Friday, December 29, 2017

एक था सरवन

एक था सरवन
पालकी उठाता था
जेठ की लू में
पूस के जाड़े में
गीत गाता था
चैता सुनाता था

सरवन की पालकी में
ठहर गया एक दिन
चुलबुला वसंत
प्रीत कुसुंभ के संग

फिर प्रेम रंगा, फागुन रंगा
रंग गया वसंत
प्रीत कुसुंभ के संग

अब पग फेरा नहीं
वसंत ठहरा वही

इतिहास हुआ क्रुद्ध
मौसम हुआ रुद्ध

इतिहास देवता कहते है..

सरवन सीधा नहीं बदमाश था
वो तो चालबाज था
वो चोर है
वो पागल है
वो कायर है

सरकार ने सामाजिक स्तरीकरण की बात की
सरवन को मात दी
सरवन सरकार के पाँव पखारता है
माई बाप, माई बाप चिल्लाता है

साल आते है चले जाते है
हर युग में सरवन गाते फिर रोते है
बस यूं ही अपना वसंत खोते है

पालकी उठाएगा नहीं
चैता सुनाएगा नहीं
सरवन अब कभी नज़र आएगा नहीं

एक है पागल
विगत पालो की पालकी उठता है
चैता गाता है-

चढ़त चइत चित लागे ना रामा
बाबा के भवनवा
बीर बमनवा सगुन बिचारो
कब होइहैं पिया से मिलनवा हो रामा
चढ़ल चइत चित लागे ना रामा...

वसंत की कब्र पर बंदिशें बिखर बिखर जाती है

सरवन मरते नहीं
वसंती अंधेड़ों में अदृश्य हो जाते है।

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Saturday, December 16, 2017

न्याय की आस्थाएं

उसकी पीठ पर बैजनी फूल बंधे थे 
और हाथ में सपने 
अभी अभी उगे पंख 
उसने करीने से सजा रखे थे 
कुछ जुगनू उसके होठों पर चिपके थे 
कुछ हँसी बन आसमान में

वो एक सर्द रात थी 
जब हम नक्षत्रों के नीचे चल रहे थे 
और चाँद मेरे साथ 
हिम खंड के पिघलने तक 
मैं उसका साथ चाहता था 
उसे भी इंतजार था सुनहरी धूप का

मैं भरना चाहता था 
वो समेटना 
इसलिए हमने एकांत का 
इंतजार किया

उसकी हँसी एकांत को भर रही थी
मैं डूब रहा था
तभी एकांत के अधेरों में छिपे भेड़ियों ने 
उसकी हँसी को भेदना शुरू कर दिया 
मैं अकेला ,उनके साथ उनकी हैवानियत
हैवानियत से मेरी नियत हार गई 
और हँसी भी

क्षत विक्षित हँसी अब झाड़ियों में पड़ी थी 
और में न्याय में
न्याय उलझा था किसी नियम से
मैं आज भी अधेरी रात के डर को 
मुट्टी भर राख और चुल्लू भर आंसू में मिला कर
न्याय की आस्थाएं ढूंढ़ रहा हूं।
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Friday, December 15, 2017

बोलो पद्मावती

पद्मावती
इतिहास की वीथिका में भटकती
क्या सोच रही हो ,खिलजी चला गया ?

देह की राख से शांति के महल मत बनाओ
ठुड्डी पर बने तुम्हारे तिल की चाहत लिए
लौटता आदमखोर बांट रहा है
बाल मन को आदम वासना के विचार

अब वो
जिंदगी के गुजरते कारवां में
मौत के हरकारा बन
घर के आँगन में , आँगन के बहार
अकसर नज़र आता है,
मासूम चीखों के अशुभ पैगाम लेकर

यौवन की उछलती गलियों में
मौत की ठिठोली अब भी वैसी ही चल रही है पद्मावती
कुछ दर्द बिना नाम बिना संदर्भ के इतिहास में
कुछ नियति के तराजू के पलड़े पर झूलते
तो कुछ मुट्ठी भर राख बन न्याय मांगते दिख जाते है

रानी शायद तुम्हारा सोचना सच होता
अगर प्रतिरोध का तरीका कुछ और होता
शायद..
वेदना का अन्त: पक्ष ज्यादा पेचीदा होता है
वेदना के सामाजिक पक्ष की तुलना में
निर्दयी खिलजी परम्परा के अंत का मार्ग जौहर नहीं साका  है रानी

बचने की अनंत चेष्टाओं का अंत सिर्फ देह का परित्याग नहीं
देह की राख झाड़ कर
आओ पद्मावती
कामी सुलतानों को दंड देना है
देखो स्त्रियाँ खप्पर लिया चली आ  रही है।
कारवां बनने को है।
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#डॉकिरणमिश्रा

शाका : महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे | पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ |
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Tuesday, December 5, 2017

प्याली में तुफान

मानव समाज जब ताम्रयुग में पहुंचता है
संस्कृति जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खडी
चरखे से बनाती है सभ्यताओं के विकास के धागे
जिन का छोर पकड़
प्राचीन जगत की नदीघाटी सभ्यताएं
नगरों की स्थापना के लिए
करती है प्रसव लिपियों का
तब ग्राम और नगर के बीच
एक स्वर धीरे धीरे पनपता है
जो व्यंजन में बदल
बॉस्टन हार्बर में
करता है विरोध अंग्रेज सरकार का
देता है साथ उपनिवेशवासियों  का
सारी दुनिया के गरीब, मजदूर, बेसहारा
का सहारा बन
पहुंच जाता है विदर्भ के गांवों में
दुमका की खदानों में
दंडकारणय  के जंगलों में
वादी-ए-कश्मीर की संगत में
बन जाता है सबका प्रिय अक्षर चाय
और क्यों न हो
शोंनोग जैसे ईश्वरीय किसान के प्याले से
जनता का जनता के लिए बन
राजा को रंक, रंक को राजा बना
उठा देता है प्याली में तुफान।

☕☕☕
चाय की चर्चा 😊

Monday, October 9, 2017

भाद्रपद के चाँद सा प्रेम

प्रेम की निर्जनता में उदासी हमेशा स्लेटी रंग की क्यों होती है?
यही पूछा था न मैं ने
और तुमने हस कर कहा था
बिना संकट के कुछ भी सार्थक की प्रति संभव कहां,
संभव तभी है
जब मन के पथ में दूसरे की गंध भरी हो
शारदीय धूप का केसरिया रंग किन्हीं अक्षांशो पर खिलाना ही होता है मयूख....
सच कहा था तुमने
प्रेम की परिणति तो पहुँच जाने में ही होती है
चाहे इतिहास बने या वर्त्तमान
बस इतना रहे की
मन की निर्जनता में भाद्रपद के चाँद सा झलकता रहे।

Friday, October 6, 2017

प्रेम पथ

प्रेम की निर्जनता में उदासी हमेशा स्लेटी रंग की क्यों होती है
यही पूछा था न मैं ने
और तुमने हस कर कहा था
बिना संकट के कुछ भी सार्थक की प्रति संभव कहां
संभव तभी है
जब मन के पथ में दूसरे की गंध भरी हो
शारदीय धूप का केसरिया रंग किन्हीं अक्षांशो पर खिलाना ही होता है मयूख....
सच कहा था तुमने
प्रेम की परिणति तो पहुँच जाने में ही होती है
चाहे इतिहास बने या वर्त्तमान
बस इतना रहे की
मन की निर्जनता में भाद्रपद के चाँद सा झलकता रहे।

Thursday, August 31, 2017

सहजता ही जीवन है

जिंदगी मौत भी एक उम्र में मालूम हुआ।
मेरा होना था महज़ मेरे न होने के लिए।।

स्व. कुंवर रघुवीरसिंह ने सच ही लिखा इस दुनिया में प्रत्येक चीज का मूल्य चुकाना पढता है और जो जीवन उसने दिया है उसका भी मूल्य वो मृत्यु से ले लेता है तभी तो कहा गया है जगत मिथ्या ।

स्पिनोजा ने भी लिखा है कि जो ईश्वर को प्यार करता है वह निश्चित न समझे कि ईश्वर भी उसे उतना ही प्यार करेगा।
मानव ईश्वर से अलग है वो आशा रखता है, मानव से भी ईश्वर से भी ,नहीं करेगा तो जायगा कहां ? आशा, निराशा के इस उतार-चढ़ाव के बंधी रस्सी पर चलते हम वो नट है जिसके खेल का आनंद कोई और ऊपर बैठा लेता है।

