Sunday, March 12, 2023

पानी का पहरुह -- अनुपम मिश्र

जीवन मुट्ठी की रेत की तरह फिसलता है। पल- पल निकलते लम्हें ज़िन्दगीं की तलाश करते है।समय की चाल बेअसर हो आगे सरकती रहती है।शैने- शैने जीवन यूँ ही निकल जाता है, निष्प्रयोजन।

हमारी कामनाओं का आकाश तो हमेशा खुला रहता है लेकिन कर्मों और विचारों की पगडंडिया बंद रहती है।टूटे मन और खंडित व्यक्तित्व की इस भीड़ में लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है जो न सिर्फ अपने बारे में बल्कि पूरे समाज के बारे में जीवन के बारे में भी सोचते है और ऐसे जीते है जो पानी पर भी अपनी कहानी लिख जाते है।

जी हां मैं बात कर रही हूँ, भारतीय गाँधीवादी, लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद, Ted व्यक्ता व जल संरक्षणवादी अनुपम मिश्र की।


"भाषा लोगों को तो आपस मे जोड़ती ही है, यह किसी व्यक्ति को उसके परिवेश से भी जोड़ती है। अपनी भाषा से लबालब भरे समाज मे पानी की कमी नहीं हो सकती और न ही ऐसा समाज पर्यावरण को लेकर निष्ठुर हो सकता है। इसलिए पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करने वाले लोगों को अपनी भाषाओं के प्रति संजीदा होना पड़ेगा। अपनी भाषाओं को बचाए रखने, मान- सम्मान बख़्शने के लिए आगे आना होगा। यदि भाषाएं बची रहेंगी तो हम अपने परिवेश से जुड़े रहेंगे और पर्यावरण के संरक्षण का काम अपने आप आगे बढ़ेगा।" -- अनुपम मिश्र


पर्यावरण के प्रश्न को पारंपरिक दृष्टि से निकाल कर उसमें एक नये विचार का समावेश करना और उसे भाषा से जोड़ने की अनुपम दृष्टि "अनुपम मिश्र" जैसे पर्यावरणविद की ही हो सकती है। तकनीकी साँचो से सुलझा कर स्वभाषा के साथ जोड़ने की कवायद कोई पर्यावरणविद कैसे कर सकता है जब तक उसमें साहित्य की लोकभाषा की समझ न हो।

इस बात पर कितना आश्चर्य होता है न कि लोकभाषा हमारे बीच से कितनी तेजी से विस्मृत हो रही है। शायद आज के समय ही ऐसा है जो हर चीज को विस्मृत करता चला जा रहा है , तब भाषा को बचा कर पानी को बचाने की बात एक पर्यावरणविद ही कर सकता है या कोई छिपा साहित्यकार।

यह जानने के लिए की आख़िर अनुपम मिश्र ने क्यों, कैसे भाषा को पानी से जोड़ा हमें उनके बारे में जानना होगा।

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्रा और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के यहाँ सन 1948 में हुआ था। हिन्दी के कवि के यहाँ जन्म लेना ही उन्हें भाषा के पास ले लाया। एक लेख में अनुपम मिश्र ने बताया कि उनके पिता घर पर कभी भी अंग्रेजी का प्रयोग नही करते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्होंने कभी लोक भाषा एवं हिन्दी भाषा का साथ नही छोड़ा।

सन १९६८ में संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से लेने के बाद अनुपम मिश्र दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़ गए। संस्थान के मंत्री राधाकृष्ण के कहने पर एक चिट्ठी लेकर बीकानेर सिद्धराज ढ़डढ़ा जी के पास गए। वहाँ जाकर अनुपम जी ने पहली बार बरसात के पानी को जमा किया हुआ देखा, जो उनके लिए बहुत ही आश्चर्य का विषय था। पहला तो यह कि बरसात का पानी इकठ्ठा करने की जरूरत को देखकर यानि कि पानी की इतनी असुविधा और दूसरा की पानी जमा करने का तरीक़ा जो बहुत ही प्राचीन था। उन्होंने एक कुंड ( टांका)में जो घर के आंगन में स्थित था और जिसमें बरसात का पानी लगभग एक साल के लिए इकठ्टा किया गया था, उसे देखा तो जाना कि पानी की किल्लत और उसे सहेजना क्यों जरूरी है। 

मरुभूमि में पानी का संग्रह उन्होंने क्या देखा उनका जो आंतरिक रूपांतर हुआ उससे उनकी ज़िन्दगीं ही बदल गई। इसी घटना के बाद अनुपम मिश्र पानी और पानी अनुपम मिश्र दोनों ही एक दूसरे के पर्याय बन गये।

अनुपम मिश्र इस घटना के बाद ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत हो गये और उन्होंने इस और कार्य की भी शुरुआत कर दी जो उनकी मृत्यु तक चलती रही।

यह वह समय था जब देश मे पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नही खुला था। सरकार और जनता का शायद ही इस विषय पर ध्यान जाता हो।लेकिन अनुपम मिश्र पर्यावरण- संरक्षण के मुद्दे पर बहुत ही गंभीर थे, और निरन्तर जनचेतना और सरकार को जागरूक करने में लगे हुए थे।

अनुपम मिश्र लगातार बिना सरकारी मदद के पर्यावरण पर पूरी तल्लीनता से कार्य कर थे। जैसे सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम , सूख चुकी अखुरी नदी का पुनर्जीवन। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजिस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवन, बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का कार्य भी किया है। तरुण भारत संघ के अध्यक्ष रह कर उनके पानी के लिए किये गए कार्य भी अद्वितीय है।उनके काम को देखें तो उन्होंने पर्यावरण पर क़ाबिले तारीफ़ काम किया है।

