मुझे स्त्री की भलाई के लिए ख़ड़े मेल फेमिनिज्म से बहुत डर लगता है ये वो मेल फेमिनिज्म है जो स्त्री को स्त्री नहीं रहने देना चाहता फिर उसके अस्तित्व को बचाने की बात करती ये स्त्री से उसकी स्वाभाविक प्रकृति को भी छीने ले रही हैं। स्त्री लिए इनका संघर्ष स्त्री के जीवन -संबंधों को बदलेंगा मुझे इसमे संदेह है। शायद इसीलिए स्त्री की लैंगिक भूमिका आज अपमानजनक और सामाजिक भूमिका आज ज्यादा कठिन है। मेल फेमिनिज्म का नया नारा स्त्री स्त्री नहीं व्यक्ति है व्यक्ति तो हम सब है ही अरे नारीवादियों तुम कैसे स्त्री के मन के सवालो को उघाड़कर उसे जवाब बना दोगी तुम तो उसे मन को और उलझा रही हो । स्त्री वादी ढोंग करनेवाली हमेशा आधे आसमान की बात क्यों करती है पूरे की क्यों नहीं ? पूरा आसमान हो स्त्री पुरुष दोनों स्नेह से रहे सामान रहे। फडफडाती नारीवादियां ये भूल जाती है कि स्त्री की न तो पुरुष बराबरी से और न ही नारी को अपने अस्तित्व से अलग करने से उसका कल्याण है अगर ऐसा होता तो चकाचौंध में रहने वाली स्त्रियों को भयावह अँधेरा न झेलना पडता। पावरफुल से पॉवरलेस बनती ये स्त्रियाँ आंसू न बहाती। अरे स्त्रियों भ्रमित नारीवाद से निकलो अपना फलक स्वयं बनाओं ऐसा फलक, जिसमे समाज पुरुष बच्चे और तुम स्नेह से रह सको अपने फलक पर अपने मन माफ़िक सितारे टांक सको।
किरण कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा न होकर उन तमाम व्यक्तियों के रोजमर्रा की जद्दोजहद का एक समुच्चय है जिनमे हर समय जीवन सरिता अपनी पूरी ताकत के साथ बहती है। किरण की दुनिया में उन सभी पहलुओं को समेट कर पाठको के समक्ष रखने का प्रयास किया गया है जिससे उनका रोज का सरोकार है। क्योंकि 'किरण' भी उनमे से एक है।
Friday, February 27, 2015
Wednesday, February 25, 2015
कामवालियाँ
कामवालियाँ,
पल से पहर होते समय में भी
चलती रहती है हौले -हौले
तब भी जब गर्मी में मेरे दालान में घुस आती है धूप
आग की लपटों जैसी
और तब भी जब सर्दी की रजाई ताने
मौसम सोता है कोहरे में
पानी के थपेड़ो के साथ
हवाओं की कनात में लिपटी भी दिखाई देती है।
ये कामवालियाँ,
बेजान दिनों पर सांस लेते समय सरकता है
फिर भी ये खिलती है हर सुबह
तिलचट्टे सी टीन छप्पर से निकल
विलीन हो जाती है बंगलों में
अपनी थकान और बुखार के साथ
मासूम भूख के लिए
रात को बिछ जाती है गमो की चादर ओढे,
इस तरह हर मौसम में
बहती रहती है ख़ामोशी से
सपाट चेहरे और दर्द के साथ
जिनके लिये कोई विशेष दिन नही होता
आठ मार्च जैसा सेलिब्रेट करने को।
पल से पहर होते समय में भी
चलती रहती है हौले -हौले
तब भी जब गर्मी में मेरे दालान में घुस आती है धूप
आग की लपटों जैसी
और तब भी जब सर्दी की रजाई ताने
मौसम सोता है कोहरे में
पानी के थपेड़ो के साथ
हवाओं की कनात में लिपटी भी दिखाई देती है।
ये कामवालियाँ,
बेजान दिनों पर सांस लेते समय सरकता है
फिर भी ये खिलती है हर सुबह
तिलचट्टे सी टीन छप्पर से निकल
विलीन हो जाती है बंगलों में
अपनी थकान और बुखार के साथ
मासूम भूख के लिए
रात को बिछ जाती है गमो की चादर ओढे,
इस तरह हर मौसम में
बहती रहती है ख़ामोशी से
सपाट चेहरे और दर्द के साथ
जिनके लिये कोई विशेष दिन नही होता