आज हमारी प्रवृतियों और हम में लड़ाई छिड़ी है यही हमारे जीवन की उलझन है। हम जिसे तर्क कहते है अच्छे-बुरे की पहचान कहते है और जिसे इस पहचान से असलियत समझने का दावा करने वाली बुद्धि कहते है वो इतनी उलझी है कि वो कल्याण नहीं अकल्याण करती घूम रही है।दूषित हो बजबजाने वाली वस्तु सड़न तो फैलाएगी ही और हम उस सड़न में अपने तर्कों की रस्सी से फंसे भटक रहे है।

जायज और नैतिक के बीच इतना बड़ा अंतर आ गया है कि इनके बीच व्यक्तिगत स्वार्थ आत्मकेंद्रित हो समाज की टोपी के नीचे ''कीमत की आंक'' छिपाकर अव्यवस्था फैला कर खुश है।
फ़र्थ- समाज से आज तक एक ही प्रश्न कर रहा है तुम्हारे आदेश क्या है ? लेकिन समाज ,उसे युद्ध और बर्बरता से फुर्सत कहां । आस्टिन प्रयोग छोड़ कहीं से पुरानी न्यायसंगत परिभाषा ले बताते है समाज के नियमों के उल्लघंन के फलस्वरूप मिला दंड वही आदेश है।

आज विचारधारा बंदली है या हमने उनकी व्याख्या बदल दी जो भी हो हम आदेशों में उलझे प्राणी है आदेश स्पष्ट नहीं जीवन स्पष्ट नहीं ये समस्या यूं तो दिखाई वैसे नहीं पड़ती जैसी है लेकिन सबसे बुरी बात इसका हल अभी तो मानवजाति के पास नहीं।बस एक ही कोशिश होनी चाहिए हम मानव को मानव समझे।

आज की व्यापक अव्यवस्था कर्तव्य, कानून, धर्म में विभिन्नता आ जाने के कारण है, जिससे सभ्य समाज में असामंजस्य की स्थिति उत्पन्न की है लेकिन ये स्थिति सरल समाजों में नहीं है सो हे आधुनिक सभ्यता अपने सभ्यता के बोझ को थोड़ा-थोड़ा कम करो इसी में हम सबका कल्याण है।


Sunday, August 27, 2017

स्त्री स्वर्ग का फाटक

पीड़ा की नीव में दबी वासना सुखी हो उठी
जब जब स्त्री कराही ,चिल्लाई
और इस तरह बर्बर दंड ने जन्म लिया इस पृथ्वी पर
हर कराहने के बाद शिकारी बढते गए
पहला शिकारी कोई आदि अमानुष था

ढेंकुल ने मधुर वचनों के दंड में फरेब घोला
प्रेम की रस्सी से वासना का कुंड भरा
कुइयां अब रीती थी
ये बुद्धिजीवी थे

धर्म की कृपालु आत्माओं ने कहा
स्त्री तेरे शरीर में स्वर्ग का फाटक है
हम उसे स्वर्ग की कुंजी से बंद करेंगे
तब वो विभिन्न धर्मों के साथ
स्वर्ग की कुंजी से ताले जड़ते गये
ये धर्म के ठेकेदार थे

वेश्यालयों की दीवारें धर्म के पत्थरों से सजी थी
मंदिर अक्षत योनि से
फिर सारे बर्बर दंड
कराहने ,चिल्लाने से निकल कर
फैल गये धर्म ग्रंथों तक

कारागार खड़े हुए न्याय की नींव पर
सारी निर्दयता का अंत
स्त्री की जांघ पर जा बैठा
अब स्त्री की उतनी ही जरुरत थी
जितनी खाट की ,सवारी की, छत की।

स्त्री अब कोई चीज बड़ी है मस्त मस्त थी।

Sunday, August 20, 2017

स्वधीनता की तरफ लौटने का समय

स्वतंत्रता का पौधा शहीदों के रक्त से फलता है लेकिन स्वतंत्रत हुए पौधें को स्वाधीन रहने के लिए किस तरह के हवा, पानी की जरुरत पड़ेगी ये विचार अपने आप में स्वतंत्रता के सही अर्थ को परिभाषित करने के लिए एक कदम साबित हो सकता है।

ये विचार अगर हमने स्वतंत्रता के पूर्व ही कर लिया होता तो ज्यादा अच्छा था तब शायद हमें स्वतंत्रता दिवस की रस्म अदायगी की जरुरत ही नहीं होती क्योंकि तब हम सही मायने में स्वतंत्रता को जी रहे होते।

हम स्वतंत्र तो है पर क्या हम स्वाधीन है? ये प्रश्न एक बार सामान्य नागरिक को जो आधा-अधूरा स्वतंत्र है और जो स्वतंत्रता दिवस मनाने की रस्म अदायगी सबसे कम करता है  अचंभित कर सकता है क्योंकि उसके लिए आज भी स्वतंत्रता, स्वाधीनता में कोई अंतर नहीं है।
'स्वतंत्रता' एवं 'स्वाधीनता'  महज़ शब्दों का हेर-फेर नहीं है न एक मतलब है जहां स्वतंत्रता हो वहां स्वाधीनता हो ऐसा जरुरी भी नहीं, लेकिन लोगों ने इन दोनों शब्दों के घालमेल से जीवन और जीने के मायने जरूर बदल लिए है या यूं कहें कि उनके लिए बदल दिए गए है।

1947 के बाद भारत ने लोकतंत्र को अपना कर ये समझा कि अब हम जनता के लिए एक ऐसा देश बना रहे है जिसमे जनता सर्वोपरि होगी और ये गलत भी नहीं था क्योंकि लोकतंत्र का ढांचा जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा की परिभाषा पर टिका हुआ है ये वो परिभाषा है जो लोकतंत्र क्या है बताती है पर वो असल में भी यही है इसके बारे में संदेह है।

हमने सोचा था कि हम एक ऐसे भारत का निर्माण करेंगे जिसमे धर्म, भाषा, जाति सब को लोकतंत्र में समाहित करके राष्ट्र निर्माण में सामुदायिक भावना का विकास करेंगे लेकिन शायद हम ये भूल गये थे की शताब्दियों तक सामंती संस्कारों में पले हम इतने ढल चुके है जो समाज में लोकतान्त्रिक हेतू अपेक्षित प्रयासों की और से मुंह मोड़ कर लोकतांत्रिक गतिविधियों को गड़बड़ी में बदलते रहेंगे या हम में से कुछ लोगों को ऐसी गड़बड़ी में बदलने के लिए बाध्य करते रहेंगे।

असल में इसकी शुरुआत स्वतंत्रता के समय से ही हुई जब स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका निभाने वाले कुछ नायकों ने स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता को आलोचनात्मक प्रसंग की तरह लिया और उसे समय-समय पर ख़ारिज किया उन्हें समान मताधिकार का विचार ही बड़ा विचित्र लगता था ऐसा लगना उनके लिए कोई विचित्र बात नहीं थी क्योंकि उनमें से कुछ समाज के ऐसे तबके से थे जो स्वतंत्रता पूर्व शासक था तो कोई शासक का  सलाहकार ऐसे लोगों को लोकतंत्र अवगुण तंत्र लगने लगे ये बड़ी बात नहीं थी। 

ऐसे में लोकतंत्र  के प्रति जो निष्ठा बनी वो इतनी गैरजिम्मेदार थी कि हम राज्य और नागरिक के आपसी संबंधों को पहचानने तथा उनकी मजबूती के लिए उपयुक्त तंत्र खड़ा करने में अक्षम रहे ।

नागरिक सरकार की जिस व्यवस्था के अंतर्गत रहता है वही उसके जीने का अधिकार बन जाती है ये ऐसी बात होती है जो किसी भी अन्य बात से ज्यादा प्रभावित करती है अर्थात धर्म से दर्शन तक ।
हमने लोकतंत्र तो अपनाया लेकिन अपनाते समय हमें अपने बोध का इस्तेमाल जो आधा-अधूरा किया उसने लोकतंत्र को सिर्फ सरकार चुनने के अधिकार का तंत्र बना दिया।

नागरिकों को इस तंत्र में कितनी स्वतंत्रता व कितनी स्वाधीनता मिलती है इसका मंत्र अगर हम समझ लेते तो शायद आज इसके मायने कुछ अलग होते जनता इतने नुकसान में नहीं रहती।

घर लौटने के कई रस्ते है जो एकांत में मुझे अपना हाल सुनाते है थिक नात (कवि एवं बौद्ध भिक्षु)ने सही कहा  है । हमें वास्तविक लोकतंत्र की तरफ लौटना ही होगा सिर्फ मतदान वाला लोकतंत्र नहीं बल्कि ऐसा लोकतंत्र जहां नागरिक ये महसूस करें कि उनके पास एक नागरिक के रूप में सामान अवसर है वो विज्ञान, कला, व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में समान रूप से अवसर पा सकते है।

ये क्षेत्र कोई भ्रष्टाचार का दलदल नहीं जिसमे वो डूब जाएंगे उन्हें अब किसी भी क्षेत्र में अपनी योग्यता को सिद्ध करने के लिए किसी गॉडफादर की जरुरत नहीं ये बात एक आशा जागती है तो क्या आशा वापस आने की उम्मीद रखी जानी चाहिए ?