अद्भुत, अतुलनीय, अनोखा, अप्रतिम, बेमिसाल, अनुठा, अपूर्व, बेजोड़ उनके नाम के समानार्थी उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। सोये, ऊबे, उदासीन समाज मे लुप्त होते पानी के प्रति चेतना जागृत करने का काम कोई अनुपम ह्रदय वाला ही कर सकता है। उनकी हर कोशिश सिर्फ पर्यावरण के लिए ही थी। वह पानी के लिए ही अपनी कोशिश के जरिए पहचाने गये। उनकी सबसे बड़ी बात यह रही कि उन्होंने ऐसे लोग तैयार किये जो बिना किसी शौर शराबे के अपने - अपने अंचलों में, समुदाय के बीच उनकी आवाज बन कर पानी की पहचान बन कर काम मे लगे है।

वह खुद पर्यावरण के किसी एक कार्य तक सीमित नही रहे। उन्होंने न सिर्फ पानी के संरक्षण का कार्य किया बल्कि बाढ़ जैसी भयावह समस्या का हल बताया। उनका पर्यावरण को देखने व समाधान का तरीक़ा बिल्कुल ही अलहदा था। उन्होंने जल संकट का समाधान ऐसे रूप में प्रस्तुत किया कि जल संकट समाधान विश्वसनीय व कम लागत वाला लगा।

अनुपम मिश्र हर बार कहते थे कि पर्यावरण की समस्याओं का समाधान उसका हल हमारे पास सदियों से हमारे लोक में है। बस हमें इतना भर करना है कि हम उन बिसार दिये को पुनः याद करें और उन्हें थोड़ा सा झाड़- पोछ कर अपना लें। उनका कहना था कि मुश्किल यह है कि लोक के यह तरीक़े हमारी कुंजी थे , हम ने उस कुंजी को दूर फेंक दिया है अब पर्यावरण का सुधार हो तो कैसे ?

अनुपम मिश्र ने उस कुंजी को न सिर्फ खोजा बल्कि उससे पर्यावरण को खोला भी। उन्होंने ऐसे सभी लोक कार्य जो जल को संरक्षित करते है, उस पर कार्य किया। उनका कहना था कि जीवन पांच महाभूत से बना है अगर उस पर संकट आएगा तो सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक संकट भी उठ खड़े होंगे।इसलिए जरूरी है कि हम पांच महाभूतों की बेहतरी के लिए कार्य करें।

मध्यकालीन भारत मे जल व्यवस्था का विश्वकोश जो अनुपम मिश्रा ने तैयार किया था। जिसमें जल संग्रह के भूले- बिसरे तरीक़ों को ही नही पुनर्जीवित किया बल्कि अप्रचलित हो चुके शब्दों को भी पुनर्जीवित किया। अपनी अनुसंधान प्रक्रिया में उन्होंने प्राचीन भारत की जाति  व्यवस्था उसके आर्थिक आधार के ढांचे का भी प्रामाणिक आधार खड़ा किया।

किसी भी कार्यक्षेत्र में कार्य करना बहुत ही महत्वपूर्ण है लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उस कार्य को ही जीवन मे उतार लेना लेकिन शायद उससे भी बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है दूसरों को अपने कार्य से इस कदर बदल देना की वह एक परम्परा बन जाए।

बस यही अनुपम मिश्र ने पर्यावरण पर किया, जो उन्हें दूसरे से जुदा करता था। उन्होंने भाषा और साहित्य के साथ पर्यावरण को तो जोड़ा ही उन्होंने खुद को प्राचीन लुप्त पर्यावरण परम्परा से खुद को जोड़ा कर इतिहास रच दिया।



एक बानगी देखिए -- "आज भी खरे है तालाब" 

तालाब निर्माण करने वाली अनेकानेक जातियों में से एक है – गजधर. गजधर वास्तुकार थे. गांव-समाज हो या नगर-समाज, उनके नवनिर्माण की, रख-रखाव की जिम्मेदारी गजधर निभाते थे. नगर नियोजन से लेकर छोटे से छोटे निर्माण के काम गजधर के कंधों पर टिके थे. वे योजना बनाते थे, कुल काम की लागत निकालते थे, काम में लगने वाली सारी सामग्री जुटाते थे और इस सबके बदले वे अपने जजमान से ऐसा कुछ नहीं मांग बैठते थे जो वे दे न पाएं. लोग भी ऐसे थे कि उनसे जो कुछ बनता, वे गजधर को भेंट कर देते. काम पूरा होने पर पारिश्रमिक के अलावा गजधर को सम्मान भी मिलता था. सरोपा भेंट करना अब शायद सिर्फ सिख परंपरा में ही बचा है पर अभी कुछ ही पहले तक राजस्थान में गजधर को गृहस्थ की ओर से बड़े आदर के साथ सरोपा भेंट किया जाता रहा है. पगड़ी बांधने के अलावा चांदी और कभी सोने के बटन भी भेंट दिए जाते थे. जमीन भी उनके नाम की जाती थी. पगड़ी पहनाए जाने के बाद गजधर अपने साथ काम करने वाली टोली के कुछ और लोगों का नाम बताते थे, उन्हें भी पारिश्रमिक के अलावा यथाशक्ति कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी. (पृ. १८, आ.ख.ता.) 

