Thursday, February 29, 2024

ब्रह्माण्ड का घोषणा - पत्र एवं अन्य कविताएँ

 प्रत्यक्ष अस्तित्व की आंतरिक गतिविधियों का परिणाम यह मेरा पहला काव्य- संग्रह है। ब्रह्मांड का घोषणा- पत्र एक संकेत है ऋत को जानने का जिसके माध्यम से हम दैनिक जीवन में नियमबद्ध होते हैं। प्रचलित के अलावा भी एक चलित तत्त्व  इस ब्रह्माण्ड में है जिसकी खोज सतत चलती रही उसी पथ पर खड़े होकर मैंने कुछ लिखने का प्रयास किया है, आशा करती हूँ इस लोक रचना की संतृप्ति का सुख आप सब को भी मिलेगा।


पुस्तक के इतने  सुंदर और अर्थयुक्त आवरण पृष्ठ को आज महाष्टमी के दिन लाने के लिए श्री केशव मोहन पांडेय जी का हार्दिक आभार।


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Sunday, December 31, 2023

ब्रह्माण्ड का घोषणा पत्र

 प्रत्यक्ष अस्तित्व की आंतरिक गतिविधियों को समझने के प्रयास में अंतकरण में अनेक अनुभव आते हैं । समझने के प्रयास में अनेक कविताएं स्वतः स्फूर्त प्रकट हो जाती हैं । ऐसी कविताएं हमारे प्रयास का परिणाम नहीं होती है। बल्कि वह भीतर ही भीतर स्वयं रचती हैं । रचनाकार उन्हें सिर्फ अपनी ओर से संवारने के क्रम में कुछ शब्द देता है। शब्दों का  आत्मिक संयोजन 'ब्रह्मांड का घोषणा-पत्र एवं अन्य कविताएँ'  है।   

Wednesday, November 29, 2023

कॉसप्लेयर्स

मन का अंधकार ले साहित्य का अंधकार दूर करने निकले अपने- अपने विचार को सर्वोत्तम बताते एक मीडिया मंच पर लड़ते धाराओं के साहित्यकार आत्मचेतना और मूल विचार से कोसो दूर सिर्फ लिखे हुए को पुनः लिख कर अभिमान में गरज रहे थे और 
पृथ्वी हँस रही थी
अपनी पूरी घृणा के साथ

प्रकृति से मनुष्य का संबंध बदल गया
हमारा ही सर्वाधिक सत्य और हमारा आंतरिक सारतत्व ही पृथ्वी को भरपूर जीवन- सौंदर्य दे सकता है। इस बात को हम समझना ही नही चाहते। दुनिया मे किसी भी दर्शन को पढ़ा जाए या किसी कवि या लेखक को मनुष्य और प्रकृति का सर्वोच्च सत्य यही है। 

द ट्रायम्फ ऑफ लाइफ कविता का आरंभ करते शेली इसी सत्य की बात करते दिखाई देते है। वहीं दूसरी ओर एंगेल्स अपने चेतन स्वरूप जिसे वे idea कहते है को पहचान कर उसकी सर्वजयी शक्ति का उद्घोष  करते दिखते है।

मीडिया मंच के इस तरह के कार्यक्रम का हासिल क्या होता है यह बताने की जरूरत नही लेकिन कम से कम मीडिया मंच इतना तो करे कि ज्ञान उड़ेलने वाले ज्ञानियों के ज्ञान के ज्ञान को एक बार टटोले तो तब उन्हें मंच दे।
और आदरणीय मंचीय साहित्यकार आप भी सचेत हो भावी पीढ़ी का मन प्रश्नाकुल है तो आप भी प्रीतिकर तर्क प्रतितर्क करना सीख लीजिए , क्योंकि अब विरूपित तर्क नही चलेगा।
दर्शन और काव्य की सुदीर्घ परम्परा से सीखने का प्रयास कीजिये। ज्ञान का ज्ञान आपको बेहतर वक्ता बनाएगा। तब आपको सुनने का आनन्द वरीय होगा।

साहित्य में सारा भावबोध कवियों, लेखकों का है। विचार के साक्षात्कार के लिए मनुष्य को पहले स्वयं को जीतना होता है तभी उसे विचार के दर्शन होते है।
अपनी चेतना और अनंत अक्षय विचार में अगर अन्तर नही रखना है तो पहले आत्मचेतना के उपाय करें तथाकथित महान साहित्यकार नही तो आगे से आने वाली पब्लिक वही कहेगी जो मेरे एक मित्र ने प्रश्न के उत्तर में कहा था 

