अन्य जलीय जीव, वनस्पति, वेग, प्रकाश, वायु तथा जल में होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया मिलकर एक नदी और इसके गुणों की रचना करते हैं। इसी आधार पर नदी वैज्ञानिकों ने प्रत्येक नदी को महज जल न मानकर, एक सम्पूर्ण जीवंत प्रणाली माना है। इसी आधार पर न्यूजीलैण्ड और इक्वाडोर में नदियों को जीवित का दर्जा मिला।
यह सिर्फ एक नदी को बचाने की कवायद नहीं है बल्कि मानव और प्रकृति के बीच के छीजते रिश्ते को मजबूत करने की कोशिश है. सहअस्तित्व का ये भाव सिर्फ भाषणों या सम्मेलनों तक सीमित नहीं रहा बल्कि उसे जमीन पर उतारकर दुनिया भर की नदियों का भविष्य संवारने का पैगाम दिया गया है. नदी को इंसानी अधिकार देना चौंकाता जरूर है लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि ऐसे अभूतपूर्व तरीकों से ही तेजी से प्रदूषित हो रही दुनियाभर की नदियों की रक्षा की जा सकती है. उनके मुताबिक इस बात को भी समझने की जरूरत है कि नदियों को बचाने के परंपरागत तरीके उतने प्रभावी साबित नहीं हो पा रहे।
नदियां मानवता की रक्त शिराएं हैं। नदियों के मरने का मतलब इंसानी सभ्यता का भी खत्म होना है.
नदी को जीवित का दर्जा दिए जाने का मतलब है, उसे वे सभी अधिकार दे देना, जो किसी जीवित प्राणी के होते हैं लेकिन क्या जीवित आम आदमी की तरह नदी भी न्याय मंगाते- मंगाते निराश हो ख़त्म तो नहीं हो जाएगी?
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सन्दर्भ ग्रंथ--
1.शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १३ वें श्लोक
2.अथर्ववेद, तृतीय काण्ड, सूक्त- 13, मंत्र संख्या- 01
3.यजुर्वेद, नवमध्याय, मंत्र संख्या-6
4.यजुर्वेद अध्याय 23 मंत्र 22
5.मनुस्मृति
6.अथर्ववेद सूक्त-24, मंत्र संख्या- 1
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Tuesday, May 7, 2019

वैशाख की साख





वैशाख भारतीय काल गणना के अनुसार वर्ष का दूसरा माह है। इस माह को एक पवित्र माह के रूप में माना जाता है। जिनका संबंध देव अवतारों और धार्मिक परंपराओं से है। ऐसा माना जाता है कि इस माह के शुक्ल पक्ष को अक्षय तृतीया के दिन विष्णु अवतारों नर-नारायण, परशुराम, नृसिंहऔर ह्ययग्रीव के अवतार हुआ और शुक्ल पक्ष की नवमी को देवी सीता धरती से प्रकट हुई थी। कुछ मान्यताओं के अनुसार त्रेतायुग की शुरुआत भी वैशाख माह से हुई। इस माह की पवित्रता और दिव्यता के कारण ही कालान्तर में वैशाख माह की तिथियों का सम्बंध लोक परंपराओं में अनेक देव मंदिरों के पट खोलने और महोत्सवों के मनाने के साथ जोड़ दिया। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के चार धाम में से एक बद्रीनाथधाम के कपाट वैशाख माह की अक्षय तृतीया को खुलते हैं।इसी वैशाख के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को एक और हिन्दू तीर्थ धाम पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा भी निकलती है। वैशाख कृष्ण पक्ष की अमावस्या को देववृक्ष वट की पूजा की जाती है। यह भी माना जाता है कि भगवान बुद्ध की वैशाख पूजा 'दत्थ गामणी' (लगभग 100-77 ई. पू.) नामक व्यक्ति ने लंका में प्रारम्भ करायी थी।