"आज भी खरे है तालाब" हमारी लुप्त होती जल सम्पदा को दर्शाती पुस्तक है। जो कहीं न कहीं हमें इस भाव से भारती है कि हमारी लोक संस्कृति बेहद समृद्ध थी। इस पुस्तक में जलाशयों का ज्ञान ही नही बल्कि जिन्हें जलाशयों ज्ञान था उनकी लोक संस्कृति, अंधविश्वास, लोक मान्यताएं, लोक साधनाएं, मेले- ठेले ( जो अधिकाशतः मंदिर, तालाब, नदी आदि के पास लगते थे ) लोक विश्वास, जातियां, मिथक, खानपान, प्रेम, विवाह, न्याय, अन्याय इसमें संदर्भित है।

असल मे भारत मे लोक- मान्यताएं ही ऐसी है जिसमें कोई भी कार्य चाहें वह तालाब बनाने का हो या कुआँ खोदने का उसमें हमारे आपसी संबंध, खानपान, उत्सव, शामिल हो जाते है। इसे हम आज भी छत ढलते समय देख सकते है।

अनुपम मिश्र ने पर्यावरण को साहित्य में भी समेटा है जिसमें पुस्तक हैं--

◆राजिस्थान की रजत बूँदे

◆साफ माथे का समाज

◆ आज भी खरे है तालाब


"आज भी खरे है तालाब ब्रेन लिपि सहित तेरह भाषा मे प्रकाशित हुई है। इसकी एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं।


पुरुस्कार और सम्मान --

अनुपम मिश्र को २००९ में टेड ( टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित किया था।)

"आज भी खरे हैं तालाब" के लिए उन्हें २००११ में देश के प्रतिष्ठित 'जमनालाल बजाज पुरस्कार' से समानित किया गया था।

१९९६ में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार 'इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। उन्हें 'कृष्ण बलदेव वैद' पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।


प्रकृति सदा से है। सदा रहेगी। लेकिन संस्कृति मनुष्य का सृजन है। मनुष्य और अस्तित्व की प्रीति रीति और चित्त का संस्कार भी। अनुपम मिश्र को यह चित्त के संस्कार अपने पिता भवानी प्रसाद मिश्र से मिले थे। तभी उन्होंने संस्कृति के सतत सृजन कर्म और उसके सबसे बड़े फल भाषा को अपने कार्य का आधार बनाया। असल मे भाषा अद्भुत लब्धि है। लोक भाषा हमें गढ़ती है। बेशक हमनें ही भाषा गढ़ी लेकिन उस भाषा ने जिन मनुष्यों को गढ़ा उन्होंने भाषा को सामाजिक संपदा बना दिया। इसके सबसे बड़े उदाहरण अनुपम मिश्र थे। उन्होंने लोक भाषा के लोक व्यवहार से ही जाना कि एकाकी की कोई संस्कृति नहीं होती। इकाई होना दुख और अनंत होना आनंद है। इसलिए उन्होंने पर्यावरण के प्रश्न पर लोगों को जोड़ा साथ ही जोड़ा अपने साथ परंपरागत भाषा व्यवहार। जिससे उन्हें परंपरागत जल सहजने के तरीक़े, बाढ़ से निपटने के तरीक़े आदि पता चले।

उन्होंने लोक भाषा के माध्यम से लोक व्यवहार को और फिर पर्यावरण को समझा।असल मे वेद की ऋचाएं ही मानव और प्रकृति की प्रथम ध्वनियाँ थी। जो धीरे- धीरे लोक में बसी, और इसी लोक को पकड़ कर अनुपम मिश्र ने हमें हमारी भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व पर्यावरण से मिलवाया।

अनुपम मिश्रके लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि हम इस मिलन को स्थाई बना लें और पर्यावरण की इस धुन को सुनते रहे। जो कह रही है कि --

जलम् एव जीवनम् और लोक ही भारतीय अनुभूति का परम तत्व।






 

     

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Monday, November 14, 2022

भारतीय अनुभूति का प्राणतत्त्व -- प्राणवायु

नेशनल जियोग्राफिक की एक डॉक्यूमेंट्री देख कर उठी हूँ। चीन के प्रदुषण, भारत की घटती बारिश, मैक्सिको का जल संकट फ्लोरिडा अमेरिका के मौसम की विचित्रता और भी कुछ है लेकिन मैं घबरा कर अब भारत की राजधानी के राजपथ पर खड़ी हूँ भूलना चाहती देखा हुआ, जीवन को महसूस करना चाहती हूं। सांझ को विदा करना चाहती हूं सुबह का स्वागत करना चाहती हूं। 

लेकिन देखती हूँ धुंध में खोती जा रही हूँ हर तरफ धुँआ ही धुँआ, गैस चेम्बर में बदलता हुआ शहर की हालत देख जैसे ही गहरी सांस लेती हूँ तो तमाम जहरीले कणों व प्रदूषक गैसों का तमाम हिस्सा मन मस्तिष्क को जैसे हिला देता है। दिल मे गुबार होठों पर उदासी लिए मैं खोज रही हूँ उस जगह को जहां जाने पर सांसों को सुकून मिले दिल का गुबार निकले।
किसी शायर का शेर याद आता है कि

सांस लेता हूँ तो दम घुटता है
कितनी वे- दर्द हवा है।

ऐसा क्यों हुआ ???
कैसे हुआ ??
इस पर चिंतन करना बेमानी है। कैसे ठीक हो सिर्फ इस पर बात होनी चाहिए। इसलिए जान लेते है कि हमारी जान को जान आए वो चीज क्या है ? तो चलिए रूबरू होते है प्राणवायु से --

ऑक्सीजन या प्राणवायु या जारक रंगहीन, स्वादहीन तथा गंधहीन गैस है। यह एक रासायनिक तत्त्व है जिसके प्रारम्भिक अध्ययन में जे. प्रीस्टले और सी. डब्ल्यू . शेले ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। प्रिस्टले ने मर्क्युरिक - ऑक्साइड को गर्म करके ऑक्सीजन गैस तैयार किया।एन्टोनी लौवोइजियर ने इस गैस के गुणों का वर्णन किया तथा इसका नाम ऑक्सीजन रखा, जिसका अर्थ है 'अम्ल उत्पादक' ।