Everything was a Funny in literary democracy

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#किरणमिश्रा

Thursday, May 25, 2023

उदास मन पर चिपकी हुई चीखों के शव के मानिंद कविताएं -डॉ किरण मिश्रा (बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ)

“बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ” अनिल अनलहातु की ऐसी पुस्तक है जिसे हम कालकथा कह सकते है, इसमे रची- बसी उनकी कविताएँ उनके तीखे अनुभव- संघर्ष का दस्तावेज है।उनकी कालकथा अतीत- बोध से शुरू होकर वर्तमान- बोध तक आती है। स्मृति- बिम्ब के रूप में टुकड़े- टुकड़े में आए अतीत कवि के मानवीय पीड़ा से बने लगते है जो गूँगे लोगों की एक सदी की अभिव्यक्ति हैं।अनिल अनलहातु की कविताएँ उनके गहरे सामाजिक चिन्तन को दर्शाती है। उनके जीवन-जगत के साथ सम्बन्धो व कर्तव्यों के सम्बन्ध में किये गये सम्पूर्ण विचार उनकी कविता में गहरे से आते है। कविता में उनका चिन्तन एक सुनिश्चित स्थान या समय पर न होकर यत्र – तत्र  बिखरे हुए किरदारों को लेकर है जो समाज के सब से नीचे के पायदान से है।उनकी कविता पढ़ते हुए आप सामाजिक चिन्तन के विकास के विभिन्न चरणों मे पहुंच जाते है। कहीं उनका धार्मिक चिन्तन है तो कहीं दार्शनिक, कहीं अचानक वो मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समाज को देखते है तो कहीं उनका भौतिकवादी चिन्तन, उन्हें समाज मे फैले आत्मकेंद्रित दृष्टि में डूबे लोग नज़र आते है। फिर अचानक ही वो सामाजिक - वैज्ञानिक दृष्टि से समाज की समस्याओं का विश्लेषण अपनी कविताओं में करते दिखाई देते है।यहां पर अनायास ही मुझे इंग्लैंड की वरिष्ठ कवियत्री कैथनीन रैन की बात याद आती है कि भारत ही एक ऐसा देश है जहां धर्म की उत्पत्ति के मूल में काव्य है और जहां की संस्कृति और सभ्यता के आधारभूत मूल्यों की रचना ही कवि प्रतिभा के माध्यम से हुआ है ।मुझे लगता है संस्कृति और सभ्यता के खोये हुए मूल्यों की पुनर्स्थापना ही बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ है। भौतिक साधनों की दृष्टि से अक्षम मनुष्य उनकी कविताओं में ऐसा प्राणी है जो समाज के कार्य- व्यापार के समक्ष निरीह है। जिसकी आवाज कहीं गुम है , उस गुम आवाज़ को खोजने की क़वायद ही यह कविताएँ है।अनिल अनलहातु की कविताओं में तर्क प्रधान है । वह अपनी कविताओं में कहीं- कही कार्य कारण संबंधों की स्थापना करते दिखाई देते है। सामाजिक प्रघटनाओं को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखते और एक नई समाजवैज्ञानिक विचारधारा को लेकर कविता रचते है।