न माधवसमो मासो न कृतेन युगं समम्।
न च वेदसमं शास्त्रं न तीर्थं गंगया समम्।।
(स्कंदपुराण, वै. वै. मा. 2/1)
अर्थात वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। 
धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वयं ब्रह्माजी ने वैशाख को सब मासों से उत्तम मास बताया है। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला इसके समान दूसरा कोई मास नहीं है। जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान विष्णु विशेष स्नेह करते हैं। सभी दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थों में जो फल मिलता है। उसी को मनुष्य वैशाख मास में केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। 
जो जलदान नहीं कर सकता यदि वह दूसरों को जलदान का महत्व समझाए तो भी उसे श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य इस मास में प्याऊ लगता है वह विष्णुलोक में स्थान पाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि जिसने वैशाख मास में प्याऊ लगाकर थके-मांदे मनुष्यों को संतुष्ट किया है, उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को संतुष्ट कर लिया।
मधुसूदन देवेश वैशाखे मेषगे रवौ।
प्रात:स्नानं करिष्यामि निर्विघ्नं कुरु माधव।।
हे मधुसूदन। मैं मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर वैशाख मास में प्रात:स्नान करुंगा, आप इसे निर्विघ्न पूर्ण कीजिए। 

शाखा नक्षत्र से सम्बन्ध होने के कारण इसको वैशाख कहा जाता है। आम तौर पर वैशाख का महीना अप्रैल मई में शुरू होता है। विशाखा नक्षत्र से सम्बन्ध होने के कारण इसको वैशाख कहा जाता है। इस महीने में धन प्राप्ति और पुण्य प्राप्ति के तमाम अवसर आते हैं।मुख्य रूप से इस महीने में भगवान विष्णु , परशुराम और देवी की उपासना की जाती है। वर्ष में केवल एक बार श्री बांके बिहारी जी के चरण दर्शन भी इसी महीने में होते हैं। इस महीने में गंगा या सरोवर स्नान का विशेष महत्व है।आम तौर पर इसी समय से लोक जीवन में मंगल कार्य शुरू होते हैं।

हिन्दु धर्म के अनेक ग्रंथों और पुराणों में जिनमें स्कंदपुराण, पद्मपुराण, ब्रह्मपुराण आदि प्रमुख है, वैशाख माह के महत्व के बारे में विस्तार से लिखा गया है। स्कंद पुराण में देवर्षि नारद ने वैशाख माह का महत्व बताया कि विद्याओं में वेद श्रेष्ठ है, मंत्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगा, तेजों में सूर्य, अस्त्र-शस्त्रों में चक्र, धातुओं में स्वर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि श्रेष्ठ है, उसी तरह महीनों में वैशाख मास सर्वोत्तम है। देवर्षि नारद ने इस माह की श्रेष्ठता के साथ ही वैशाख माह के धर्म और आचरण का महत्व भी बताया। उनके अनुसार इस माह में ग्रीष्म ऋतु होने से जलदान ही श्रेष्ठ है। इस माह में जलदान करने वाला, प्याऊ लगवाने वाला, कुएं और तालाब बनवाने वाला असीम पुण्य पाता है। देवर्षि नारद द्वारा बताए गए वैशाख माह के महत्व और आचरण का संदेश यही है कि मानव ऐसे आचरण करें जिससे एक मानव दूसरे मानव से भावनाओं और संवेदनाओं से जुड़ा रहे। चूंकि यह माह गर्मी के मौसम का होता है। जल की कमी होती है। मानव के साथ ही अमूक प्राणी और पक्षियों के जीवन के लिए भी जल बहुत आवश्यक होता है। अत: जल का मूल्य समझकर जल का अपव्यय न करते हुए जल का दान करना, पक्षियों के लिए जलपात्र रखना चींटियों के लिए आटे-गुड़ से बनी गोलियां और मछलियों के लिए दाना देना स्वयं के मन को सुकून देने के साथ ही अहं भाव तिरोहित कर दूसरों को भी सुख और तृप्ति देता है। इससे धर्म के साथ मानवीय भावनाओं का भी पोषण होता है। अमूक जीवों को जल और भोजन देना मानव को प्रकृति से भी जोड़ता है।
वैशाख का महीना हमें सरलता और परोपकार की भावना से जीना सीखाता है। पुराणों में वैशाख को पवित्र मास बताया गया है। हमारे मनीषियों और ऋषि-मुनियों के द्वारा वैशाख माह में होने वाले प्रकृति के बदलावों को समझकर अपने अनुभव और ज्ञान से इस माह के व्रत, पर्व, त्यौहार की रचना की और इनके साथ ही पालन हेतु नियम-संयम को लोक व्यवहार से जोड़ा गया। जिनमें धार्मिक कर्म, स्नान और दान का महत्व भी बताया गया है। यह सारे विधान मानव को सादगी सेे रहने और हर प्राणी मात्र के प्रति संवेदना रखने की प्रेरणा देते हैं। 