ऑक्सीजन अपने प्रकार का एक अलग और महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है वातावरण में पांचवा हिस्सा अक्सीजन का ही है अक्सीजन तकरीबन सभी तत्वों के साथ मेल कर सकती है संजीवों में ऑक्सीजन, हाइड्रोजन , कार्बन और अन्य के साथ मेल से रहती है मनुष्य के शरीर के भार का 2/3 हिस्सा पूर्णता ऑक्सीजन मिले तत्वों का ही है।

वैज्ञानिक व्याख्या है लेकिन इससे इतर प्राणवायु की विस्तृत व्याख्या हमारे ऋषियों ने की है प्राचीन ग्रंथ वेदों में। आइए जानते है जिसे हमारे ऋषि प्राणवायु कहते थे वो क्या है ? और कहाँ से गमन करती है ? 
प्राणवायु का मूल स्रोत सूर्य है, सूर्य से निःसृत ऑक्सीजन अर्थात प्राणतत्त्व समस्त विश्व को अनुप्राणित करता है। प्राणतत्त्व अति सूक्ष्म है। इसी का स्थूल रूप प्राणवायु है। प्राणों को स्थिर या संचालित रखने के इसी गुण के कारण ऑक्सीजन प्राणवायु कही जाती है।

क्या ऑक्सीजन के स्तर में वृद्वि ने प्राणियों के जीवन के विकास को बढ़ावा दिया है, या इसके विपरीत हुआ? यह एक बड़ा प्रश्न है जो जीवों के जीवन के लिए बेहद जरूरी है। यह मनुष्य के पशु- पक्षियों के कीट- पतंगों के इस पृथ्वी पर रहने रूपने की विकास यात्रा भी है।
नियोप्रोटेरोज़ोइक युग के दौरान ऑक्सीजन के स्तर में एक साधारण  वृद्धि के बजाय, वातावरण में ऑक्सीजन स्तर में काफी बदलाव आया है। दस लाख वर्षो में, ऑक्सीजन का स्तर 0•3 प्रतिशत रह गया है। वायुमंडलीय ऑक्सीजन का स्तर काम होना बेहद दुःखद है मनुष्य के लिए लेकिन डायनासोर जैसे जीवों के विलुप्त होने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

पृथ्वी और प्राणी के लिए के लिए बेशक यह महत्वपूर्ण है कि ऑक्सीजन का स्तर बढ़ाने पर विचार हो। पृथ्वी और प्राणी पर यह केंद्रित दृष्टिकोण है।
पृथ्वी पर ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत एक प्रक्रिया के जरिए ही पैदा हुआ जिसे प्रकाश संश्लेषण कहा जाता है। यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा पौधे और सूक्ष्म जीव सूर्य के प्रकाश पानी और कार्बनडाइऑक्साइड का उपयोग शर्करा के रूप में ऑक्सीजन और ऊर्जा बनाने के लिए करते हैं।
वायुमंडल में उपस्थति ऑक्सीजन की 60 से 80 प्रतिशत तक आपूर्ति समुद्र में तैरने वाले छोटे हरे पौधे से होती है जिन्हें 'प्लवक' (फयटोटले कटान) कहा जाता है। शेष अपूर्ति जंगलो से होती है। विशेषकर अमेजन के विशाल एवं संघन वनों से जिन्हें "धरती का फेफड़ा" कहा जाता है। 

एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में 03 खरब पेड़ है जो हर वर्ष 60 अरब टन ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। ऑक्सीजन के लिए पेड़ पौधों के निकट जाना कितना जरूरी है यह जितना जल्द आत्मकेंद्रित एवं भौतिकवादी इंसान समझेगा उतना ही अच्छा होगा।

वायु के महत्व को उल्लेखित करते हुए अथर्ववेद में कहा गया है कि वायु आकाशीय जल को सर्वत्र  पहुंचाने में सहायक होती है जिससे अन्नादि में समृद्वि आती है।
वेदों में वायु को सम्मान देते हुए कहा गया है कि वायु हमारी रक्षा करें
त्रायन्ता मस्तां गण:
अर्थात हे वायु हमारी रक्षा करो। प्रकृति में रहे असंतुलनों में वायु के रौद्र रूप जैसी आंधी तुफान से होने वाले नुकसान के प्रति वेदों में प्रार्थाना की गई है। कि हे वायु देवता हमारी प्रार्थना है कि आप हमेशा ही प्राणिमात्र के लिए अनुकूल रहें।
पञ्च वायु को पंच प्राणवायु के नाम से भी जाना जाता है। आकाशादि पञ्च महाभूतों के राजस अंश से समष्टि रूप में पंच वायु की उत्पत्ति होती।
एतत्प्रणादि पञ्च कमाकाशादिगतर जोडशोभ्ये मिलितेभ्य उत्पछते

