Wednesday, March 30, 2016

स्त्री लेखन की संभावना

ज़िन्दगी की यात्रा में लगे कांटो को अपने ही हाथों निकालते हुए आंसुओंके सैलाब को मन में गठरी बना कर जो हमने रख छोड़ा था ,एक दिन न जाने कैसे उस गठरी की गाँठ खुली और बिखर गए आंसू , दर्द कागज पर हम डरे लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे पर दर्द था कि अब गठरी बन दिल में समाना ही नहीं चाहता था| हमने भी जी कड़ा किया और बिखेर दिए अपने दुःख -दर्द , गगन से चमन तक।
जहां अपने को लिख कर हमने सौन्दर्य की उपमाओं को पार किया वही दूसरी ओर हमारी लेखनी ने जीवन के सख्त सौन्दर्य को रचना शुरू किया।
औरतों  के लिए लिखने का सफर आसान नहीं रहा | चूल्हे पर रोटी बनाते हुए से लेकर
काम लेकिन फिर भी हमने लिखा अपने सुख - दुःख को पूरी  ईमानदारी से । खाना बनाते हुए घर के काम करते हुए दफ्तर की जिम्मेदारी उठते हुए लिखा।
हमारा लिखना सिर्फ हमारा ही नहीं था  | हमने सारी दुनिया के लिए लिखा और सारी दुनिया अपने इर्द -गिर्द समेट ली । हमारे  लिखे को खतरा  समझ समाज ने  हमें दंड भी  दिया पर हमने अपनी कलम नहीं छोड़ी हमने नया विधान लिखा
कविता के मापदंड तोड़े, बिना किसी लालच और किसी वाहवाही के लिखा । हमें प्रशंसा नहीं चाहिए प्रशंसाओं का भ्रामक धनुष तो सीता स्वयंवर में तोड़ दिया था । आज उपन्यास , कविता , कहानी , फेसबुक व  ब्लॉग पर
हम अभिव्यक्ति के हथियार थामे लगातार खुद को व्यक्त कर रहे हैं । हम सबका लिखना हमें कितना सुकून देता है ।मत परिवर्तित करो किसी के कहने पर
अपने भावों को, अपने विचारो को अपनी भाषा को क्योकि हमारे लेखन में हमारी खुशबू  है ।आज नारी के कारण यथार्थ लेखन सुरक्षित है । मानते है इस तरह के लेखन में भरपूर  चुनौतियों पर हमने इससे भी बड़ी -बड़ी चुनौतियों का
सामना किया है और जीत हमारी ही हुई है क्योंकि हमें सच को सच और झूठ को झूठ लिखना आता है ।

Sunday, March 27, 2016

हीरामन

हीरामन ओ हीरामन आज मैं भी तुम्हारी गाड़ी में देखो आ बैठी आ तो उस दिन भी बैठी थी जब मेरी हँसी पछुआ हवाओं सी चलती थी अपनी लंबी-लंबी  चोटी को हिलाती हुलस-हुलस जाती थी छोडो हीरामन वो पुरानी बाते तुम बताओ हीराबाई से फिर कभी भेट हुई .....नहीं चलो अच्छा ही हुआ जानते हो हीरामन जब तुम मुझे मिले तो मैं बी.ए.में पढ़ती थी हीरामन तब से न जाने कितनी डिग्री ली पर प्यार 'प्रेम' के अनगिनित अंत को नहीं समझ पाई । अच्छा ये बताओ तो महुआ घटवारिन का किस्सा का सच्चा था तुम कहते हो हैं तो सच्चा ही होगा गुलेरी कहते है लहना सिंह प्रेम में था तभी तो कहना निभा पाया महुआ घटवारिन प्रेम में जान दी तुम प्रेम में कसम उठा लिए बताओ तो हीरामन का प्रेम बिछोह ही है प्रेम जब मिल जाए तो प्रेम ख़त्म क्यों हो जाता है हीरामन ?अपने प्रेम का हित कोई सोचे तो गुनाहों के घेरे में खड़ा कर दिया जाता है और भारती बना देते है हीरामन उसे देवता।
हीरामन प्रेम तुम्हें का लगता है ,दरिया है ,आग का या ऐसा ढाई अक्षर जिसे पढ़ा तो सब ने पर समाज कोई नहीं पाया तुम गाँव  से गाँव का चक्कर लगते रहे शेखर शशि के साथ जिन्दगी भर का लेख जोखा लिख बैठे कोई सहारा में नंगे पाव चक्कर कटा तो कोई खुद को डूबा बैठा पर प्रेम,प्यार,प्रीत,मोहब्बत को न समाझा तो न समझा। सो हीरामन तुमने ली तीसरी कसम और हम लेते है पहली प्रेम पर लिखेंगे पढेंगे पर.......।