जब आप 'बाबरी मस्जिद व अन्य कविताएँ' पढ़ना शुरू करते है, तब वह सिर्फ एक कविता की किताब होती है और जब आप पढ़ना समाप्त करते है तब भी शायद वह आपको एक कविता की ही किताब लगे लेकिन अचानक ही आप उसे फिर से पढ़ेंगे और इस बार पढ़ने की प्रक्रिया में आपको ऐसे अनुभव होंगे, ऐसे- ऐसे दृश्यों से आपका सामना होगा कि आप लगातार उन पात्रों के दर्द, बेचैनी में उनके साथ होते है। उनकी कविताओं के पात्रों के कोई नाम न हो, चाहें वो अपनी पहचान के संकट से जूझ रहे है लेकिन यह नाम रहित पात्र कविता से निकलकर आपके पास जब आते है तो बिना कुछ कहे अपने मौन से आपकी शांति, गर्व और आपके मनुष्य होने पर प्रश्नचिन्ह लगाकर आपके 'मैं' को हिलाकर  वापस कविता में चले जाते है और पीछे छोड़ जाते है आपके मरे हुए अहंकार को।उनके पात्रों का आप कोई भी नाम रख लीजिए , किसी भी नाम से आवाज दीजिए उन्हें, वो इतिहास से गायब है , अब वो आप के आस- पास है लेकिन यकीन मानिए, आप , हम ,हम सबकी लोलुपता के कारण वो इतिहास से फिर गायब हो जाएंगे और वर्तमान में वहीं पाए जाएंगे जहां आप जाति, गोत्र, पन्थ, मत और मज़हब में स्वयं को सम्पूर्ण मानवता का अविभाज्य अंग मानते है। वो उन बेशर्म परम्पराओं से टकराते दिखेंगे जहां असमानता के तत्व समत्व के मूल तत्व पर हावी हैं। या फिर चुनौती देते दिख जाएंगे ब्राह्मणवादी सोच को ।यह कवि की धृष्टता है ,या है कि उसका अपना संघर्ष कि कवि उन्हें आप के आस- पास से ही आप तक भेजता है। जो इतिहास में नही वे सिर्फ कवि के पास ही जा सकते है।यहां पर एक ध्यान देने की बात और है कि ऐसा नही है कि सिर्फ अनिल अनलहातु ही अपनी कविता में हाशिये में पड़े लोगों के लिए दरवाजा खोलते है, अन्य रचनाकार भी ऐसा करते है लेकिन अनिल अनलहातु की कविता के पात्र उस दरवाजे से आपके दिमाग पर चोट करते है, और तब तक करते है जब तक कि आप आत्मकेंद्रित स्वार्थी दुनिया से निकलकर आपको मनुष्य होने का बोध नही कर देते है और बहुत ही मजबूती से मनुष्य होने और न होने के बीच अपने मूलभूत प्रश्नों के साथ खड़े हो जाते है। कवि कोई इन्द्रजाल नही रचता लेकिन यह कवि की लेखन शैली का कमाल है कि आप उनकी कविताएँ पढ़ते हुए गहरे सम्मोहन में चले जाते है और खुद ही दृष्टा व दृश्य हो जाते हैं।उनकी कविता द्वन्द हैं, जड़- चेतन का द्वैत है, ढेर सारे कालजयी प्रश्न है, ढेर सारी जिज्ञासाएँ हैं। ढेर सारी इच्छाएं हैं। प्रीतिकर कथा है।जीवन सत्य की खोज है। कविता में उठे कवि के प्रश्न भारतीय दर्शन, समाज जीवन और मनुष्य होने का सारभूत तत्व विश्लेषण हैं।

उनकी कविताएं आत्म रूपान्तरण देती है । आप आम आदमी, ईश्वर, मनुष्य की प्रकृति और सृष्टि, दृष्टि पर उनकी कविता पढ़कर दार्शनिक सवाल खुद से करने लगते है और जिज्ञासु  बन आपका मन प्रश्नाकुल बन जाता है। यह अव्याख्येय और अनिर्वचनीय ' सत्य' को भाषाबद्ध करने का कवि का आश्चर्यजनक कविकर्म हुआ है। सत्य प्राप्ति की पीड़ अगर आप मे गहन है तो यह कविता आपके लिए हैं। यह कविताएँ रचनाकार से भी प्राचीन है । यह शून्य से नही उगी बल्कि यह प्रशनाकुल संस्कृति परम्परा से उपजी है।

उन्हें पढ़ना आकस्मिक ही हुआ लेकिन यह शायद इसलिए भी था क्योंकि दिमाग मे लगातार एक प्रश्न था कि हमारे दिनों में  कौन सी ऐसी कविता है जो पाखंडी दुनिया को अपनी चीख के साथ उठने और मंथन करने पर बेबस कर रही हैं। और कविता पढ़कर मुझे बहुत ही विस्मय हुआ और गर्व भी की कवि की कविताएँ समकालीन निर्णयों  को चाहें ख़ारिज न भी करें लेकिन युगों के निर्णयों को अपनी दृष्टी से देखने का साहस करती है। बक़ौल उदय प्रकाश अनिल अनलहातु की कविताएँ मुक्तिबोध की कविताओं की पंक्ति में जगह बनाती है। मैं इसमें जोड़ना चाहूँगी और अपनी अपरिवर्तनीय घोषणा करती है। वे खुद से लड़ते- लड़ते लिखते है और लिखते- लिखते लड़ते है बिना किसी संगठित पंथ का राजमार्ग तलाशते चलते है भविष्य घटित करने को।बाहर और भीतर के यथार्थ का अंकन करते अपनी थकान, अकेलेपन, बेबसी, अनपहचानेपन की साक्षी हैं यह कविताएँ इन्हें सिर्फ पढ़ा नही स्मृतियों में भी रखा जाना चाहिए ।