जीव प्राणियों के शरीर मे विचरण करने वाली वायु ही पञ्च वायु है।
शरीर में प्राणादि पञ्च वायु के प्राण अदान, समान, त्यान और रसादि को प्रेरित करने वाली तथा सम्पूर्ण शरीर मे विचरण करने वाली त्यान वायु है। यह वायु स्वेद एवं रक्त का संचार करती है। इस वायु की पांच प्रकार की चेष्टाएं है-- 
१. प्रसारण
२.आकुंचन
३.विन्नमण
४.अन्नमन
५.तिथर्यम गमन
वायु को हम तीन तरह से समझ सकते है--
१. अधिभौतिक
२.आधिदैविक
३.आध्यात्मिक
आधिदैविक शब्द आधि उपसर्ग पूर्वक दिव धातु से निष्पन्न है। दिव का अर्थ है प्रकाशित करना या चमकना।
ऋग्वेद में वायु शब्द देवता का बोधक है। पाप विमोचक वायु समस्त पापों से मुक्ति दिलाने वाले है " विमुमुक्तमसमे।" ।
असीम शक्तियों के अधिवति होने के साथ- साथ वायु अमृत तुल्य भी है अतः वायु से प्रार्थना की गई है कि तुम्हारी जो आमरण की शक्ति है वह हमारे जीवन के लिए दो क्योंकि तुम हमारे पिता, भाई, और बन्धु हो। इस आमरण शक्ति के कारण ही तुम लोक कल्याणकारी कर्म में नियुक्त किये गये हो।
उपरोक्त बातों से हम समझ सकते है कि वेदों के ऋषि वायु के प्रति क्या अनुराग रखते थे असल मे उनकी यही संवेदनशीलता उन्हें न सिर्फ वायु जैसी जरूरी तत्व बल्कि सृष्टि के प्रत्येक तत्व के प्रति ग्रहणशील बनाती थी और ऐसा क्यों न हो क्योंकि पञ्च तत्व जीवनशक्ति, वाईटल फोर्स ही जीवन की सारी संभावनाओं को सम्भवन पर ले जाते है। इसलिए पञ्च तत्व प्राणऊर्जा है।

हे धावा पृथिवी, मधु मिमिक्षत्तम 

प्रकृति की सभी शक्तियां एक सुनिश्चित विधान में चलती है। ऋत नियमों से बड़ा कोई नही होता। वायु से आयु है। लेकिन दूषित वायु से आयु खोते हम जीवन- मरण के प्रश्न में उलझ गए है। 
विश्व का यह प्रश्न कितना जरूरी यह हम कोरोना काल मे देख चुके है। 
पूर्ण से पूर्ण को अगर घटा दिया जाए तब भी पूर्ण ही बचता है। यह प्राण को अगर समझना हो तो केवल आधात्म से ही समझा जा सकता है और प्राणवायु को भी। प्राण ब्रह्मांड का स्पंदन है। यह ब्रह्मांड ग्रहों व नक्षत्रों के माध्यम से सांस लेता है और मनुष्य भी अपनी सांसों के माध्यम से इस ब्रह्माण्ड से जुड़ा है प्राण के कारण ही जीव को प्राणी कहा जाता है और सांस को प्राणवायु।
जीवन नृत्य की शुरुआत क्या प्राणवायु बिना की जा सकती है। प्राण-वायु का संयोग जीवन और वियोग मृत्यु है। सघन वायु है तो गहन है जहां है तो अन्न है। शरीर के भिन्न अंगों में प्रवाहित पांच वायु का वर्णन चरक संहिता में आता है जो हमारे विनाश और विकास, सुख और दुख का भी कारण बनती है।
 
ऑक्सीजन का महत्व एवं उपयोग --
१.धातुओं को जोड़ने एवं तोड़ने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।
२.ऑक्सीजन जल में घुलनशील होती है जो श्वसन के लिए उपयोगी है।
३. वो लोग जो पर्वतारोही होते है वो अथवा अधिक ऊंचाई पर उड़ान में  सिलेंडर का उपयोग किया जाता है।
४.रॉकेट ईंधन में द्रवित ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।
५.सल्फर से सल्फ्यूरिक अम्ल व अमोनिया से नाइट्रिक अम्ल के उत्पादन में ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।
६. वैल्डिंग के लिए प्रयुक्त की जाने वाली ऑक्सी-- एसिटिलीन में भी ऑक्सीजन का प्रयोग होता है।
७.सल्फर से सल्फ्यूरिक अम्ल व अमोनिया से नाइट्रिक अम्ल के उत्पादन में ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।

इन उपयोग से भी बढ़कर ऑक्सीजन का उपयोग प्राणों को संजोने के लिए किया जाता है । जीवों की उत्पत्ति उनके जीवित रहने के लिए इस प्राणवायु का होना कितना जरूरी है यह बताने की जरूरत नही। अब जबकि हम प्राकृतिक युग से निकल कर भौतिकयुग में भटक रहे है और कोरोना जैसी महामारी से दो- चार हो चुके है तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि माशूका की सांसों की खुशबू के आगे की महत्वपूर्ण चीज है ऑक्सीजन या प्राणवायु सभी प्राणियों का जीवन है इसलिए शेर सिर्फ सांसों तक नही जीवन की आस तक हो, नही तो जीवन नृत्य की शुरुआत, शुरुआत होने से पहले ही खत्म हो जाएगी।

 वो कहा गया है न कि -
पहली साँस पे मैं रोया या आख़िरी साँस पे दुनिया
इन साँसों के बीच मे हम ने क्या खोया क्या पाया।

मनुष्य प्रकृति का योग है। शरीर प्रकृति की शक्तियों से ही निर्मित है। शरीर को त्यागकर प्राणवायु सूत्रात्मा को प्राप्त होने की चाहत भारतीय मरणोन्मुख साधक की प्रार्थना है लेकिन जीवन से मृत्यु के बीच जो हम ठहरे रहते है उसके लिए प्रार्थना ऐसी हो जिसमें पांच तत्वों का सर्जन होता रहे क्योकि इन तत्वों का विसर्जन प्रत्यक्ष मृत्यु है। मृत्यु के बाद प्राण वायु से जा मिलते है लेकिन उससे पहले जीवन की बात करें ,वायु से ही हम तक प्राण आते है तो यह जरूरी हो जाता है कि वायु शुद्ध हो।