Wednesday, March 16, 2016

दिमाग की सलाखों में कैद स्त्री

 उन्नीस सौ साठ के दशक से या यूं कहें कि उत्तर-आधुनिकता के आगमन से विश्व के सामाजिक,राजनितिक चिंतन और व्यवहार में कुछ नए आयाम जुड़े है। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से मानव समाज के सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में बदलाव होता जा रहा है। सामाजिक व्यवहार तथा मूल्यों में हो रहे बदलाव अच्छे भी है और नहीं भी । इसका निर्णय जितना अच्छा भविष्य देगा उतना वर्तमान नहीं।
इस बदलते हुए समय का सबसे ज्यादा अगर किसी पर प्रभाव पढ़ा है तो वो है स्त्री। आज स्त्री पश्चिमी रंग में रंग कर उसमे ढली है परन्तु अपने दिमाग की सलाखों में वो आज भी कैद है इसलिए वह सहज और शांत नहीं वो अपनी स्वतंत्रता को अपना आत्मविश्वास नहीं बना पा रही है। स्त्री - सशक्तिकरण नारे सिर्फ जुमले बन हवा में तैर रहे है और वो प्रश्न अनुत्तरिण है कि स्त्री समाज के लिए क्या है?और समाज उसे कैसे देखता है?
क्या स्त्री -पुरुष समान है ? या समाज स्त्री को द्धितीयक मानता है या आज भी गुलाम या दासी मानता है। क्या समाज स्त्री को लेकर आज भी कुंठित है ?
ये यक्ष प्रश्न है इन सवालों के उत्तर के साथ ही समाज में मनुष्यता स्थापित हो जाएगी । इसलिए ये जरुरी है कि समाज इन सवालों को हल करे और स्त्री पुरुष संतुलन को कायम करे।
स्त्री सृजनकर्ता रही है । हमेशा से उसने जीवन को रचा है उसे सवारा है। सभ्यता का मानवीय विकास स्त्री की ही देन है । उसने गुलामी और प्रताड़ना से हमेशा समाज को मुक्त कराया है, उसने मानव जीवन का रूपांतरण कर समाज को सभ्य बनाया है।(सम्राट अशोक कलिंग युद्ध और गोप)।
आज बदलते हुए समय में सारे समाज की जिम्मेदारी बदल रही है इस बदलते समाज में स्त्री की जो सबसे बड़ी जिम्मेदारी है वो है उसका अपने प्रति जिम्मेदार होना ऐसा जिम्मेदार होना जिसमे भ्रम न हो ।
उसे संतुष्टिकारण का शिकार नहीं होना है उसे अपने दोषों और कमजोरियों पर भी नजर रखनी होगी और अपना आंकलन खुद ही करना होगा। उसे खबरदार भी रहना होगा कि वो प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल  तो नहीं हो रही है।
समाज में अपने स्थान को बनाने के लिए अपने संघर्ष को  देह-विमर्श  में उसे नहीं बदलने देना है और उन स्त्रियों से भी सावधान रहना है जो देह-विमर्श के नाम पर स्त्रियों की जिन्दगी को और कठिन बना अपने को चमकाने में लगी है।
विभिन्न सम्प्रदाय,धर्म,जाति में फैले हमारे देश में स्त्रियों के संघर्ष बहुत अलग-अलग है जिनकी जड़े गहरे से गढ़ी है स्त्रियों को उन गढ़ी हुई बेशर्म जड़ो को निकाल कर अपने लिए उपयोगी बनाना है ताकि उस पर संस्कृति, मानवता, नैतिकता का पौधा लहरहा सके और स्त्री स्वतंत्रता के फल उस पर आ सके।
