Thursday, December 31, 2015

बीते बरस....तुम कहां जाते हो


बीते बरस बीत गए ये सोच कर की आने वाले बरस कैसेबीतेंगे थोड़ी सी ख़ुशी देकर या बेरुखी से मुह मोड़ कर फिर चल देंगे ,साथ छोड़ कर। ये क्रम यूं ही चलेगा ,ये रहा गुजर रहेंगे हमारी अंतिम घड़ी तक ।
लोग बतियाना चाहते है लेकिन बाते नहीं हैं। हलाकि हम वैश्विक हो गए है लेकिन ये हो कर कोलाहाल में जो बदले है सो लड़ रहे है खुद से । पुराने पड़े बिंबो की अधूरी रचना मात्र बन कर हम अतीत की खिड़की से अब भी झाक लेते है और महान सभ्यता का गुणगान शुरू कर देते है। हालाँकि
अप्रासंगिक हो चुके पुराने किस्से कुछ नहीं देते लेकिन फिर भी कुछ रातें तो खुशगवार छोड़ ही जाते है । पड़ोस का देश महसूस कर रहा है उस बीती खुशबू की रूमानियत और जज्बे को। वीरान वेदना अगर कुछ पालो की मुस्कुराहाट दे  पाट दे पुराने जख्म तो इस से अच्छा क्या ?
आतंक से लेकर कलह खरीदने वाले हम बच्चों के लिए विगत वर्षो से वो खरीदना भूल ही गए जिन्हें देख उनका खिलखिला वापस आ सके और  बच्चे है कि सरहद पर सो कर निकल पढ़े  खुशियों के किसी और जहां को खोजने ।
इतनी सजायाफ्ता उम्मीदों हो चुकि है कि बिचारी उफ्फ भी नहीं करती । लेकिन गजब है वो जिनके जिस्म और आत्मा को इतना कुरेचा गया देश- विदेश में फिर भी अपने जीवट के साथ युद्ध में शांति और सुरक्षा की बात करती हैं। सारी बहसों को इनकी स्मृतियां समेटती हैं , जीवन के साथ जीवन जीने के पल देती है उस पर उलाहना यह ये आधी आबादी करती क्या है ?
इतिहास हो चुके युद्ध का ठीकरा फोड़ कर हम उनके सर आज भी कहां  युद्ध से निकल पाए है जबकि युद्ध में शांति के गीत उन्होंने ही गाये है । वो कौन सी भाषा होगी जिनमे औरते कहेंगी अपने मन की बात और वो कौन से पल होंगे जो उनकी बात सुनेगें । खैर
बीती बरस से गाँव मर रहे है मजबूर मजदूर पिसान किसान यही चलन है देखते है गाँव कब लौटते है या नहीं। पिछले साल का दुःख,भय,दर्द बन कर लटका न रहे । हर कोई डूब रहा है बचने की चाह में। पगडंडियां ख़त्म हो रही है सड़के फैल रही है और डर से नदिया सिमिट रही है या जाने सभ्यताएं इसके बावजूद नदी इंतजार कर रही है ताल का उसे सागर तक जो जाना है अकेली पढ़ चुकि नदी कहे भी तो क्या कहे।नदी डार्विन को याद कर के आँखों से निकले आसूं सी बची है ।
पहाड़ियों से ज्यादा गलियों में वो अब दिखाई देता है सालो से खौंप के रूप में जेहन से लिपटा बढता ही जा रहा है शायद कोई गांधी फिर से आ कर इस आतंक को जहन से निकल फेके।
कोई बुद्ध अब तो निकले महल से ...शांति के लिए अभी कबूतर से ही काम चलन पढ़ेगा ,तब तक बारूदों की महक में ही बच्चे बड़े होंगे हलाकि बच्चोे ने बारूदों की महक सूघने से मन कर दिया ये बात और है की उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पढ़ा ।
बीते कई बर्षो से चुप्पियों में भी शोर सुनाई देता रहा ये जंगल का शोर है वो भी क्या करे उसके पैरो के नीचे से उसकी शांति खिसकी भय शोर तो देता ही है। पुरानी सभ्यता हम तुम्हारे गुनाहगार है।अब जंगल कर्मा नहीं खेलता अब वो खेलता है संताप।
शिकायतों से भरे हम उमीदो पर खड़े है देखना ये है कि ये उम्मीदें कब तक कयाम रहती है।
किसी अनजाने से शहर की अनजानी सी गली में के आखरी अँधेरे कोने में दिलो की बात न हो बल्कि गली के आखिरी में उजाला हो ताकि सबसे बड़े संवेदना की कहानी रिश्तों में बदले अँधेरे में नहीं।प्रेम में पंचायत ओफ़्फ़......... बंद भी करो।
देश के लोग लेकिन भूख और भूगोल के सम्बन्ध को अच्छे से समझते है एक घटना की तरह उनका जीना बंद हो भूख के साथ इस युद्ध में जीत मनुष्य की हो । थोड़ा ठहर कर ठिठुरती उस सर्दी को भी देख ले जो स्टेशन ,फुटपाथ पर याचना की निगाहों से हमें देख कर सिहरन दे जाती है हलाकि प्रेमचंद जैसे लेखक उन्हें बचा लेते है अपनी कहानियों में। ये कहानियां बरस दर बरस हकीकत हो आने वाले वर्षो में ये कामना तो हम कर ही सकते है ।
बीते बरस बहुत कुछ ले कर गया कुछ दे कर गया ये अलाप का दुहराव है जो यूं ही चलता रहेगा। बीते बरस तुझे सलाम  आने वाला बरस तेरा स्वागत चमचमाती रोशनी और धुंआ के साथ।