जीवन उत्सव को कायम रखने के लिए यह जरूरी है कि शरीर मे वायु की उपस्थिति शुद्ध हो सही मात्रा में हो। प्राण मूल शक्ति है उनकी शक्ति वायु है। प्रकृति से सतत सृजन इन से ही चलता है। ऋग्वेद में सृष्टि सृजन के पहले देवता नही है लेकिन प्राण है। ऋषि कहते है दिन - रात भी नही है, लेकिन साँस है मतलब वायु है।

अनादीवातं स्वधया...
दो तरह की वायु हमारे पास है एक मनुष्य के शरीर को संचालित करने वाली और दूसरी अनिल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त वायु। हमारी वायु जब अनिल से मिलती है तो हम जीवन- मरण के चक्र से झुटते है। यद्यपि जीवधारी में विद्यमान वायु सम्पूर्ण प्रकृति की वायु से भिन्न नहीं है लेकिन जीवधारी में विद्यमान वायु शरीर बन्धन में है और प्रकृति में सब तरफ उपस्थित वायु सर्वव्यापी है। यह और कुछ नही अनुभूत प्राण है। प्राणियों को पुनर्नवा प्राण शक्ति देते है और जगत का प्राण समृद्ध होता है। मनुष्य के भीतर की वायु को प्राण, अपन, समान,व्यान और उदान कहा गया है। यह एक प्राण ही पाँच रूप में कहा जाता है।
मनुष्य में प्राण है इसलिए वह प्राणी है । सारी शक्तियां प्राणवायु के कारण ही किसी न किसी रूप में बनी रहती है।हमारा लेहकन महकना प्राणवायु की देन है। यह ऐसा देव है जो अंधविश्वास नहीं प्रत्यक्ष अनुभूती है।

प्राण अग्नि है, यही सूर्य है ,यही पर्जन्य- वर्ष्या के मेघ है और यही वायु भी है। प्राणवायु को अनेक आयामों में हमें देखना चाहिए अंतर्जगत का भाव बनाना ध्यान देने योग्य है।
भारती ऋषि तभी तो बारम्बार 'नमस्ते वयो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रहमासि, त्वामेव प्रत्यक्ष ब्रहा वदिष्यामि।' कहते नही थकते। वो इसे सर्वशक्तिमान यूँ ही तो नहीं बताते।क्या अब भी आप कहेंगे भारतीय अनुभूति का ब्रह्म अंध आस्था है ? मैं कहूंगी यह प्रत्यक्ष है।

मानव की प्रथम ध्वनि बनी रहे, जीवन उत्सव यूँ ही चलता रहे, साँस, साँस ॐ का उदघोष होता रहे। मानव जाग्रत बना रहे पंच तत्वों के प्रति, पंचघा स्वरूपों में प्राण जगत से सम्बद्ध रहे । यही हमारी सयुक्त प्रार्थना हो। यही शिव संकल्प है--
तन्मे मन: शिव संकल्पमस्तु ।













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Friday, June 17, 2022

आषाढ़ की आस

 आषाढ़ बनकर ही अधर के पास आना चाहता हूं

मैं तुम्हारे प्राणों का उच्छ्वास पाना चाहता हूं।💚

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आषाढ़ तो धरती और अंबर का मिलन दिवस तो  आइए हम इस मिलन दिवस के गवाह बने, फागुन के लड़कपन और सावन के यौवन में डूबे आषाढ़ को धरती के ताप को हर लेने दीजिए। गर्मी की कसक को अगर कम करना है तो आषाढ़ को ठसक के साथ आने दीजिए इसलिए जरूरी है कि पर्यावरण को लेकर हम सब बेहद जागरूक हो जाएं।

तो ज्येष्ठ की रोहिणी की तप्तता को मृग की बौछार संतृप्त करें और प्रकृति हरीतिमा के गीत गाये, धारा- अंबर एक हो तभी तो किसी दूर गांव की हरियाली पर आषाढ़ की बून्दे देख कोई किशोरी अपनी सखी से कहेगी-

कारी सियाही बदरी, झक झालर आयो मेह

बरसे आषाढ़ी मेहरा,कोई कोई उत बालम परदेश।

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Saturday, June 11, 2022

तपती धरती बदलता मौसम

सत्यम वृहदृमुग्नम दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवी धारयन्ति सा नो भूतस्य भव्यस्य पल्युमरू लोक प्रथिवी नः कृनोती ।

(पृथ्वी ने भूत काल में जीवों का पालन किया था और भविष्य काल में भी जीवों का पालन करेगी। इस प्रकार की पृथ्वी हमें निवास के लिए विशाल स्थान प्रदान करे। ) 

आह्वान करते ऋषियों ने कहां सोचा था कि हम जिन पीढ़ियों के निवास के लिए पृथ्वी पर विशाल स्थान मांग रहे है उन्हें इस स्थान की कद्र ही नही होगी। वो पृथ्वी को अपना अस्थाई घर ही मानेंगे। आज सारी पृथ्वी रोष में है पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। पृथ्वी, आकाश, जल,जंगल को प्रदूषित कर दिया है। पेड़- पौधे कट रहे है, वनस्पतियां खत्म हो रही है, कीट- पतंगे तितलियां गायब हो रहीं है। गौरैया मर रहीं है।

सावन में धमक नही ,फागुन में महक नही, , वसंत हताश है , भादों में बारिश की आस है।गंगा निराश है, यमुना उदास है । विकास के उद्योग से प्रकृति का विनाश है।

सयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म ईंधन पर वर्तमान समाज की निर्भरता पृथ्वी को इस तेजी से गर्म कर रही है जो पिछले दो हजार वर्षों से अभूतपूर्व है। इसके प्रभाव के कारण वर्षा की कमी यानी सूखा, जंगल की आग, बाढ़ के रूप में देख सकते है।

आईपीसीसी के आंकलन के अनुसार ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के कारण स्थितियां और भी गंभीर होने वाली है।  1850- 1900 के औसत की तुलना में पृथ्वी की वैश्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है।

 जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं।कई प्रभाव अपरिहार्य हैं और दुनिया की सबसे कमजोर आबादी को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे। तो पृथ्वी की जलवायु मानव अनकूल करने के लिए क्या किया जाए ? ये जानने के पहले आइए ये जान लें कि जलवायु परिवर्तन क्या है ?