इन सब में एक बात बहुत महत्वपूर्ण है शक्ति का संतुलन हो न शक्ति संचित हो न क्षीण हो ।

सरकार और अन्य संस्थाएं न तो अपनी स्वतंत्रता का दायरा लांघकर नागरिकों की स्वाधीनता और अधिकारों को अवरुद्ध करें  और न ही नागरिक शासन–प्रशासन को अपने कृत्यों से आहत करें ये विचार  लोकतंत्र की स्वाभाविक दुर्बलता को दूर करके एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण करेगा तभी स्वतंत्रता, स्वाधीनता की अवधारणा सच साबित होगी।

Monday, July 24, 2017

खड़कती खिड़कियां

दुनिया की सारी चीख़ें मेरे जहान में है
जेहन में रहना कोई अच्छी बात नहीं
इससे मांगने का डर रहता है
इंसाफ दर्द देता है

मेरे अंदर एक चुप्पी है
जिसे सुनकर
खिड़कियां खड़कती है
मैं ने एक हिमाकत की
खिड़कियां खोलने की
उसूलों ने मुझे नेस्तनाबूत कर दिया

अब खंडहर भी नहीं
सिर्फ चौकटे बचे है
आश्चर्य जिनकी नीव में
आज भी "हैं" दबा है

वो बरगद के नीचे बैठ पीर
जो असल में क़यामत से बैठा कोई फक्कड़ है
कहता है मुझसे
मन को बांधो
बांध मन को देखा मैं ने ज्यों ही
उस पार तमाम हैं'जमा हो
फातिया पढ़ रहे है।



Wednesday, July 5, 2017

सूफ़ी पात

दरवेश से होते है पत्ते
यहां वहां बिचरते हुये
बेनियाज़
शाखों पर लगे ये करते हैं जुहद
अतीत के गुम ये यायावर
निकल आते है
कच्ची दीवारों पुराने खंडहरों से
और पहुंच जाते है सर्द रातों में
दहकते आवा में
इंतजार करते लोगो को
देते है दिलासा और करते है गर्म रिश्तों को
इनके दिल पर जो लकीरें है
दरअसल ये युगों की कविता है
बंद डायरी के बीच बैठे
ये सुनाते है किस्से
तेरे मेरे प्रेम के
ये दरवेश है तो कहां ठहरेंगे
चल देते है किसी और
पगडंडी पर
जहां प्रतीक्षा की पंक्तियां
गुनगुनाता प्रेम
इन्हें भर लेता है बाहों में
कहानी सुनने को
शुरू होती है
एक और नई कहानी....।

(बेनियाज़-- किसी भी चीज़ की चाह न होना।
जुहद-- तपस्या )


Saturday, July 1, 2017

अहसासों की बारिश

स्फटिक की छत कुछ देर पहले की बारिश से धुल कर किसी नायिका की हीरे की लौंग सी चमक रही है । छत के कोने पर रातरानी की डाल जैसे चूमना चाहती है उन सफेद लिहाफ को जो आधे खुले पडे है। अभी अभी हवा के हल्के झोके से लिहाफ का आंचल रातरानी ने भर दिया है। ऊपर अंबर में बड़े से बादलो के समूह से एक छोटी बदली अभी अभी अलग हो चंदा को अपने आगोश में लेकर अपनी स्मित मुस्कान फेक धरती पर दूर कही किसी घर की छत पर बैठी नायिका की हया को आड़ दे रही है ।
एक सरसराहट सी हुई है रेशमी आँचल किसी की सांसो से हिला है चकित नयनों ने ऊपर उठने की हिमाकत अभी की ही थी कि पास के बरगद पर किसी पंक्षी ने ख़ामोशी को सुर दिये है और अनजाने में ही नायिका की दिल की धडकनों को बढ़ा दिया है शायद मंद समीर ने नायिका की घबरहाट को भांप लिया है और उसने हल्के से डोल कर पास बैठे अहसासों को मंजू सुरभि थमा कर अपनी रहा ली है थमने थामने के क्रम में नायिका की नथनी हिली है तो पास हिला है एक दिल। 
दूर इंजन ने सीटी दी है । कुछ सांसो की खुश्बू चाँद की चांदनी और पांव की झांझर बजी है ।
रुन झुन से अहसास ले रेल न जाने कितने अंजाने कस्बे गाँव नदी खेत मकानों को पार करते हुये आखिर पहुंच ही जाएगी जहां उसका गंतव्य होगा....जाओ कोई तो है जो तुम्हारा इंतजार करता है।

Wednesday, June 28, 2017

उनींदे समय में शब्द

इस उनींदे समय में
शब्द जाग रहे है
वो बना रहे है रास्ता
उन के विरुद्ध
जो जला कर देह को
सुर आत्मा से निकाल रहे है

वो ख़ामोश हो जाते है
उन चुप्पियों के विरुद्ध
जो उपजी है
गली गली होती हत्या के बाद

बहरूपिया होते है शब्द,
झूठ को लेकर
चढ़ाते है उस पर चमकदार मुलम्मा
फिर उसमें भरते है रंग , मन चाहा

शब्द अपने भीतर और भीतर से
कर रहे है विस्फोट
ताकि मुर्दे बाहर निकल लड़े
ज़मीन ,जंगल के लिए
फिर शब्द
ख़त्म करते है
महान सभ्यताओं , संस्कारों को

शब्द अब पैने है
समय को अपने भीतर छिपाये
वो उसे भेद रहे है
और भविष्य लहूलुहान पड़ा
आखिरी सांसे ले रहा है।

क्या शब्दों से मोर्चा संभव है ??

Thursday, June 8, 2017

अरदास

अरे सोये होते अगर
अदवायन खिंची खाट पर
तो पड़ते निशान
दिन और रात पर
देखते चीरते जब
अपना ही मन
तब आती आवाज
परतंत्र परतंत्र
दबाओ नहीं चिंगारियां
राख में उनकी
जो चल दिये दे के
स्वतंत्र स्वप्न
दया बाया छोड़
हाथ में हाथ दो
करो उदघोष
जनतंत्र, जनतंत्र।

#किरणमिश्रा

🙄खाते, खवाई, बीज ऋण
गये उनके साथ
अब नहीं कोई अरदास।

Thursday, June 1, 2017

भाग-1
सबसे अंधकार समय में 🇮🇳 (भाग-1) / किरण

तुम्हें समझना चाहिए था
लेकिन तुम नहीं समझे
और तोड़ बैठे
शब्दों को आवाज़ों में
विभिन्न आवाजो को तुमने सुना
फिर उन्हें जोड़ा
तुम्हें लगा
खून देकर तुम्हें आज़ादी मिल गई
इसलिए तुम आवाजों को जोड़ने का
कौशल दिखा सकते हो
और तुमने उस रात दिखाया
ये जागरूकता कौशल था
ध्वनि जागरूकता
तुमने ध्वनि का परावर्तन किया
लेकिन तुम भूल गये
सुपरनोवा समाज से
बच पाना इतना आसान नहीं
तुम नहीं बचे
तुम्हें बचना ही नहीं था
सदियों से नीव में दबे
तुम भूल गये थे
तुम्हारे वर्ग ने अपना खून दे
आज़ादी किसी और वर्ग को दी थी
जिन्होंने तुम्हारी सारी संभावनाओं को
बीच चौराह मार गिराया
लेकिन फिर भी तुमने बचा लिया
उन ध्वनि तरंगों को
जो किलोहार्ट्स पर न सही
हार्ट्स पर चली
तुम्हारे जाने के बाद,
हालांकि उन्हें चलना था
तुम्हारे रहते हुये
तुम जैसो के कारण
ध्वनि तरंगे अब
हो कर आज़ाद
कर रही है यात्रा आगे की।

#रवींद्ररिक्शाचालकदिल्ली

Friday, May 26, 2017

जमीनस्तो

बादल उमड़ घुमड़ रहे है
खदेडी गई कौमों की स्त्रियां
इंतज़ार में है
अषाढ की उमस कुछ कम पड़े
सियासत की हवा कुछ नरम पड़े
तो नसों में धंसी वक्त की कीलों
को निकाल फेका जाए
वो जर्द चिनारों से
जो खौफ लेकर चली थी
वो खौफ भी उनके नहीं
आंसुओं से तर दर्द सूख गये
लेकिन लोरियों में घुले खून की महक
अभी तक गई नहीं
उनके रौंदे जिस्म महज़ब की कहानी कहते है
स्त्रियां भूल गई
रचना रचाना स्त्री का है
उसे बारूद के ढेर पर बैठाना पुरुष का काम है
स्त्री के लिए जमी कभी जन्नत न बनी
फिरदौस बरूह जमीनस्तो
जहाँगीर ने कहा था
नूरजहां कहां कह पायी थी ?
💐💐💐💐💐💐💐💐💐