Friday, December 25, 2015

साझा चूल्हा

अचानक हर गली में
सहिष्णुता और सहिष्णुता गुथमगुथा हो
असहिष्णुता में बदल रही है।
हटा रही है तीनो बंदरो के
आँखों कानो और मुह से हाथ ।
अब तीनो बन्दर दे रहे है विचार,
उनके विचारो से त्रस्त हो
भाग रहे है गाँधी
बुद्ध समाधिस्थ हो लोप हो गए है ।
अनोखे असहनशील वक्तव्य पर
नरेन्द्र परेशान हो
समेट रहे है सारे कुटुंब को
ले जाने ऐसी जगह
जहां साझा चुल्हा की मिट्टी मिलती हो।

Wednesday, December 23, 2015

प्रेम के औजार

अब दीवारे अश्लील नहीं होती
क्योकि दीवारे अब होती नहीं
अगर होती भी तो
न होती मैली
क्योकि अब शील ही नहीं
अब कुछ कहने के लिए
अक्षरों की जरुरत नहीं
अब दिल के गुबार जिस्म में समां गए है
शायद हम प्रेम में सभ्य होते जा रहे है
पहले अक्षर थे औजार प्रेम के
फिट करते थे मन से मन को
कसते थे पैच एकनिष्टता समर्पण वफादारी के
तब होता था प्रेम सहज सरल सवेदनशील
अब देह पर सवार प्रेम अपने अक्षर खुद गढ़ रहा है
दो मिनिट प्रेम हर पल बदल रहा है

Wednesday, December 16, 2015

इठलाती इतराती शरद ऋतु आई

मन की झील पर यादें कोहरे सी छाई
एक बार फिर प्रीत की शरद ऋतु आई
बीती बातों ने नवल किरणें बिखराई
आँखों में प्रेम की फिर छवि लहराई
प्रीत सी प्यारी शरद ऋतु आई
कुमुदनी मन हुआ चादनी तन पर छाई
अम्बर के होठों पे लाली  उतर आई
भीनी भीनी सी खुशबू लिए शरद ऋतु आई
अलाव पर बैठे है मीत  का संग लिए
दिल दहक रहा है प्रीत का रंग लिए
कांस सी श्वेत शरद ऋतु आई
प्रीत के तान छेड़े खंजन भी चले आए
चांदनी ने तान पर अमृत बरसाये
नील धवल सी शरद ऋतु आई
विराहते चाँद से मिली जब चांदनी
बजने लगी हर तरफ रात की रगनी
इठलाती इतराती शरद ऋतू आई

Saturday, December 5, 2015

महत्वकांक्षी लेखनी

ओं मेरी कविता तुम दुखी हो पर क्यों
क्योंकि तुम जीना चाहती हो ऐश्वर्य में
जिनके पेट खाली पर मन भरे हैं प्रेम में
दर्द उनका बाट तुम खुश क्यों नहीं
तुम अपनी कीमत लगाना चाहती हो क्यों
अपने को बैच ऐश्वर्य नहीं आता पगली
अरे ये समय है लाभ लोभ का
तुमसे  हानी नहीं इसलिए लाभ क्या
तुमसे टका भी नहीं मिलेगा
और बैचने के लिए कला के साथ कारी होती है
वो भी नहीं तुम्हारे पास
बाज़ार की नजर में तुम खोटा सिक्का
जिसकी कीमत नहीं
हैं तुम बिक सकती हो
लाश बन जाओ
मृत लोगो बेशकीमती होते है
लेखनी ये सब छोड़ो
तुम ने लगा दी अगर अपनी कीमत
तब हम कहाँ सुन पाएंगे
प्रेम के गीत
जीवन संगीत
गरीबो का दर्द
बच्चो की पुकार
न देख पाएंगे
झूमते पहाड़
लहलराते खेत
+++++++
मैं ऐश्वर्य माय लेखनी
मैंने संवेदनाओं को मार
हर्द्धय को कर सक्त
हटा लिया है अन्दर से
असहयो गरीबों का दर्द
अब समर्थक हूँ पूंजीवाद की
कर रही हूँ चाटुकारिता महराज की
जय बोल रही हूँ व्यवस्था की
जय जय जय
+++++++
आत्मा बैच कितना जगमगा रही हो
धन से लदी भदी तुम कितना इतरा रही हो
सर झुकाते लोग तुम्हे अपना इष्ट बता रहे है
पर तुम्हारा दमान कुछ और कहानी सुना रहा है
अहसयो गरीबों के आसू दिखा रहा है
अब तुम प्रेम प्यार की  कविता नहीं
ऐश्वर्य में लिपटी लाश हो
आओ मैं तुम्हे शांति दू
आज मैं तुम्हारी अन्तेष्टी  कर दू
ओम शांति शांति शांति