वैशाख मास की परंपराएं मानवीय संवदेनाओं से भरी हुई हैं। जिनसे लोगों में मानवता की भावना पोषित होती रही है। हर धर्म में भूखे को भोजन देना और प्यासे जीव को पानी पिलाकर तृप्त करना धर्म पालन में श्रेष्ठ कर्तव्य माना जाता है। सनातन धर्म में वैशाख माह में भी ग्रीष्म ऋतु की गर्माहट में प्राणीमात्र को शीतलता देने के लिए लोक व्यवहार में इन दो बातों के साथ ही अन्य परंपराएं भी प्रचलित है। जिनमें जल का दान, प्यासे को पानी पिलाने के लिए प्याऊ लगाना, पंखा दान जो ठंडी हवा देता है, कड़ी धूप से बचने के लिए छायादार स्थान बनाना, धूप से तपती जमीन से पैरों को बचाने के लिए पदयात्रियों को जूते-चप्पल या पादुका देना तथा भोजन कराना आदि प्रमुख हैं। 

इस प्रकार वैशाख माह धार्मिक दृष्टि से जहां पुण्य प्राप्ति का काल है, वहीं व्यावहारिक दृष्टि से यह माह शरीर के ताप के साथ ही मन के संताप का शमन करता है।




Tuesday, April 30, 2019

वफ़ा सब्र तमन्ना एहसास❤

आगाही कार्ब वफ़ा सब्र तमन्ना एहसास
मेरे  ही  सीने  में  उतरे  हैं  ये  खंज़र सारे

बशीर फ़ारूक़ी जी ने शायद हम जैसो का दिल पढ़ कर ही ये शेर कहा होगा....

दो महीने की घर से बाहर व्यस्ता के चलते अव्यवस्थित घर से रूबरू होते ही सबसे पहले गर्म- ठंडी के कपड़े रखते उठते बेटी अपनी घाघरा- चोली दिखा कर बोली देखो मां मेरी ये ड्रेस कितनी छोटी हो गई है, इस बार में नई लुंगी और हैं इस बार मे ये भी लुंगी कहा कर उसने एक फोटो मेरी तरफ बड़ाई..

डिजाइनर पायल की फ़ोटो जिसे देख कर में अतीत मैं खो गई...

पहली बार इसे जब देखा तो उम्र रही होगी मात्र 22-23 साल,एक दिन अपनी सहेली के साथ सुनार की दुकान पर गई उसने वहां सुंदर से इयररिंग लिया लेकिन मेरी नज़र तो वहां रखी डिजाइनर पायल पर अटक गई, दाम पूछे तो अपने पर्स में सौ रु कम...

सहेली ने लाख समझाया अरे 100 रु की ही बात है मुझसे ले ले लेकिन न अपने सिद्धान्त आड़े आ गये। घर आकर सहेली ने मां को बताया तो माँ ने कहा ये ऐसी ही है ,जानती हूं ले ये रु और जाकर इसके लिए वही वाली पायल ले आ, मैं ने सुना तो, माँ को मना कर दिया मां कल आप ही ले आना बोल कर अपने कमरे में चली गयी ,बात आई- गई हो गयी ।

कुछ सालों बाद शादी तय हो गई घर वालो ने जो जेवर दिया अपन ने बिना पसंद किए भाई पर पसंद की जिम्मेदारी डाल कर इतिश्री कर ली।
ससुराल आकर देखा मायके से सुंदर सी पायल मिली पर डिजाइनर नही..
मन की ख़्वाहिश मन मे ही दबी रही ।
पहली होली पर घर गई तो मां ने पिता से कहा गुड़िया के पैर सुंदर से छोटे से है, देखिए इस तरह की पायजेब लाकर दीजिए, मेरा बहुत मन है उसके पैरों पर सुंदर लगेगी और पिताजी पायजेब लेने चले गये।
आलता लगे पैरो पर सात लड़ी की पायजेब जिसने मेरे पैरों को ढक लिया था और मेरे पैरों की शोभा भी बड़ा रही थी लेकिन मन मे फिर वही डेलिकेट सी डिजाइनर पायल दस्तक दे रही थी...।
वैसे भी मुझे डेलिकेट से ही जेवर पसंद है ।
नई- नई शादी के बाद एक दिन हम गृहस्थी सजाने के लिए शॉपिंग कर रहे थे, कि एकाएक मेरी नज़र पास ही दुकान पर लटकी डिजाइनर पायल पर पड़ी ...
मैं ने जल्दी से दाम पूछे दुकानदार ने बताए पर्स में देखा फिर से सौ रु कम थे, मन मसोस कर मैं चलने को हुई कि पतिदेव आ गये बोले कुछ लेना है अपनी संकोची प्रवति से शायद पर्दा हटाती तभी पतिदेव के शब्द सुनाई पड़े सब तो है और क्या करोगी लेकर और मैं चुपचाप उनके पीछे चल पड़ी ...।