Monday, May 15, 2017

मिट्टी का जिस्म लेकर चले खुद की तलाश में

जीवन के खंड खंड से निकले शब्द
कविता बन उतरे कागजों पर
तो कभी मन के प्रान्तर में भटकते रहे
लेकिन एकांत अखंड ही रहा
आमंत्रण देता
संभावनाओं के पंख लगे
अब अधिष्ठाती हूँ मैं
फिर कोलाहल हुआ
'मैं' खंडित
तो कौन उपस्थित था
ऊर्जा
कैसी उर्जा
सम्बन्ध
कैसा सम्बन्ध
सारी ध्वनियाँ थरथरा कर
गुरुत्वाकर्षण का भेदन
नहीं करती
क्यों
कुछ नि:शेष है
शून्य से आगे
महाशुन्य की तलाश में।


Tuesday, May 9, 2017

ताजा गोस्त

हुंअ
बंद करो चीख पुकार
ये लोकतंत्र है
और वो स्वतंत्र
उन्हें खाने पीने चाटने स्वाद लेने की
पूरी आजादी है
सुन्दर स्वाद रुचिनुसार
अपना मनपसंद माल
पड़ोस, दफ्तर, बाज़ार, गलियों से
उठा लेना
उनका मूलभूत अधिकार है
उन्हें पसंद है
ताजा गुलाबी गोस्त
अगर जावा न भी हो तो
भूण या एक दो तीन....
बरस का भी चलेगा
ये विकसित दुनिया है
अब गुलाबी गोस्त का भक्षण
ज्यादा मुमकिन ज्यादा आसान है
कितना सुखद और बनाने में आसान भी
देह से आत्मा तक को छीलना है
फिर स्वाद धीरे धीरे लेना है
उन धारदार पालो का
और तब तक लेना है जब तक
पौरुष आप के अन्दर प्रकट न हो जाये
और खुद को आप
पुष्ट होते हुए महसूस न करे
आखिर आप पुरुष है
आप लोकतंत्र में है
आप को खाने पीने स्वाद लेने की
छुट है
संवैधानिक अधिकारों के साथ

एक वैधानिक चेतावेनी- मादा देह नहीं गोस्त है
उन्हें देह समझने की भूल न करे
क्षमता अनुसर भक्षण करे।

Monday, April 24, 2017

कातिल वसंत

हर काबिल हर कातिल तक अपनी महक अपना हरापन फैलाते वसंत स्वागत है तुम्हारा....

मधुमास लिखी धरती पर देख रही हूँ एक कवि बो रहा है सपनों के बीज । किसके सपने है महाकवि मैं पूछती हूं और ग्रीक देवता नहीं अपोलो नहीं.. बोल पड़ा चतुरी चमार । ये कैसा मेल महाप्राण ? कोई मेल नहीं कोई समानता नहीं लेकिन साथ-साथ जैसे पतझर के साथ वसंत।
मैं स्तब्ध !!
लाल रेखाओं से पूर्ण समस्त मानव समाज में फैले हुई रुढियों को तोड़ते नेत्र जो वसंत की दस्तक से बेखबर चला जा रहा है विवाद और विकास के द्वंद्व में घिरे कालखंड की तरफ । क्या ये छायावाद है?
किसने भेजा है उसे बोलो कवि यूं ही नहीं इस धरा पर में शिक्षा देने चली आई चले तो शिवमंगल सिंह सुमन जैसे कवि भी आए थे । हर कोई चला आता है तुम्हें खोजता इस धरा पर आज भी तुम्हारी पगध्वनि सुनाई देती है और सुनाई देता है मनोहरा का
श्री रामचंद कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणं... राम अर्चन उनके कंठ से फूट रहा है और फूट रही है रुलाई मेरी कंठ से आँखे बहा ले जा रही है मेरे अहंकार को मेरी श्रेष्ठा को तभी मनोहरा देवी का स्पर्श मेरे कंधे पर होता है मुक्त हो किरण इन झूठे राग से और मैं कॉलेज प्रांगण में खड़ी उनकी प्रतिमा के आगे नत हूं।
निराला गा रहे है
छल-छल हो गए नयन, कुछ बूंद पुन: ढलके दृग जल, रुक कंठ!!
जा रही हूं महाकवि नौकरी का बोझ अब सह नहीं जाता दस साल बिताये उन क्षणों में अगर आप न होते तो कैसे समझ पाती वसंत में पतझड़ मिला होता है। कहाँ समझ पाती कविता स्त्री की सुकुमारता नहीं, कवितत्व का पुरुष गर्व है।
कहाँ उतार पाती मन का अनकहा कहाँ कर पाती कागज की धरती को धानी कहाँ समझ पाती रिश्तों को जिन्होंने कच्चे सूत से आप को भी बांध लिया था।
नमन तुम्हें मनोहरा
अब चाहे तर्कों के बुने हुए जाल
विरोध का झेलूं भाल स्नेह का नहीं मिले प्रतिदान चाहे भुला दे मुझे जीवन मनोहरा के समान फिर भी शूलों के रवि पथ पर चलती जाउंगी उनके लिए जिनके लिए वसंत पतझड़ में भेद नहीं...छिना हुआ धन, जिससे आधे नहीं वसन तन, आग तापकर पार कर रहे है गृहजीवन।
बांधो न नाव इस ठांव बंधु.

दस साल डलमऊ के पास बिताए कॉलेज में रहते हुये कुछ सुनी कुछ पढ़ी बातों पर आधारित संस्मरण।


Wednesday, April 12, 2017

स्त्री प्रश्न है, महज़ विचार नहीं

सारे दरवाजे बंद कर
घनघोर अँधेरे में बैठा वो
निराश हताश था
दरारों से जीवन ने प्रवेश किया
खोल दी खिड़की, जीवन की
वो स्त्री थी
जो रिक्त हुये में भरती रही उजाले
और बदल गई अँधेरे के जीवाश्म में

मेरी ये पंक्तियां स्त्री की स्थिति स्पष्ट करने के लिए काफी है । समय बहुत बदला है उसकी प्रक्रिया में बहुत बदलाव आया है लेकिन आज भी बहुतायत में स्त्री जीवाश्म में बदल रही है कारण बहुत है जैसे शिक्षा,रोजगार, संस्कार, धर्म आदि,आदि लेकिन प्रमुख करण सत्ता का है जो आज भी यूं पीठ घुमा कर खड़ी है ।

आज भी आधी आबादी की भागीदारी नहीं के बराबर सत्ता में है जबकि सत्ता पाने वाले स्त्री को एक मजबूत और जरुरी वोट बैंक मानते है और आधी आबादी के सहारे सत्ता में मजबूती से प्रवेश करते है ।

स्त्री का परिचय और इतिहास सिर्फ इतना है कि उन्हें हमेशा तब आवाज दी जाती है जब पुरषों को सत्ता पाने में उनकी जरुरत होती है चाहे देश की आजादी हो या आजादी के बाद ।
सत्ता में आने के लिए राजनैतिक दल, सत्ता की ताकत के साथ स्त्री को फिर से घर तक सिमित कर देते है।

फिर वही यातनाएं, फिर वही शर्मनाक कारगुजारियां ।ऐसी कारगुजारियों का अंत मोमबत्ती की लौ के साथ बुझ जाता है लेकिन आधी आबादी का सच जलाता है और अपनी राख से फिर जीवित हो डर, आशंका, भयावहता के बीच फिर से जलने के लिए तैयार होता है।
आंधियों, दवानालों के बीच स्त्री, टूटती आस्थाओं को जोड़ती स्त्री के जीवन से जुडी पड़ताल मैं ,डॉ किरण मिश्रा' अपने ब्लॉग 'किरण की दुनिया' के माध्यम से करना प्रारंभ कर रही हूं आप सब बुद्दजीवियों से अपील करती हूं स्त्री से जुड़े तमाम प्रश्नों के उत्तर तलाशने में मेरी मदद करे क्योंकि स्त्री महज़ विचार नहीं प्रश्न है जिसे किसी महाज़ब, धर्म, अहंकार, राज्य, राष्ट्र, समुदायों , सरहदों पर निछावर नहीं किया जा सकता है।
'स्त्री प्रश्न है महज़ विचार नहीं' शीर्षक के अंतर्गत सर्वप्रथम 'मुस्लिम स्त्री विवाह और तलाक' के माध्यम से मुस्लिम बहनों की पीढ़ा को हाशिए से उठा कर आप सब के सामने लाने का एक प्रयास कर रही हूं।