जलवायु परिवर्तन मौसमी दशाओं के बदलाव को कहते है जो दीर्घ कालीन होता है । यानी  किसी विशेष स्थान के लिए आमतौर पर कम से कम 30 वर्षो के मौसम  का औसत पैटर्न होता है। मुख्य रूप से, सूर्य से प्राप्त ऊर्जा के कारण ही पृथ्वी की जलवायु का निर्धारण एवं तापमान का संतुलन निर्धारित होता है। यह ऊर्जा हवाओं, समुद्र की धाराओं एवं अन्य तंत्र द्वारा विश्व भर में वितरित हो जाती है तथा अलग- अलग क्षेत्रों की जलवायु को प्रभावित करती है।

 पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है और यही ऊर्जा इसकी सतह को गर्माती है। इस ऊर्जा का लगभग एक तिहाई भाग पृथ्वी को घेरने वाले गैसों के आवरण, जिसे वायुमंडल कहा जाता है, से गुजरते वक्त तितर-बितर हो जाता है। इस प्राप्त ऊर्जा का कुछ हिस्सा धरती और समुद्र की सतह से टकराकर वायुमंडल में परावर्तित हो जाता है। शेष हिस्सा, जो लगभग 70 प्रतिशत होता है, धरती को गर्माने के लिए रह जाता है। इसलिए, संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सौर ऊर्जा का कुछ भाग पृथ्वी से वापस वायुमंडल में परावर्तित हो, वरना धरती असहनीय रूप से गर्म हो जाएगी। 

वायुमंडल में भी जलवाष्प और कार्बन डाइऑक्साइड सरीखी कुछ गैसें इस परावर्तित ऊर्जा के कुछ अंश को सोख लेती हैं जिससे तापमान का स्तर ‘सामान्य सीमा’ में रखा जा सके । इस ‘आवरण प्रभाव’ की अनुपस्थिति में पृथ्वी अपने सामान्य तापमान से 30 डिग्री सेल्सियस अधिक सर्द हो सकती है।

चूंकि जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसें हमारे विश्व को गर्म रखती हैं, इसलिए इन्हें ‘ग्रीनहाउस गैसें’ कहा जाता है। यहां यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण हैं कि इस प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ की अनुपस्थिति में हमारे ग्रह का औसत सतही तापमान यहां जीवन के लिए प्रतिकूल होता और इस ग्रह पर भी जीवन की संभावना नही रहती।

जलवायु परिवर्तन के वैश्विक खतरे--

◆ विश्व ने अपना कार्बन स्पेस दो तिहाई इस्तेमाल कर लिया है, जबकि पैतीस प्रतिशत जीवाश्म ईंधन के भंडार की खपत एवं वैश्विक जंगलों के एक तिहाई हिस्से को काटा गया है ।

◆ वर्ष 1750 के बाद से विकसित देशों ने ऐतिहासिक उत्सर्जन का 65 फीसदी के आस- पास उत्सर्जित किया है ।

◆कीप द क्लाइमेट, चेंज द इकोनॉमी के अनुसार पारम्परिक जीवाश्म ईंधन भंडार का उपयोग करके एवं जंगलो को एक तिहाई काटते हुए विश्व वातावरण से 2,000 Gtco2e बाहर निकाल चुका है।

◆हर साल लगभग दस बिलियन मैट्रिक टन कार्बन वायुमंडल में छोड़ा जाता है।

भारत में होने वाले खतरे---

◆वर्ष 2018 में एचएसबीसी ने दुनिया की 67 अर्थव्यवस्थाओं पर जलवायु परिवर्तन के खतरे का आंकलन किया उसमें कहा गया कि मौसम के बदलाव का भारत मे व्यापक रूप से असर पड़ेगा। ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को क्षति हो सकती है जो कई लाख करोड़ तक जा सकती है।

◆जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव कृषि पर होगा क्योंकि भारतीय कृषि मानसून पर आधारित है । जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून में अनिश्चितता उत्पन्न होगी असामान्य  मानसून के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ जैसी स्थितियों का सामना करना होगा ।

◆भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार प्रति एक सेंटीग्रेट तापमान बढ़ने पर गेहूं के उत्पादन में चार से पांच मिलियन टन की कमी होती है। इसके साथ ही परागणकरी कीटों जैसे तितलियों, मधुमक्खियों की संख्या में कमी से कृषि उत्पादन नकारात्मक रूप में दिखाई देगा।

◆ जलवायु परिवर्तन पर भारत सरकार की अब तक की पहली रिपोर्ट कहती है कि सदी के अंत तक ( 2100 तक) भारत के औसत तापमान में 4. 4 डिग्री की बढ़ोतरी हो जाएगी जिसका सीधा असर लू के थपेड़ों और चक्रवर्ती तूफानों की संख्या बढ़ने के साथ समुद्र के जल स्तर के उफान के रूप में दिखाई देगा। मौसम विस्मित है और शायद रूठा हुआ भी । हवा में co2 का स्तर बढ़ रहा है तापमान में वृद्धि हो रही है, ग्लेशियर पिघल रहें है। ढेरों प्रजातियां खतरें में है। सांस को आस नही है, तो अब क्या करें ? आइए छोटी- छोटी कोशिशों से इस खतरनाक प्रक्रिया को धीमा करें और उम्मीद रखें कि मौसम एक बार फिर खुशगवार होगा। 