आठ मार्च जैसा सेलिब्रेट करने को।
मेरी तुम्हारी हथेलियों की छाप
तुमने जो फूल मेरे बालो में टांका था
वो कल रात न जाने कैसे
वो कल रात न जाने कैसे
उस डायरी से गिर गया
जिसपे तुमने,
मेरी तुम्हारी हथेलियों की छाप ली थी
मेरी तुम्हारी हथेलियों की छाप ली थी
मेरी हथेली की छाप तो तुम ले गए
लेकिन अपनी महक उस हरसिंगार पर छोड़ गए
जहाँ मैंने बदली से निकलते चाँद देख कर,
तुम्हारे पहलू में अपना चेहरा छिपा लिया था
और तुमने हौले से मेरा माथा चूम लिया था
और तुमने हौले से मेरा माथा चूम लिया था
उस एहसास को मैं अपने साथ ले आई
लेकिन दिल उसी हरसिंगार पर छोड़ आई
जो आज भी वहीं टंगा है।
Friday, February 13, 2015
बोलती आँखों वाली लड़की और पूरब का लड़का
बोलती आँखों वाली लड़की जब हंसती है तो इतना कि आँखे भिगों लेती अल्हड धूप के साये के साथ भागती ओस की बूदें इक्कठी करती , मस्त ऐसी जैसे हौले-हौले बर्फ गिरती है फिर एक दिन उसने आती जाती हवाओं से अनकहे शब्द सुने जो पूरब से आए थे, शब्द थे, सच के, प्यार के, विश्वास के. उन शब्दों के साथ पुरसुकून चेहरा भी था ओस की तरह पावन और अम्बर की तरह कोमल जाने क्यों वो चेहरा बेहद अपना सा लगा. उस चेहरे ने कहा कच्ची मिटटी की खुशबू के साथ रहा सकोगी? लड़की हौले से मुस्कुराई फिर उस लड़के ने अपनी हथेली में बोलती आँखों वाली लड़की की रेखाये भी मिला ली और धान के खेत बहती नदी को पार कर वो अपने घर ले गया जहाँ उस लड़की को स्नेह की ऐसी पुलक मिली जो आज भी मन में समाई है.
फेसबुकी औरते!
फेसबुकी औरते!
उम्र की ढलान को पीछे छोड़ बन जाती हैं सोलह साला
रहती है परियों की दुनिया में जहाँ आते हैं उन्हें
खुली आँखों से देखे जाने वाले सपने
उम्र की ढलान को पीछे छोड़ बन जाती हैं सोलह साला
रहती है परियों की दुनिया में जहाँ आते हैं उन्हें
खुली आँखों से देखे जाने वाले सपने
जिसमे होती हैं वो शहजादियों से भी कमसिन
लगाती है सजा के अपने बीते लम्हें
और कॉलेज आइडेंटिटी कार्ड के पिक
फेसबुक प्रोफाइल पर
आने लगते है लाइक और कमेंट
खो जाती हैं फेसबुकी परी- कथा में
इस तरह खुद को जोड़ती हैं आज के समय में
खालीपन की जमी हुयी काई
खुरचती हैं, बनाती हैं हवा महल
झूलती रहती हैं कल्पनाओं के हिंडोले में
फेसबुकी औरतें जैसे सावन में लौटी हों बाबुल के घर
हो जाती हैं अल्हड़ और शोख
खोखले राजाओं और राजकुमारों से घिरी
जो उसके एक हाय पर लाइन लगा देते है
हजारों पसंद के चटके
वाह, बहुत खूब, उम्दा, दिल को छू गयी!
वह मुस्कराती इतराती खेलती है,पर अचानक
एक दिन ऊब कर बदल देती हैं पात्र
और फिर निकल पढ़ती हैं नई खोज में फेसबुकी औरतें
Wednesday, February 4, 2015
तुम्हारे प्यार की खुशबू में
रात भर बारिश में,
ऐसे भीगा मोगरा
जैसे भीगता है मन मेरा
तुम्हारे प्यार में
और खिल खिल सा जाता है।
मैंने उस मोगरे की
बना ली है वेणी
और टांक लिया है जूड़े में
इस तरह महकती रहती हूँ
तुम्हारे प्यार की खुशबू में।
ऐसे भीगा मोगरा
जैसे भीगता है मन मेरा
तुम्हारे प्यार में
और खिल खिल सा जाता है।
मैंने उस मोगरे की
बना ली है वेणी
और टांक लिया है जूड़े में
इस तरह महकती रहती हूँ
तुम्हारे प्यार की खुशबू में।
++किरण++
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