सुझाव आमंत्रित है । सुझाव अधिकतम 150 शब्दों तक ही मान्य होंगे। सुझाव मेरे ब्लॉग 'किरण की दुनिया'   (kirankiduniya. blogspot. in) पर
स्त्री प्रश्न है महज़ विचार नहीं' के अंतर्गत
मुस्लिम स्त्री विवाह और तलाक' नमक शीर्षक में लिखे लेख पर कॉमेंट बॉक्स में भेज सकते है ।

हम साल के अंत में स्त्री समस्यों पर विचार गोष्ठी का आयोजन करेंगे एवं  हर समस्या सेे सुझाव भेजने वाले दो सर्वश्रेष्ठ नाम का चयन कर उनकी घोषणा गोष्ठी के अंत में कर उन्हें सम्मानित  करेंगे।
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'स्त्री प्रश्न है महज़ विचार नहीं' के अंतर्गत प्रथम समस्या -

मुस्लिम स्त्री विवाह और तलाक
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मुस्लिम समाज की संस्थाएं इस्लाम की मान्यताओं एवं आदर्शो पर आधारित है। इसीलिए मुसलमानों में प्रत्येक कार्य मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथ कुरान शरीफ की मान्यताओं व आदर्शो के अनुसार ही किया जाता है एवं मुस्लिम कानून भी स्वयं कुरान शरीफ के अनुसार ही है मुस्लिम कानून यानी शरीयत के अनुसार।

मुसलमानों में 'निकाह' को एक शिष्ट समझौता मन जाता है, धार्मिक संस्कार नहीं। मुस्लिम निकाह में वे सब बातें मिलती है जो भारतीय संविदा या समझौते अधिनियम के अनुसार होना चाहिये।
निकाह को एक संविदा मानने वाले मुस्लिम लोगों में निकाह प्रस्ताव और स्वीकृति पर आधारित दो व्यक्तियों के बीच मर्जी से होने वाला सम्बन्ध है।

अली के अनुसार भी यही है मुस्लिम विधि के अनुसार भी यही है मुल्ला मौलवियों के अनुसार भी यही है
समाजशास्त्री कपाड़िया कहते है-
''इस्लाम में विवाह एक अनुबंध है जिसमे दो साथियों के हस्ताक्षर होते है। इस अनुबंध का प्रतिफल'मेहर' अर्थात वधू को भेंट दी जाती है।
इस प्रकार मुसलमानों में विवाह दो विषम लिंगियों के बीच एक समझौता के रूप में स्वीकार किया गया है। अत: इसमे भारतीय समझौता अधिनियम की सभी आवश्यक बातें मौजूद है जैसे-
1.समझौते के लिए किसी भी पक्ष से एक प्रस्ताव रखा जाए।
2. इस प्रस्ताव के दोनों पक्षों की और से स्वतंत्र स्वीकृत प्राप्त हो।
3. समझौता करने के लिए दोनों पक्ष सक्षम हो।
4.समझौते के प्रतिफल के रूप में कुछ धन हो।

मुस्लिम निकाह की कुछ शर्ते होती है जैसे-
1.निकाह का प्रस्ताव लड़के की और से होना चाहिए और उसकी स्वीकृति लड़की की और से साथ ही दोनों की उम्र 15 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए लेकिन नाबालिग बच्चों के निकाह संरक्षक की अनुमति से हो सकते है।
2.एक मुसलमान पुरुष एक साथ चार महिलाओं से निकाह कर सकता है परंतु एक स्त्री एक समय में एक ही पुरुष से निकाह कर सकती है। पुरुष किसी भी धर्म की "किताविया"औरत से निकाह कर सकता है मूर्ति पूजक छोड़ कर
3.निश्चित मेहर, उचित मेहर, तुरंत मेहर, स्थगित मेहर में से कोई एक निकाह समझौते के प्रतिफल के रूप में लड़के को लड़की को वचन के रूप में देना होता है अगर मेहर नहीं दिया जाता या देने का वचन नहीं दिया जाता तो पति को सहवास का अधिकार नहीं मिलता।

मुस्लिम विवाह में भेद दो प्रकार के होते है-
1. निकाह
2. मुताह
जिसमे निकाह अधिक प्रचलित है और स्थायी विवाह है। यदि निकाह में कुछ नियमों का पालन नहीं किया जाता तो उस निकाह को फ़ासिद कहते है अगर उसकी कमियों को पूरा कर दिया जाता है तो उसे निकाह मान लिया जाता है।
मुतः निकाह की शर्त कुछ अलग होती है जैसे-
सहवास का समय निश्चित होता है यह समय एक दिन से एक साल तक हो सकता है। मेहर का निश्चित उल्लेख होता है।

मुस्लिम समाज में निकाह निषेद है जैसे-

माता,दादी,पुत्री,पौत्री,भाई,बहन,नानी,सास,भौजी,पुत्र वधू आदि निकटके सम्बन्धियों से निकाह नहीं कर सकता है परंतु चचेरी, फुफेरी, मौसेरी बहन से निकाह किया जा सकता है।
तलाक शुदा स्त्री से पुनः निकाह निषेद है ये तभी हो सकता है जब पुरुष किसी अन्य स्त्री से निकाह करके उसे तलाक दे या वो स्त्री जिससे निकाह किया है वो तलाक स्वेच्छा से दे तभी वो पहली स्त्री से निकाह कर सकता है जिसे उसने तलाक दिया।
गर्भवती स्त्री से निकाह निषेध होता है।
बातिल -
इद्दत की स्थिति में निकाह निषेध है और भी ऐसी कई स्थिति है जिसमे निकाह निषेध है बातिल कहलाता है जैसे बहुत समीप के रक्त सम्बन्धियों से निकाह, चार पत्नियों के होते हुए पांचवा निकाह ,पागलपन या धोखे से निकाह आदि।

फ़ासिद-
अर्थात अनियंत्रित निकाह ऐसा निकाह जिसका आधार तो ठीक है मगर औचारिक विधि के पूरा न होने से अवैध होता है। इसमें निकाह के बाद भी इन विधियों को पूरा कर लेने से निकाह वैध हो जाता है ऐसा निकाह निम्न है-
1.पांचवी पत्नी से निकाह तभी वैध होगा जब पहली चार पत्नियों में से किसी एक को तलाक दे दे।
2.बिना गवाह निकाह की बाद में गवाही लेकर वैद बनाया जा सकता है।
3.फ़ासिद निकाह कुछ परिस्थितियों में परिवर्तन करने से वैद हो जाते है।

मुस्लिम में निकाह विच्छेद

मुस्लिम में तलाक अत्यधिक सरल है परंतु यह विशेषधिकार परंपरागत तरीके से पुरुषों को ही प्राप्त है। मुस्लिम तलाक कानून के अनुसार पति जब चाहे तब पत्नी को तलाक दे सकता है ये दो प्रकार का होता है लिखित और मौखिक, लिखित तलाक नामा कहलाता है। मौखिक तलाक के कानून में तीन प्रकार है-
1. तलाकए अहसन,तलाक उल इद्दत
2. जिहर
3.इला
4.खुला
5.मुबारत

अब तक आप मुस्लिम निकाह और तलाक के सम्बन्ध में काफी कुछ जान गए होंगे तो ये भी समझ गये होंगे की मुस्लिम विवाह एक ऐसा शिष्ट समझौता है जिनमे समझौते की सारी जिम्मेदारी स्त्री की है और समझौते का सारा अधिकार पुरुष का फिर चाहे बहुपत्नी रखने का अधिकार हो या तलाक का।
अब सवाल ये उठता है की पुरे देश में तीन तलाक के बीच खड़ी मुस्लिम औरतों के वैवाहिक जीवन का फैसला कैसे हो ?
भारतीय कानून से या मौलावो मुल्लो की बहस से ?