आज जब बेटी ने डिजाइनर पायल की फ़ोटो दिखाई तो एक बार फिर से अपने पैरों पर नज़र गई समय की धूल ने चाहें  वैसा रूप रंग न रहने दिया हो पैर भी शायद उतने सुंदर न रह पाये हो लेकिन ख़्वाहिश आज भी वैसी ही है नई सी ...
लेकिन संकोच का पर्दा आज भी नही उठा सच कहा था पिता ने विदा के समय मेरी बेटी ने हम से कभी कुछ मंगा नही ये इसका अहं नही संकोच है वो कभी कुछ मांगेगी नही ये बात ध्यान रखना।
पिछले 14 सालों में कितनी बार संकोच को परे हटाने की भरपूर कोशिश की लेकिन अपने लिए कुछ मांगना ....।

 हजारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले...

Sunday, April 28, 2019

अधूरा प्रणय बंध

बेजुबान लब्ज
झुकी डाल
ढीठ सी लाज
चीरती जब मधुर भय को
रचती अधलगी महावर
तुम विवश
मैं अवश
बचपन में मालवा के बिताए सालों में मां के साथ जब भी बाज़ार जाती थी तो काकीजी के हाथ से बनी डबल लौंग सेव खाना कभी नही भूलती वो मुझे इतने पसंद थे कि उनके लिए मैं कुछ भी छोड़ सकती थी। लेकिन खाते ही जो मुंह जलता सो बस की बोलती बंद ।
जबान की बोलती बंद आंखे बोलती वो भी आंसुओ की भाषा.... तब काकी रामजी की मूरत के सामने से मिश्री की डली उठा कर मेरे मुहं में रख देती... अब दोनों स्वाद मेरी जबान पर होते।
मिश्री की डली  मैं ने भी उठा कर अपने मुंह में रखी मुझे क्या पता था डबल लौंग वाले सेव का स्वाद भी चला आएगा....😊 
बाप रे बाप तुम्हारा गुस्सा पहली बार जब मेरा इससे सामना हुआ तो... तुम किसी को डांट रहे थे और मैं अंदर ही अंदर कांप रही थी कुछ कहना चाहती थी लेकिन सब भूल गई थी समझ नही आ रहा था पहली बार मोहिनी मुस्कान लिए जो मिला था वो क्या यही है....। लो मैं कहां फंस गई।😊
मिश्री की डाली कब की घुल गई थी अब केवल लौंग का स्वाद ही जुबा पर था। लेकिन प्यारा था।
न तुम भाई, न बंधु, न सखा न...।
लेकिन मन साध रहा था शायद कोई रिश्ता....।

गंगा के जलोद मैदानों पर पहली बार तुम्हें देखा तो जाना फाल्गुन पंचाग का अंतिम महीना नही पहला महीना होता है
कुछ था जो मन से चित्त की तरफ चलने लगा था ।
आसमान कितना ऊपर था धरती कितनी नीचे कुछ पता ही नही चला जैसे हर तरफ क्षितिज ही क्षितिज....जाती ठंड मुझ में एक सिहरन छोड़े जा रही थी।

अजीब जगह थी जहां तुम मिले थे वहां अलसाई सुबह थी उदास शाम थी और तन्हा रात ,लेकिन रात की सारी उदासी सुबह की मीठी आवाज़ में गुम हो जाती... कितनी कशिश थी उस बुलावे में.... उफ़्फ़