◆मानवीय पीड़ा का ज़िगुरत—आदिम ज़िन्दगी की आधुनिक हत्या की कहानी है यह कविता

यह कहने से पहले की लेखक ने यथार्थवादी प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों को अपनी कविता में व्यक्त किया है, मैं कविता के शीर्षक ' ज़िगुरत' शब्द का ध्यान दिलाना चाहूँगी। वैसे तो 'ज़िगुरत' का अर्थ कवि ने कविता के अंत मे राजा उर नाम्मू द्वारा निर्मित 'सिन' (चंद्रमा) देवता का मंदिर बताया है लेकिन जैसा कि यथार्थवादी कविता में अनुपस्थिति का महत्व है और भाषा का मौन ही अपनी बात कहता है तो यहां द्रष्टव्य रहे कि दुःख हर बार विध्वंस होता है नये दुख से।कविता में दुःख मूल तत्व है जो भावात्मक घटनाओं की नकारात्मक संयोजकता बनाता है। पूरी कविता में जीवन एक घटना है जो पुनः पुनः प्रेषित होता है। कवि मूर्मु के अप्रत्यक्ष दुःख को प्रत्यक्ष बना पाठकों के सामने लाता है।अनिल अनलहातु अपनी कविता में Noumen की बात करते नज़र आते है। Noumen एक घटना है जो स्वतंत्र रूप से मानव भावना है।'मानवीय पीड़ा का ज़िगुरत' कविता निराश, हताश का हवन कुंड है जो कर्तव्य के इर्द- गिर्द घूमती है यहाँ कर्तव्य वह कर्तव्य है जो मकलू मूर्मु को जन्म जात मिला है या इस वर्ग को मिलता है एक बेबसी के साथ --

“सिल हुए होठों, खौफजदा बरौनियों

उदास  लंबोतरे चेहरे पर चिपकी

अवश बेबसी व बेकली के बीच भी

ज़िन्दगी जीने की गहरी ललक

(हम विस्मित थे)”


मूर्मु की ज़िन्दगी जीने की सभी क्रियाएं एक अंत निर्हित रुदाली है जो वह जन्म लेते ही शुरू करती है अपने मारने तक।मूर्मु के अधिकतम पर ध्यान केंद्रित करता कवि है  उसे ग्वाटेमाला से एंडीज तक और दुमका गोड्डा के आदिम जंगलों और घरों के शयन कक्ष तक देखता है।अंतिम दो पंक्तियों में कवि बिम्ब का सामान्यीकरण करता दिखाई पड़ता है --

उसके होठों पर हँसी देखना

एक लम्बा और उबाऊ इन्तज़ार है


कवि अपनी अर्ध- चेतना में मूर्मु के दुःख उसकी अनुभूति को इतनी गहराई से महसूस करता है कि कहीं कहीं तो अनुभूति कवि के मानसिक धरातल पर हुए विस्फोट के मलबे लगते है जिन के टुकड़े- टुकड़े जोर कर रचनाकर्म हुआ है। कवि के शब्द दृश्य से जुड़ा तीखा और त्वरित असर करने वाला है कि एक गहरी उदासी छोड़ जाता है।हमारे पीड़ित या पीड़ा के प्रति दृष्टिकोण व्यापक रूप से भिन्न हो सकते है, इस बात के अनुसार की इसे कितना परिहार्य या अपरिहार्य, उपयोगी या अनुपयोगी , योग्य या अयोग्य माना जाता है।प्राणियों के जीवन मे दुख कई तरह के होते है। नतीजन, मानव गतिविधि के कई क्षेत्र दुःख के कुछ पहलुओं से संबंधित हैं। इन पहलुओं में पीड़ा की प्रकृति, इसकी प्रक्रिया, इसकी उत्पत्ति और कारण, इसका अर्थ और महत्व, इसके संबंधित व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार इसके उपचार, प्रबंध और उपयोग शामिल हो सकते हैं। लेकिन पीड़ा के अंत में हम सब आनंद की अभीप्सा, प्रेम प्राप्ति की साधना और मुमुक्षु भाव लेकर ही जीवन का दर्शन करना चाहते है।कवि मूर्मु की सारी क्रियाओं को कविता में रेखांकित करता है, भौतिक दुनिया को यह बताने के लिए हम इस त्रासद समय के लिए अपनी जवाबदेही सुनिश्चित कर लें।