मुस्लिम धर्म गुरुओं को अपने अलगाववादी अहम् को पहले छोड़ना होगा कोई भी सरहद कभी इतनी पक्की नहीं होती जिसे तोडा न जा सके धर्म की तो बिल्कुल भी नहीं, अपने को दूसरे से अलग और श्रेष्ठ समझने की परंपरा का त्याग करके अपने विलगाववाद को छोड़ कर अपनी कौम की उस आबादी के साथ न्याय करना चाहिए जो हाशिए पर पडी दम तोड़ रही है।

मुस्लिम स्त्रियों को मुख्य धारा में लाने और उनके शांतिपूर्ण जीवन यापन के लिए ये जरुरी है की तीन तलाक पर रोक लगे, पुरुषों की चार शादी पर रोक हो मतलब एक पुरुष एक ही शादी कर सकता है, और तलाक शुदा मुस्लिम स्त्री को भरण-पोषण की निश्चित व्यवस्था हो। ये हो सकता है ,जरुरी है इसमें ईमानदार कोशिश की।
ऊपर वाले ने दोनों को विभिन्न जैविक संरचना के साथ बना कर इस दुनिया में भिन्न-भिन्न भूमिकाओं को निभाने के लिये भेजा उसने किसी को किसी पर अत्याचार करने इस दुनिया में नहीं भेजा है लेकिन पुरुषों के अपने बनाये कानून के कारण स्त्री अस्मिता अभी संकट में है । समाज से लेकर शासन सत्ता ने उसे अनदेखा किया है ।
आज जरुरी है उसकी आवाज न दबाई जाए  उसे उसका अधिकार दिलाए जाए ये सिर्फ इसलिए न हो की वो वोट बैंक है बल्कि इसलिए  हो की वो इंसान है उसे भी सम्मान के साथ जीने का पूरा हक है।

मुस्लिम बहनों से इतना ही कहूंगी आप की आवाज में भले ही ताकत न हो, वो बुलंद न हो लेकिन शब्दों में ताकत होनी चाहिए अपनी दोयम दर्जे की जिंदगी से मुक्ति का पहला फ़लसफ़ा तो आप की सामूहिकता के प्रयत्नों से है । ये देश आप का है आप इसकी जिम्मेदार नागरिक है । कानून धर्मो में बटा नहीं होता आप ने दस्तक दी है दरवाजा जरूर खुलेगा जीत आप की होगी ,हम सब की होगी ।
आधी दुनिया की एक -एक सदस्य की शुभकामना आप के साथ है।

Monday, April 10, 2017

एक ख़त जिंदगी के नाम

प्यारी  जिंदगी
कहनो को तुम हमारी हो लेकिन पल-पल लहरो की तरह आती जाती तुम्हारी हर लहर पर अलग-अलग नाम लिखा है और इस कदर लिखा है कि कभी-कभी लगता है तुम सचमुच में हमारी ही हो या किसी और की।
सुनो जिंदगी कुछ सपाट रहों पर हमारे कदमों के निशा होते है कभी सपाट रास्तों से पगडंडियों पर उतरना चाहा तो आड़े आया आड़ा-टेढ़ा दस्तूर किसने बनाये कहो तो
तुम से याराना निभाने के लिए हमने उन दस्तूरों को भी माना जो दस्तूर कम दस्ताने जंजीर ज्यादा थे और उनमें ढेरों रंग भरे।
जानती हो जिंदगी हम औरतें , लडकिया इंद्रधनुष होती है तुम जैसे ही जरा सी चमकती हो जिंदगी वैसे ही हम इंद्रधनुष बन खिल जाते है और हर गली हर घर को अपने रंगों से सराबोर कर देते है ।
लेकिन ये क्या यारा जिंदगी ,जैसे ही हम बंधन में बंधते है हमारे रंग में लहू का रंग मिला हमें रंगहीन बना बहा दिया जाता है।
बंधन इतने कसे जाते है कि एक दिन हम सिर्फ रस्सी रहा जाते है और ता उम्र निचुड़ते है अरगनी पर ।
भयभीत आँखे और अनिच्छा के साथ कांपती रातों का सामना करना ख़त्म नहीं होता हर रोज रात-दिन स्वाभिमान की किरचन बटोरते हम खुद एक दिन बुहार दिये जाते है।
जिंदगी व्यथा की कथा तो बहुत है साथ में है ढेरो अनुत्तरीन प्रश्न लेकिन मेरा तुम से एक ही प्रश्न है हम कब तक ड्योढ़ी बने रहेंगे ? बनेगे क्या कभी दस्तक ? 

Sunday, April 9, 2017

जीवन दर्शन

हम भारतीयों की चेतना शक्ति जहां से प्रभावित होती है वो क्या है ? ये एक बड़ा प्रश्न है क्या वो हमारा धर्म यानी हिंदू धर्म है मतलब हमारे वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत और शायद हद तक हमारा लोक जीवन वो लोक जीवन जिसका भाव भिन्न पूजा पद्धति ,भिन्न जीवन विधि होने पर भी परस्पर विरोधी तत्वों, सिद्धांतो और वृत्तियों को बटोर कर एक समाज में समेटने का कार्य करता है । विपरीत विश्वासों, रीतिरिवाजों,साधनाओं, उपासनाओं और सामाजिक प्रबंधों उत्तराधिकार आदि की योजनाओं को हिन्दू धर्म स्थान देता है।

हिंदू जीवन दर्शन के वैदिक दर्शन में हिंदुओं का जीवन के प्रति क्या दृष्टिकोण था
वो ये था कि मनुष्य पूर्णरूप से इच्छाओं का बना हुआ है जैसी उसकी इच्छाएं होगी वैसी उसकी विचारशीलता होगी जैसी उसकी विचारशीलता व समझ होगी वैसे उसके कर्म होंगे और जैसे उसके कर्म होंगे वैसे उसका भाग्य । इसे ऐसे भी सकते है

सिक्रोनिसिटी अर्थात तुल्यकालिक या संक्रमिक घटनाचक्र

संपूर्ण विश्व में चीजें एक दूसरे से जुडी होती है और उनमें एक विशिष्ट तालमेल बना होता है ऐसे कई नियम सृष्टि में अविरत काम करते है। नियमों का हिस्सा हम सभी है जाने-अनजाने अगर हमारे विचार,   वाणी या आचरण इन तत्वों या नियमों के विपरीत अभिव्यक्त हो रहे हो तो वही ख्वाहिशों के रास्तों, रुकावटें अवश्य पैदा करेंगी।

दा लॉ ऑफ़ कॉज एंड इफेक्ट भी यही है । हमारे कर्म तीन स्तरों पर होते है विचार, वाणी, आचरण इन तीनों स्तरों से निर्माण होता है जब इन तीनों में संपूर्ण एकरूपता होती है तब निर्माण की गति न सिर्फ तेज होती है, बल्कि आविष्कार का तरीका भी अनूठा होता है। कर्म और इच्छाओं के बीच एक सयोजन होता है वर्तमान का अतीत के साथ निरंतरता में विशवास वर्तमान को भविष्य में अभिव्यक्त करना  ये सब हिंदू जीवन दर्शन के पक्ष है।

हम पश्चिम की तरह देहवादी नहीं आत्मवादी है इसलिए हम अधिक भावुक और संवेदनशील है ये हमारी शक्ति है और कुछ मायनो में कमजोरी भी शायद इसीलिए भौतिकता का विकास धीमी गति से हमारे यहां हुआ है लेकिन खुशियों में विकास और उमंगो में गति है। हम जीवन को गहराई से जीते है,संबंधों को तरजीह देते है और आत्मोत्थान में लगे रहते है।
कामिहि नारी पिआरी जिमि, लोभिहिं प्रिय जिमि दास
तिभि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागंहु मोहि राम
इन पंक्तियों में भारतीय दर्शन की मूल अवधारणा छिपी है। भारतीय जीवन भोग से योग तक विस्तृत एक विराट जीवन दर्शन है।
भारतीय जीवन दर्शन सिर्फ संन्यास युक्त नहीं है उसमें अर्थ,धर्म और काम भी है संन्यास तो अंतिम अवस्था जीवन विकास की है । हमारे यहां का संन्यास व्यक्ति को समाज से न तो पलायनवादी बनाता है और न ही अकर्मण्य, वो तो व्यक्ति के जीवन को बहुजन हिताय के सर्वोच्च शिखर तक उठा देते है। संन्यास का मतलब व्यक्ति के जीवन की अंतिम अवस्था का सुन्दर विन्यास।
हमारे देश के साथ-साथ हमारे जीवन दर्शन जिसमे धर्म भी शामिल है लोकतान्त्रिक है हमने हमारे धर्म को तानाशाह नहीं बनाया बल्कि हमारे धर्म और दर्शन में वसुधैव कुटुम्बकम रचे-बसे है हमने वनस्पतियों से लेकर अंतरिक्ष तक को अपनी प्रार्थना में शामिल किया है।
भारतीय दर्शन इतना व्यापक है जिसमे न जाने कितनी साधना पद्धतियां,अनुष्ठान,अवधारणाओं का प्रावधान है कई-कई मार्ग है भक्ति और मोक्ष  जिसने हमें सहिष्णु बनाए रखा है तभी तो हम सर्वे भवंतु सुखिनः की बात पुरे मन से करते है। यही हमारी मौलिकता है यही हमारा दर्शन का मूल स्वरूप एवं यही भारतीयता है।