दोपहर की रौनकों का कस्बा है ये जगह जहां एक दिन दोपहर में मैं ने तुम्हारी आहट को पहचाना था आहट क्या थी रिफ़त- ए- चाहत थी जो लम्हा लम्हा रूह में समा रही थी.... पल पल रहत में दिन निकल रहे थे।
धूप के साए कम होने लगते थे कि फिर आने के लिए तुम चले जाते और मैं तुम्हें देखती उसी खिड़की से । बस उसके बाद शुरू होता तुम्हें देखने का सिलसिला तुम्हारा आना पल पल देखती ये जानते हुए भी कि तुम अभी नही आओगे।
 तुम्हारे आने की आहट कैसे तो मन मे गुदगुदी लाती मैं अपने को बमुश्किल संभाल पाती....।

फ़क़त बिजनिस में उलझे तुम, तुम कविता लिखने वाली लड़की के मन की बात पता नही समझते थे या नही लेकिन  डूबता सूरज दिखाने पर तुम्हारी मुस्कान गहरी होती ।कभी कभी मेरी कुछ कविता सी बातें पढ़ते तुम मुझे कोई और ही लगते.... तुम भी अब रच रहे थे ,कविता नही मुझे और  मैं रच रही थी पल- पल हर पल मन में पलते तुम्हारे अहसासों को।
कैसे तुम्हें बताती कि तुम्हारे साथ बिताए पल सितारों की तरह टंक गये है मेरे अंतस में या 
कि मेरी सीधी- सुलझी बातें और तुम्हारा उलझे- उलझे मुझे देखना 
कि मेरी ढेर सी अभिलाषाएं कि तुम्हारी विवशताएं....।
कि वो दो आंखे जो मुझे सच बयान करती थी और जिन्हें मैं चूमना चाहती हूं मरने से पहले।
 कि तुम्हारे सामने  झुकता मेरा सर लाज थी  उस प्यार की जो अब मन से चित्त में उतर चुका था। 
कि जब भी मैं तुम्हारे पीछे- पीछे चलती मैं मन ही मन रचती अपने अंदर पग पग तुम्हारे प्यार को  ..।

ढलता हुआ सूरज मैं देखा करती और तुम अपने लैपटॉप में काम करते रहते शायद खुद से मुझ से बेख़बर और मैं हर लम्हा संभाल रही होती इस आशा में कि कभी तो तुम उन अहसास से गुजरोगे जिन से मैं गुजर रही हूं।
प्रेम तो प्रकृति है
ये कोई व्यवहार थोड़ी है कि,
तुम करो तो ही मै भी करू

तुम्हारी आहट से धड़कते इस दिल मे ढ़ेरो स्पर्श लिए मैं जा रही हूं ये जानते हुए कि हमारे बीच मे कोई वादा नही वादा जैसा कोई रिश्ता नही फिर भी कुछ ख्वाहिशें थी , थे कुछ सपनें भी जो मैं ने अंजाने ही में खुली आंखों से देखे थे ।
यकीन करो मेरा में ने आंखे बंद भी की लेकिन न जाने कब कैसे तुम उनमे समा गये।
पता ही नही चला....।

ख्वाहिश थी कि हल्की बारिश में एक लंबी सड़क पर तुम मेरा हांथ पकड़ कर चलो और बारिश की बूंदे हमारे तन मन को भिंगो दे 
कि तुम बाइक चलाओ और मैं तुम्हारे पीछे बैठी तुम्हारी पीठ पर अपना सर रखें तुम्हें रूह तक महसूस करूं।
कि किसी गुमनाम से थियेटर में हम साथ- साथ हो और लाइट बंद होते ही हौले से तुम मेरा हांथ थाम लो 
कि मैं तुम्हें सोता हुआ देखूं.....।
कि कभी- कभी तुम्हारी डांट खा कर बच्चों की तरह तुमसे ही  लिपट जाऊं
कि किसी दिन मैं इठलाकर तुम से रंग बिरंगी चुड़िया लेने के लिए कहूं और तुम उन्हें ले कर मेरे हांथो में पहना दो 
कि तुम्हारे नाम की मेहंदी लगा कर तुम्हें दिखाऊं 
कि तुम किसी चांदनी रात में मोगरे की वेणी धीरे से मेरे बालों में लगा दो ।
तुम जानते हो न मुझे सफेद रंग पसंद है.....।
कि किसी दिन दूर कहीं किसी जगह तुम्हारी पीठ पर अपने प्यार का चुम्बन टांक दूं 
कि....।
ख्वाहिशों का क्या ... जानती हूं मौन का धर्य साथ लेकर चलना ही होगा इस अधूरे प्रणय बंध में किस ठौर कहां तुमको जोडू ,बोलूं तो क्या बोलूं।