◆कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने, हवा की गुणवत्ता में सुधार करने, तापमान को कम करने, जैव विविधता को सरंक्षित करने के लिए पेड़ लगाइए। ये साधारण लग सकता है लेकिन ये पर्यावरण के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। 

◆कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने के लिए और तापमान को कम रखने के लिए महासागरों को संरक्षण दें। समुद्र तटों को प्रदूषित न करें। मछली को खाद्य रूप में कम अपनाएं। 

◆ ऊर्जा दक्षता में सुधार करें। फोटोवोल्टिक सौर पैनलों का उपयोग करें, एलईडी बल्बों का चयन , पुराने उपकरणों को बदलना आदि। 

◆हरित ऊर्जा का उत्पादन 

◆हाइब्रिड या इलेक्टिक कार,परिवहन के लिए सार्वजनिक साधनों का उपयोग,कम दूरी के लिए साइकिल जैसे वाहन का उपयोग। 

◆प्लास्टिक के उत्पादन का कम उपयोग। 

◆कचरे का सही ढंग से निपटान। 

◆अक्षय ऊर्जा बहुत ही महत्वपूर्ण है। 

◆शाकाहार अपनाएं । 

◆स्थाई आदतें विकसित करें।छोटे और स्थानीय व्यवसायों का विकल्प चुनें, शिल्प उत्पाद खरीदें और गुणवत्ता और स्थायी वस्तुओं में निवेश करें। प्रकृति की सभी शक्तियां एक सुनिश्चित विधान में चलती है। ऋत नियमों से बड़ा कुछ भी नही । आज जीवन- मरण के प्रश्न में उलझे हम भूल ही गये लोक रीति तुलसी पूजा, पीपल पूजा और वटवृक्ष की पूजा के तत्व वन संरक्षण से ही जुड़े हुए हैं। गांवों में आज भी पेड़ काटने को पाप और वृक्षारोपण को पुण्य बताया जाता है। नदियों के दीपदान का अर्थ नदी का सम्मान करना है। यज्ञ हवन के कर्मकाण्ड रूढ़ि नहीं हैं, इनमें प्रकृति की प्रीति और वातायन शुद्धि की ही आकांक्षा है। पर्यावरण संतुलन से तात्पर्य है जीवों के आसपास की समस्त जैविक एवं अजैविक परिस्थियों के बीच पूर्ण सामंजस्य। ऐसा सामंजस्य जिसमें कुछ भी अवांछनीय न हो ताकि जल वायु भूमि के प्रदूषण की समस्या न हो। हमारे भौतिक शरीर मूल रूप से पाँच तत्वों - मिट्टी, पानी, हवा, आग और आकाश - से मिल कर बने हैं पर मिट्टी इन सब में एकदम मूल और स्थिर तत्व है इस स्थिर तत्व की गुणवत्ता को बनाए रखिए ये जीव के लिए बेहद जरूरी है। 

प्रकृति में रूप है, रास है, गंध है, ध्वनियां है उन्हें अवध्वस्त न होने दें।जल, जंगल, जमीन, वनस्पति, हवा सभी मे स्वच्छता हो मधुरता हो ये आह्वान जरूरी है पृथ्वी को अकक्षुण रखने के लिए जीव को बचाने के लिए।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥8॥

मधुमान् नः वनस्पतिः, मधुमान् अस्तु सूर्यः, माध्वीः गावः भवन्तु नः ।





Sunday, May 1, 2022

लोरी

अँधेरे समय ने तुम्हारे हाथों  से छीन कर 
पतंग की डोर और फेक कर कंचे
रख दिये कुछ निशान गाँठों की शक्ल में, 
खेल के मैदान से दूर तुम अब कैद हो 
अब नहीं सुनाई देते तुम्हें स्कूल के घंटे 
बस सुनाई देती है सायरन की आवाज 
जो तुम्हारे दिमाग की अंधेरी गुहा में फोड़ा बन तुम्हें टीसता है 

यातना का सांघातिक प्रभाव लेकर अपने मन में
तुम अपने आप से भी बोलते नहीं 
तुम्हारा दुःख अब तुम्हारी भाषा है 
और तुम्हारी देह जिह्वा है 

तुम्हारी ढेर  सारी  जिज्ञासा तुम्हारे हथोड़े  के नीचे दम तोड़ गई है 
और तुम्हारा हँसना तुम्हारे पिता की बोतल में कैद, 

तुम्हारे हाथ पकड़ना चाहता है बचपन 
लेकिन हर बार काम से अटे होते है हाथ
आँखे देखना चाहती है रंग-बिरंगे सपने पर थकान से बोझिल होती है, 

धीरे-धीरे तुम्हारे सपने को ले उदास निराश बचपन 
समा जाता है एक और अंधेरी गली में 
जहां दिनों दिन दिन के उजाले में तुम 
थामे बैठे हो अंधेरे का हाथ

खांसते खखारते तुम अपनी आंखो पर फेरते हो हाथ 
छूना चाहते हो अपने  फूले  हुये गाल 
पर वो अब हड्डियों की शक्ल में यम को न्योता दे रहे है, 

अब तुम्हारी आँखों में हर चीज धुंधली हो रही है 
तुम नींद के मुहाने पर खड़े अपनी शिथिल देह को देख रहे हो 

सो जाओ बचपन 
तुम मुक्त हो हर मजदूरी से हर मजबूरी से 
कभी न जगाने के लिए सो जाओ 
तुम्हारे सारे सपने मैं तुम्हारे साथ विसर्जित करती हूँ 
इस अंधे युग की हर पीढ़ा से हो कर मुक्त चैन से सो जाओ।