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Sunday, October 2, 2016

रुपजीवा संवेदना

परिपथ से राजपथ तक
संवेदना दिखाई पड़ती है
किसी मचलती तारिका की तरह
अपनी अदाओं से
उत्तेजना फैलाती
तूफान खड़ा कर देती है
संवेदना जो पूरी तरह बदल गई है वेश्या में
लगाती है अपनी कीमत
त्रिवर्ग की सिद्धि में लगे लोग
बोली लगा खरीदते है
और संवेदना चल देती है उनके साथ
दुकान चमकाने
घटना हतप्रभ हो देखती है तमाशा
उसकी चीड़ फाड़ में लगा समाज
संवेदना पर लिखता है इतिहास
विशेष बन संवेदना
इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज होती है
बिछती है नेता,अभिनेता,कवि,कलाकार
के बिस्तर पर
रुपजीवा की भाती बिस्तर बदलती ये
पूरे करती है मनोरथ
घटना किसी अंधेरे कोने में
मुंह छिपाये सुबकती है
संवेदना पण्यस्त्री बन
बैठ जाती है फिर बाज़ार में