Wednesday, March 29, 2017

आदिशक्ति.... सृष्टि

संपूर्ण सृष्टि में चीजे एक दूसरे से जुडी होती है और उनमें एक विशिष्ट तालमेल होता है। विज्ञान से लेकर हमारे धर्म ग्रंथ कहते है कि ऐसे कई नियम अविरल काम करते रहते हैं। कार्य कारण को लेकर घटी घटना का सम्बन्ध मनुष्य से सीधे तौर पर न भी हो तो परोक्ष रूप से होता है चाहे वो घटना पृथ्वी पर घाटे या आकाश में।
समय की गहराई में झांकते हम अपने आधारभूत गुण के साथ गति और लय में इस जगत नृत्य में शामिल है ये नृत्य वो नृत्य है जो स्पन्दनकारी है जहां केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि सृजनकारी एवं विनाशकारी ऊर्जा का अंतहीन प्रतिरूप शून्य भी जगत नृत्य में हिस्सा लेता है।
इसे हम ऐसे समझ सकते है पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थो को अपनी और खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते है पर जब आकाश में सामान ताकत चारो और से लगे तो कोई कैसे गिरे ? अर्थात आकाश में गृह निरावलंव रहते है क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियां संतुलन बनाएं रखती है । इसे हम मनुष्य की परस्पर आकर्षण शक्ति प्रेम के रूप में भी देख सकते है और ज्ञान,कर्म,अर्थ के रूप में भी जो हिंदू धर्म में महाकाली,महालक्ष्मी,महासरस्वती के रूप में पूजित है।
इससे इतर हमारे वेद परमात्मा को कुछ इस तरह से वर्णित करते है-
परमात्मा अमर है उसका न जन्म हुआ न मृत्यु ।वो निराकार,निर्विकार है। वो हर तरफ मौजूद है। उसके एक अंश से संपूर्ण ब्रम्हांड बना है। अब सवाल ये उठता है वो कौन है और कहां है ? इस शाश्वत प्रश्न का उत्तर अभी शेष है लेकिन उपरोक्त गुण अंतरिक्ष में मौजूद है तो क्या हम जिस सर्वशक्तिमान ईश्वर की बात करते है वो अंतरिक्ष ही है या उस के पार कोई और शक्ति जो जगत को संचालित करती है प्रश्न अनुत्तीर्ण है।
विज्ञान कहता है इस ब्रम्हांड में मौजूद गुरुत्वाकर्षण भी शक्ति ही है । हर सजीव में शक्ति का अस्तित्व है। कण - कण में शक्ति है इसीलिए शायद हमारे बड़े बुजुर्ग कहते थे कण-कण में भगवान है  जो इस बात का सबूत है कि इस अंतरिक्ष में शक्ति का अस्तित्व पहले से ही था ।मतलब ब्रम्हांड और जीवन सृष्टि को अंतरिक्ष की ही शक्ति प्राप्त हुई और इस सृष्टि के अंत के बाद ये शक्ति फिर से अंतरिक्ष में मौजूद शक्ति में विलीन हो जायेगी वैसे ही जैसे हमारे अंदर की शक्ति हमारी मृत्यू के बाद न जाने कहां विलीन हो जाती है।
इस अंतरिक्ष के उस पर अगर कोई चेतना है तो भी और अगर नहीं है तो भी हमारे अंदर की चेतना को परिष्कृत करके ज्ञान,कर्म,अर्थ की शक्ति के द्वारा हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते है जरुरत उस शक्ति को जागृत करने की है शायद इसीलिए भारतीय धर्मग्रंथो में आदिशक्ति की महिमा का वर्णन है
और उस आदिशक्ति से अपने को जोड़ने की कोशिश नौ रातें है जिसे हम नवरात्र के नाम से मनाते है।

Wednesday, March 8, 2017

अपने ही दिमाग की सलाखों में कैद स्त्री

उन्नीस सौ साठ के दशक से या यूं कहें कि उत्तर-आधुनिकता के आगमन से विश्व के सामाजिक,राजनितिक चिंतन और व्यवहार में कुछ नए आयाम जुड़े है। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से मानव समाज के सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में बदलाव होता जा रहा है। सामाजिक व्यवहार तथा मूल्यों में हो रहे बदलाव अच्छे भी है और नहीं भी । इसका निर्णय जितना अच्छा भविष्य देगा उतना वर्तमान नहीं।
इस बदलते हुए समय का सबसे ज्यादा अगर किसी पर प्रभाव पढ़ा है तो वो है स्त्री। आज स्त्री पश्चिमी रंग में रंग कर उसमे ढली है परन्तु अपने दिमाग की सलाखों में वो आज भी कैद है इसलिए वह सहज और शांत नहीं वो अपनी स्वतंत्रता को अपना आत्मविश्वास नहीं बना पा रही है। स्त्री - सशक्तिकरण नारे सिर्फ जुमले बन हवा में तैर रहे है और वो प्रश्न अनुत्तरिण है कि स्त्री समाज के लिए क्या है?और समाज उसे कैसे देखता है?
क्या स्त्री -पुरुष समान है ? या समाज स्त्री को द्धितीयक मानता है या आज भी गुलाम या दासी मानता है। क्या समाज स्त्री को लेकर आज भी कुंठित है ?
ये यक्ष प्रश्न है इन सवालों के उत्तर के साथ ही समाज में मनुष्यता स्थापित हो जाएगी । इसलिए ये जरुरी है कि समाज इन सवालों को हल करे और स्त्री पुरुष संतुलन को कायम करे।
स्त्री सृजनकर्ता रही है । हमेशा से उसने जीवन को रचा है उसे सवारा है। सभ्यता का मानवीय विकास स्त्री की ही देन है । उसने गुलामी और प्रताड़ना से हमेशा समाज को मुक्त कराया है, उसने मानव जीवन का रूपांतरण कर समाज को सभ्य बनाया है।(सम्राट अशोक कलिंग युद्ध और गोप)।
आज बदलते हुए समय में सारे समाज की जिम्मेदारी बदल रही है इस बदलते समाज में स्त्री की जो सबसे बड़ी जिम्मेदारी है वो है उसका अपने प्रति जिम्मेदार होना ऐसा जिम्मेदार होना जिसमे भ्रम न हो ।
उसे संतुष्टिकारण का शिकार नहीं होना है उसे अपने दोषों और कमजोरियों पर भी नजर रखनी होगी और अपना आंकलन खुद ही करना होगा। उसे खबरदार भी रहना होगा कि वो प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल  तो नहीं हो रही है।
समाज में अपने स्थान को बनाने के लिए अपने संघर्ष को  देह-विमर्श  में उसे नहीं बदलने देना है और उन स्त्रियों से भी सावधान रहना है जो देह-विमर्श के नाम पर स्त्रियों की जिन्दगी को और कठिन बना अपने को चमकाने में लगी है।
विभिन्न सम्प्रदाय,धर्म,जाति में फैले हमारे देश में स्त्रियों के संघर्ष बहुत अलग-अलग है जिनकी जड़े गहरे से गढ़ी है स्त्रियों को उन गढ़ी हुई बेशर्म जड़ो को निकाल कर अपने लिए उपयोगी बनाना है ताकि उस पर संस्कृति, मानवता, नैतिकता का पौधा लहरहा सके और स्त्री स्वतंत्रता के फल उस पर आ सके।
अगर स्त्री हमारे देश में फैली समस्याओं जाति,धर्म आदि को नजरंदाज करती है तो उनकी मुक्ति की आस बेमानी होगी।
स्त्री को अपने संघर्ष में चाहे घर हो या बाहार स्वलाम्भी  होना होगा उसे चाहें पारिवारिक शोषण को तोडना हो या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना हो दोनों ही सूरत में परिवार में पारिवारिक लोकतंत्र व कार्य स्थल में अपने हुनर का इस्तेमाल करना होगा न कि स्त्री होने का इस्तेमाल।
स्त्री का सवतंत्रता के संघर्ष को लक्ष्य उसके चरित्र की द्धढता से मिलेगा और हर न्याय तभी मिलेगा। वो खुद भी अपने साथ तभी न्याय कर पाएगी जब वो अपने स्त्री होने को पीछे कर मनुष्य होने के बोध को जगाएगी।
अन्तत: इस संकटग्रस्त मानवीय संबंधो के समय जब की रिश्ते पल-पल बदल रहे है लोग भ्रमित है उलझे है परेशान हो मशीन बन भाव और संवेदना खो रहे है विगत की भूल ने रिश्तो की नीव कमजोर की है ऐसी दशा में स्त्रियों को मानवीय संबंधो को पुन:स्थापित करने में अहम् भूमिका निभानी होगी उसे अपनी अंतरात्मा की कसौठी पर खुद अपने को पुरुष को और उन बच्चों को कसना होगा जो कल पुरुष बन स्त्री-पुरुष के संबंधो को जीयेंगे।लेकिन जीवन मुल्य को चलने के लिए गति को लय में चलन ही होगा पुरुष गति है शिव है और स्त्री लय है शक्ति है शिव बिना गति के शव है और स्त्री बिना लय के शक्तिहीन अर्धनारीश्वर के रूप में पुरुष समानताओं और विपरीतताओं से परे स्रष्टि को गति और लय देते है तभी सुन्दर और शांत स्रष्टि की रचना हो सकती है।
ये सम्बन्ध संतुलित हो जीवन में गुणवता बनी रहे समाज में सकारात्मकता और सृजनात्मकता बनी रहे इसलिये ये जरुरी है कि स्त्री हर बार नए सिरे से खुद को और पुरुष  के साथ उसके रिश्ते को परिभाषित करती रहे।
आने वाली सदी में स्त्री-पुरुष के संबंधो में उर्वरता बनी रहे और बुद्ध के दर्शन सम्यक जीवन का आधार स्त्री-पुरुष जीवन का आधार हो हम ये कामना तो कर ही सकते है।