अब विदा लेती हूं दोस्त विदाई के इन पलों के शुक्रिया करना चाहती हूँ शुक्रिया करना चाहती हूँ उस आहट का जिसके आने से जीने की उमंग आती थी, जिंदगी में सलीका आता था, आती थी रोहानी खुशबू और आता था अपने को शेष रखने का भाव।
यहां से सिर्फ मैं नही जाऊंगी दोस्त 'हम' जाएंगे कहां छोड़ा तुमने कभी अकेला न अलसाई सी सुबह में न भींगती रातों में न पूर्ण चांद में न अमावस में।अब हर पल तुम मेरे साथ ही रहोगे ।

जानती हूं जीवन की आपा-धापी गंगा छोड़ते ही शुरू होगी लेकिन इस बार इस आपा-धापी में पुर-सुकूँ मिलेगा
चांद अब पूरी कलाएं दिखाएगा अमावस की काली रातें मेरे हिस्से नही होंगी।

अब विदा लेती हूं दोस्त तुम्हारी प्यारी सी मुस्कान से, इंतज़ार करती रहूंगी कि मुस्कान से बोल फूटे और तुम वो कहा दो जो में सुनना चाहती हूँ।
विदा अब शायद अलविदा।


Monday, February 25, 2019

कविता सी बातें💗

1-प्रेम 💝

तेरी मेरी जुडी  हथेलियां ईश्वर का घर है 🌷

ये जो अंधकार से भरा खालीपन देख रहे हो न
उसी से तो निकलेंगे उल्कापिंड की भांति प्रेम पल


इससे पहले कि ये तुम्हें आशा का क्षणिक आभास देकर छोड़ दे तुम्हारा साथ ,तुम्हें मिलाने होंगे इस लाल धूसर मिट्टी में आस्था के सारे वो चिन्ह 
मत बनना अब किसी भी बुत को नही तो करनी ही होगी अर्चना....

अगर देखना चाहते हो जीवन के क्रूर चेहरे के पीछे छिपे सुंदर और कृपालु उस शक्ति को जिसे प्रेम कहते है तो जितनी जल्दि हो सके शाम के सारे पर्दे गिरा दो.....

बोध के रास्ते नज़र तभी आएंगे जो रंगों से भरे है, सिर्फ लाल रंग छोड़ कर , लाल रक्त को बहने दो अपनी शिराओं में क्या पता किसी युग मे ये नफरत की अग्नि का विशाल पुंज बदल कर विचार बने प्रेम का।

2-प्रेम ❤
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रांझा रांझा कर दीनी मैं आपे रांझा होई 🌻
रूह को एहसास नहीं हुआ ,जिस्म समझ नहीं पाया, आँखे देख न सकी

बस उसका होना हमारे होने से टकराया और हमारा होना न होना होकर रहा  गया I

मानो रूह ने साथ छोड़ा हो जिस्म का I

ऐसा ही होता है प्रेम

किसी अनजाने से गाँव की पगडंडी से चलता हुआ एक उदास घर में एक उदासी से मिलता है , फिर आदान प्रदान होता है ' शेखर एक जीवनी" या 'गुनाहों का देवता' का ।
रात भर बारिश होती है कहानी भींगती है 

ठिठुरी हुई लम्बी रातों में दो तारे बारी - बारी से  जागते हैंI

कही दूर किसी सिसकी का जवाब होता है तेरे नाम और तेरे ध्यान की कश्ती से मैं दरिया पार कर लूँगा।

ऐसा ही होता है प्यार चाहे तीन रोज का हो या तीन सौ पैसठ दिन का ।


किसी ने आवाज दी

जिन्दगी मुस्काई 

कली ने पखुडियाँ खोली 

और उदासी ढल गई
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3-प्रेम 💙
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आप की आहट......🍁

कुछ आहटें ऐसी होती हैं, जो सुन्दरतम क्षण से हमें जोड़ती हैं | उन आहटों के कुछ लम्हें हम जी पाये | कितना मधुर था वह क्षण! ... और जो अनसुना रह गया था , वह शायद और मधुर अपूर्ण था| लगता है, मानो हम उन्हीं मोहक लम्हों के क़रीब हैं | 

