Wednesday, December 4, 2019

दास्तान-ए- इश्क

उस दिन गहन निस्पंद  आधी रात में अचानक टहनियों की फुनगी पर पढ़ी बदली से निकलते चांद की रोशनी उतार लाई थी, अतीत का स्वप्न

अहा! कैसे तो स्वप्न थे बारम्बार बांधते थे मन के सुने द्वार पर पंखों के तोरण

आज फिर मादल की थाप कानो में गूंज रही है....
पलाश के फूल तारों भरे सफेद दुपट्टे पर गिर रहे है । उधर कुछ दूर बंदिशें अपनी मुस्कान लिए बिखर- बिखर जा रही है।
पलकों की कोरें  बंदिशों की छांव बन अपनी आंखों से काजल का टीका लगा रहीं है।

काजल का टीका आत्माओं के अंधेरों से  कहां कभी बचा पाया है?

बिखरे शब्द जंगल के रास्ते शहर की धूप भरी सड़को पर पहचाने गये   लाल स्याही से गोले लगाए जाने लगे.....
बंदिशें भूल गई थी मात्राओं का खेल निराला है इसलिए राजा है तभी न उसकी नीति व अनीति का साया है।

पलाश तो स्वच्छंद उगता है.... इसलिए जंगल मे ही फलता फूलता है...जंगल मे शब्द नही होते सिर्फ ध्वनि होती है,हर राजा कहां समझ पाता है हर ध्वनि  गुरुत्वाकर्षण का भेदन नही करती....।

आज भी निस्पंद रात में जब कभी बादलों की ओट से चांद की रोशनी टहनियों की फुनगियों पर पड़ती है तो न जाने क्यूं मन के नक्शे पर एक हराभरा जंगल बंदिशें गाने लगता है।
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