Thursday, March 2, 2017

आग के दरिया में दो मैना

होना तो ये था
पाबंद बन जाने थे माथे पर
जलाना था दिया
जाना था तकिया पर
ये पूछने
दरिया में आग क्यों अमृत क्यों नहीं
शायद दो मैना दिख जाती
लेकिन झुकना न आया
फिर मारे पत्थर दिल पर
खौफ़ की चक्की चलाई
सोचा तो ये भी था
अब-ए-चश्म में नहा कर
पता चलेगा
दिल का जला क्या पता देगा
कुछ आंखो में
जुगनुओं की तरह टिमटिमाया
फिर गायब
खुदाई में मिला
आत्मा का पता नहीं
आम दस्तूर
आग के दरिया से पार नहीं पाया
राख का पंछी बन
भटक रहा है वीराने में
जहां न चुम्बकत्व है
न गंध है
न सूर्य
अब कफ़स में मैना
पैगाम आए तो कैसे।
-----------------------------
तकिया- फकीरों-दरवेशों का निवास-स्थान
अब-ए-चश्म- आंसू


Thursday, February 23, 2017

शिव बिन शक्ति शव

हर धुन, हर गंध, हर ताल
हर सुर, हर सत्य, हर सुन्दरता
शिव तुम हो
तुम्हारे रसतत्व में
तत्व की शक्ति
तो शक्ति है
हैं न शिव
नहीं तो तुम शव हो
लेकिन शक्ति के छंद में दर्द
तो वो क्या करे
अपने आंसुओं से
निकाल जल तत्व
क्या स्थापित करे
अपने अन्दर वो उर्जा
जो आज तक पुरुष को देती आई।

Tuesday, February 21, 2017

हम


जीवन
नयन, मन तार
बज उठा सितार
लीन हुई मैं
तुम में।

अंग सिहरन
रहस्मय गति
तुम सत्य ज्ञान
मैं जड़ सी पड़ी।

सात लोक
सात स्वर
सप्तसदी
बिन तुम्हारे
मैं शून्य हो खडी।

अभिमान, स्वाभिमान हुए आलिंगित तब सभ्यता हुई नूतन

Monday, February 20, 2017

वसंत के बहाने

हर काबिल हर कातिल तक अपनी महक अपना हरापन फैलाते वसंत स्वागत है तुम्हारा....

मधुमास लिखी धरती पर देख रही हूँ एक कवि बो रहा है सपनों के बीज । किसके सपने है महाकवि मैं पूछती हूं और ग्रीक देवता नहीं अपोलो नहीं.. बोल पड़ा चतुरी चमार । ये कैसा मेल महाप्राण ? कोई मेल नहीं कोई समानता नहीं लेकिन साथ-साथ जैसे पतझर के साथ वसंत।
मैं स्तब्ध !!
लाल रेखाओं से पूर्ण समस्त मानव समाज में फैले हुई रुढियों को तोड़ते नेत्र जो वसंत की दस्तक से बेखबर चला जा रहा है विवाद और विकास के द्वंद्व में घिरे कालखंड की तरफ । क्या ये छायावाद है?
किसने भेजा है उसे बोलो कवि यूं ही नहीं इस धरा पर में शिक्षा देने चली आई चले तो शिवमंगल सिंह सुमन जैसे कवि भी आए थे । हर कोई चला आता है तुम्हें खोजता इस धरा पर आज भी तुम्हारी पगध्वनि सुनाई देती है और सुनाई देता है मनोहरा का
श्री रामचंद कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणं... राम अर्चन उनके कंठ से फूट रहा है और फूट रही है रुलाई मेरी कंठ से आँखे बहा ले जा रही है मेरे अहंकार को मेरी श्रेष्ठा को तभी मनोहरा देवी का स्पर्श मेरे कंधे पर होता है मुक्त हो किरण इन झूठे राग से और मैं कॉलेज प्रांगण में खड़ी उनकी प्रतिमा के आगे नत हूं।
निराला गा रहे है
छल-छल हो गए नयन, कुछ बूंद पुन: ढलके दृग जल, रुक कंठ!!
जा रही हूं महाकवि नौकरी का बोझ अब सह नहीं जाता दस साल बिताये उन क्षणों में अगर आप न होते तो कैसे समझ पाती वसंत में पतझड़ मिला होता है। कहाँ समझ पाती कविता स्त्री की सुकुमारता नहीं, कवितत्व का पुरुष गर्व है।
कहाँ उतार पाती मन का अनकहा कहाँ कर पाती कागज की धरती को धानी कहाँ समझ पाती रिश्तों को जिन्होंने कच्चे सूत से आप को भी बांध लिया था।
नमन तुम्हें मनोहरा
अब चाहे तर्कों के बुने हुए जाल
विरोध का झेलूं भाल स्नेह का नहीं मिले प्रतिदान चाहे भुला दे मुझे जीवन मनोहरा के समान फिर भी शूलों के रवि पथ पर चलती जाउंगी उनके लिए जिनके लिए वसंत पतझड़ में भेद नहीं...छिना हुआ धन, जिससे आधे नहीं वसन तन, आग तापकर पार कर रहे है गृहजीवन।
बांधो न नाव इस ठांव बंधु.

दस साल डलमऊ के पास बिताए कॉलेज में रहते हुये कुछ सुनी कुछ पढ़ी बातों पर आधारित संस्मरण।


Sunday, February 19, 2017

सुप्रीम मिस्ट्रेट ऑफ़ द यूनिवार्स

सिबल ऑफ़ द लिवरेटिंग पॉवर्स ऑफ़ फीमेल सेक्सुअलिटी ! सुप्रीम मिस्ट्रेट ऑफ़ द यूनिवार्स ।
मृत्युजयी निरावरण श्यामवर्ण काली, कालजयी आदि शक्ति जिसके अस्तित्व से जन्मी है प्रलय क्योंकि उस शक्ति ने साधा है काल को और उसे सहा भी है। विरोध स्वरुप जिसका जन्म हुआ हो उसे काल की क्या चिंता वो तो उसके आगे असहाय है।
संयुक्ति से जन्मे त्रिकाल सत्य, शिव सुंदर होता है बिना शक्ति शिव शव है दोनों का मिलन ही अद्धैत की आत्मा है।
स्त्री सदा से प्रेममय है काल से मुक्त पर पुरुष
 ने अपनी रोपित अकांक्षाओ से उसे तोड़ दिया है उसके भीतर की शक्ति असहाय हो या तो ख़त्म हो रही है या विध्वंस करने को बाध्य हो रही है। नकली जिन्दगी जीती स्त्री मानवीय संवेदना खो रही है।
सहअस्तित्व से संसार चक्र चलेगा लेकिन उससे पहले स्त्री को प्रेम में रहने देना होगा क्योंकि उसका प्रेम और उसका  खुद से समर्पण ही उसकी स्वाधीनता है अगर आदिकालीन स्वभाव व स्वरुप नष्ट कर दिये जाएंगे तो आदते नए अधिकार पाने की चेष्टा करेंगी जो शायद मानवता के लिए स्रष्टि के लिए ठीक नहीं होगा ।
उसे सजग और निर्दोष रहने दो ।समय से मुक्ति के लिय जरुरी है  बेशर्त प्रेम में होना। शिव की उर्जा को धारण करने वाली शक्ति ही है हमें इसे नहीं भूलना चाहिये।