जीवन की इस आपाधापी में धड़कती साँसें बन्द हो, गुमनाम हो जातीं और हम उन्हीं साँसों की मादकता का एहसास तक नहीं कर पाते | हाँ, आज एहसास हो रहा है--- एक क़िस्म की अपूर्णता भी ज़रूरी है, ज़िन्दगी के लिए .......|
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4-प्रेम 💚
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इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख......🌼

जब अमृता की कहानी को जीने लगो, कुछ गीली कुछ सीली सी हवाओं को सुनने लगो। शब्द-शब्द एहसास हो। लफ्जों की इबारतें दश्ते सहरा में सूफी कलाम लगे। दुनियावी शोर सुनाई देना बंद हो जाये। जब सारी मुस्कानें सारे आंसू सारी शरारतें सिर्फ और सिर्फ किसी एक के लिए हो, तब अपने होश के हुनर से पूछ लेना कही मन का रूपांतरण तो नहीं हुआ है। 

साज और  साजिंदे एक तो नहीं हो गए है ?

लेकिन इसे  तुम तभी सुन सकते हो जब भीड़ की दोहरावपूर्ण आदतों की व्यर्थताओं को पहचान कर अपना गीत अपनी अनुभूति से रचने की कला तुम्हें आती हो।

प्रेम ऐसा ही होता है दोस्त 

ये मौला के दर से दर्दमंदो के दिल तक यूं ही नहीं बहता ।
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5-प्रेम 💛
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सुर आत्मा को ढालता है और ज़ज्बात का सोना पिघलाता है...🌹


घाटियों दर्रों पहाड़ों और रेगिस्थान में कुछ प्रेमी मरे आयते हो गए

कुछ और मरे चौपाई हो गए

फिर कुछ और मरे वर्स हो गए

अंत में जो मरे वो गुरुवाणी हो गए

पर जो जिन्दा थे उन्होंने न आयते पढ़ी न चौपाई न ही वर्स

और न ही सुनी गुरुवाणी

क्योंकि वो प्रेमी नहीं थे
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6-प्रेम 💜
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निढाल है हम इस इश्क़ के सफ़र में 🌻

प्रेम की निर्जनता में उदासी हमेशा स्लेटी रंग की क्यों होती है?

यही पूछा था न मैं ने

और तुमने हस कर कहा था

बिना संकट के कुछ भी सार्थक की प्रति संभव कहां,

संभव तभी है 

जब मन के पथ में दूसरे की गंध भरी हो

शारदीय धूप का केसरिया रंग किन्हीं अक्षांशो पर खिलाना ही होता है मयूख....

सच कहा था तुमने

प्रेम की परिणति तो पहुँच जाने में ही होती है

चाहे इतिहास बने या वर्त्तमान

बस इतना रहे की

मन की निर्जनता में भाद्रपद के चाँद सा झलकता रहे।
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7-प्रेम 💗
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नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास.....

टहलती आती है आवाज़ें अजनबियत की गलियों से

जैसे निभाती हो रस्में उनके लिए जो अपने थे

दौरे इश्क है गुज़र जाएगा

आप ज़र्रा है आफ़ताब बने तो सही


रूहनी खुशबू है अहसास कर के देखिए

नहीं तो सिर्फ गुबार है ये धूल के


नूरी मछुआरिन सरहद के इस पार हो

या कि उस पार

हर बार दीद रहा जाती है इस पार


इश्क के दरिया में बेख़ौफ़ तैरते है

हम वो है जो इसकी आग में भी हहरते है


टंगा जड़ पर तरकस, स्यालों में बांट दिये आप ने तीर 

मिर्जा जिन्दा है बस जरा इश्क की तलवार धंसी है


खामोश है, उदास है ,पर बंजर नहीं जमीन

पहले बोसे की बूँदे हरा रखती है

कि स्मृतियों का लोबान बुझ- बुझ के जलता है

अधूरा एहसास है रातों को महकता है


लबालब दिल है बेलौस भी है ये

यादों से रूबरू हो थोड़ा मगरूर भी है ये


शब्द थके, टूटे, गीत बेघर है मेरे

सपने नींद की तलाश करते है

यक़ीनन सफ़र मुश्किल है इश्क का

मुकम्मल यहां कुछ भी नहीं
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