अब दीवारे अश्लील नहीं होती
क्योकि दीवारे अब होती नहीं
अगर होती भी तो
न होती मैली
क्योकि अब शील ही नहीं
अब कुछ कहने के लिए
अक्षरों की जरुरत नहीं
अब दिल के गुबार जिस्म में समां गए है
शायद हम प्रेम में सभ्य होते जा रहे है
पहले अक्षर थे औजार प्रेम के
फिट करते थे मन से मन को
कसते थे पैच एकनिष्टता समर्पण वफादारी के
तब होता था प्रेम सहज सरल सवेदनशील
अब देह पर सवार प्रेम अपने अक्षर खुद गढ़ रहा है
दो मिनिट प्रेम हर पल बदल रहा है
क्योकि दीवारे अब होती नहीं
अगर होती भी तो
न होती मैली
क्योकि अब शील ही नहीं
अब कुछ कहने के लिए
अक्षरों की जरुरत नहीं
अब दिल के गुबार जिस्म में समां गए है
शायद हम प्रेम में सभ्य होते जा रहे है
पहले अक्षर थे औजार प्रेम के
फिट करते थे मन से मन को
कसते थे पैच एकनिष्टता समर्पण वफादारी के
तब होता था प्रेम सहज सरल सवेदनशील
अब देह पर सवार प्रेम अपने अक्षर खुद गढ़ रहा है
दो मिनिट प्रेम हर पल बदल रहा है
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-12-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2200 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
Badhiya
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