अगर स्त्री हमारे देश में फैली समस्याओं जाति,धर्म आदि को नजरंदाज करती है तो उनकी मुक्ति की आस बेमानी होगी।
स्त्री को अपने संघर्ष में चाहे घर हो या बाहार स्वलाम्भी  होना होगा उसे चाहें पारिवारिक शोषण को तोडना हो या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना हो दोनों ही सूरत में परिवार में पारिवारिक लोकतंत्र व कार्य स्थल में अपने हुनर का इस्तेमाल करना होगा न कि स्त्री होने का इस्तेमाल।
स्त्री का सवतंत्रता के संघर्ष को लक्ष्य उसके चरित्र की द्धढता से मिलेगा और हर न्याय तभी मिलेगा। वो खुद भी अपने साथ तभी न्याय कर पाएगी जब वो अपने स्त्री होने को पीछे कर मनुष्य होने के बोध को जगाएगी।
अन्तत: इस संकटग्रस्त मानवीय संबंधो के समय जब की रिश्ते पल-पल बदल रहे है लोग भ्रमित है उलझे है परेशान हो मशीन बन भाव और संवेदना खो रहे है विगत की भूल ने रिश्तो की नीव कमजोर की है ऐसी दशा में स्त्रियों को मानवीय संबंधो को पुन:स्थापित करने में अहम् भूमिका निभानी होगी उसे अपनी अंतरात्मा की कसौठी पर खुद अपने को पुरुष को और उन बच्चों को कसना होगा जो कल पुरुष बन स्त्री-पुरुष के संबंधो को जीयेंगे।लेकिन जीवन मुल्य को चलने के लिए गति को लय में चलन ही होगा पुरुष गति है शिव है और स्त्री लय है शक्ति है शिव बिना गति के शव है और स्त्री बिना लय के शक्तिहीन अर्धनारीश्वर के रूप में पुरुष समानताओं और विपरीतताओं से परे स्रष्टि को गति और लय देते है तभी सुन्दर और शांत स्रष्टि की रचना हो सकती है।
ये सम्बन्ध संतुलित हो जीवन में गुणवता बनी रहे समाज में सकारात्मकता और सृजनात्मकता बनी रहे इसलिये ये जरुरी है कि स्त्री हर बार नए सिरे से खुद को और पुरुष  के साथ उसके रिश्ते को परिभाषित करती रहे।
आने वाली सदी में स्त्री-पुरुष के संबंधो में उर्वरता बनी रहे और बुद्ध के दर्शन सम्यक जीवन का आधार स्त्री-पुरुष जीवन का आधार हो हम ये कामना तो कर ही सकते है।  

Monday, March 7, 2016

पुकार

सुनो कृतिवासा
मैं तुम्हारी ही एक अंश
तुम मुझे जोड़-जोड़ कर
दे सकते हो जीवन,
या मुझे कण-कण में बिखेर कर
कर सकते हो विलुप्त ।
ओ शम्भू
तुम मुझे दे सकते हो उर्जा
भर सकते हो मेरे अन्दर प्रकाश
इतना की अंधकार में मैं
नक्षत्र की तरह चमकूँ,
अरे ओ स्मरहर
तुम मुझे फेक सकते हो
घनघोर अंधकार में
हमेशा के लिए खोने को
ओ मृत्युञ्जय
दिखा सकते हो रास्ता
बन के प्रकाश की किरण
ताकि में भेद सकूं
अन्धकार में भी लक्ष्य को ।
शंकर
जगा दो मेरी वो ऊर्जा
जो पढ़ी है मेरे ही अंतस में
ताकि उसे लेकर मैं
अपनी ही पद प्रदर्शक बन जाऊ।
सृष्टिहरता वृषध्वज
सहारा दो
ताकि लेकर शांति का ध्वज
सब से एक रूप हो जाऊ।