◆विद्रोही आत्माएँ -- उदास मन पर चिपकी हुई चीखों के शव है यह कविता। 

"केवल एक समझौताहीन यथार्थवाद, जो सच्चाई पर, यानी शोषण, उत्पीड़न पर पर्दा डालने के सभी प्रयासों से जूझेगा। केवल वही शोषण और उत्पीडन की कलाई खोल सकता है।"

--- थीसिस ऑन ऑर्गनाइजर द वॉचवर्ड "फाइटिंग रियलिज्म


कोई उम्मीद बर नही आती

कोई सूरत नज़र नही आती

मौत का एक दिन मुअय्यन

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती


ज़िन्दगी का नैराश्य समझे बिना कोई लेखक ज़िन्दगी को समझ नही सकता। यह मानवीय विरोधाभास भले ही लगे, असहनीय भी लग सकता है किन्तु इसी विरोधाभास को सहते हुए समाज के मानवीय स्वभाव को पूरी शिद्दत से महसूस कर सकते है।बेशक इसे महसूस करने भर से दुश्वारियां बढ़ सकती है, पर कुछ भी आसाँ कहाँ होता है।दश्त- ए- सुखन में सिर्फ फूल ही नही खिलते कवि यह जनता है इसलिए वह अपनी कलम के उजास से साये का पता लगा ही लेता है।

जिंदगी अब भारी है शायद खुशहाल हो

 मयस्सर हो शायद आदमी का इसाँ होना

गाँठे खोलते कवि अनिल अनलहातु अपनी कविता में इतिहास खंगालते हुए इंसानियत को खोजते दिखाई देते है। लेकिन ज़िन्दगी है कि उसकी गाँठें कड़ी और कड़ी होती जाती है।गाँठे जो उन्हें मुक्तिबोध ने, रघुवीर सहाय ने खोलने को दी है।प्रश्न यह है कि क्या हर युग मे यह गाँठें मजबूत और मजबूत होती जाएगी?कवि निराश है, थका है लेकिन हताश नही बेशक वह नही खोल पा रहा है इन गाँठो को। इतना सहज भी तो नही समाज की इन गाँठो को खोलना। ज़िन्दगी की खुशहाली का पता ज़िन्दगी की बर्बर अभिव्यक्ति में ही समाया है।

अब कवि खुद से ही शर्मसार है

मैं एक शर्म में जीत हूँ

एक शर्म को जीता हूँ

जी..ता नहीं हूँ मैं

हारा हूँ/ हारता ही रह हूँ

कभी अपने को हारता देखता है एक शर्मनाक दुर्गन्ध से युक्त समय से हम क्या उम्मीद कर सकते है सिवाय इसके की इस समय का पोस्टमार्टम कर दें।

कि ज़िन्दगी यही रही है सदियों से 

उदास खाली / निरर्थकता और कमीनेपन से भरी

हमारी सब से बड़ी असफलता यही है कि हम इंसान नही हो सके सदियाँ स्तब्ध है, इतिहास लड़खड़ाया हुआ है, बर्बरता उच्च आसान पर विराजमान है, साधारण आदमी उसके पैरों तले दबा असहाय है और सृष्टि और सृष्टा उदासीन।जब जुबान खोलने का मतलब मौत हो तब कवि ही है जो ज़िन्दगी का पता देता है।साहित्य के रूप में समाज की जो छाया प्रकट होती है वह लेखक के व्यक्तित्व के माध्यम से ही आती है।साहित्य के निर्माण में इस बीच की कड़ी एवं लेखक के व्यक्तित्व का बहुत महत्व है और इस महत्व की महत्ता इस वजह में है कि एक और इसका सम्बन्ध समाज से है तो दूसरी और साहित्य से। साहित्य रचना की प्रक्रिया में समाज लेखक और साहित्य परस्पर एक दूसरे को इस तरह प्रभावित करते है कि इनमें से प्रत्येक क्रमशः परिवर्तित और विकसित होता रहता है।समाज से लेखक, लेखक से साहित्य और साहित्य से पुनः समाज ।

--- (मार्क्सिस्ट क्वॉर्टलो मिसलेनिन्न में दैट पैयालाइजिंग एपेरिशन ब्यूटी निबंध)

'विद्रोही आत्माएँ' कविता में कवि समाज के वजनी नियमों के ऊपर जड़ीभूत दबाव से दवा हुआ लगभग खुद स्पन्दनहीन लेकिन लचर, बेबस लोगों का स्पंदन महसूस करता हुआ बदहवास सा चला जा रहा है खुद को भूलता दिल्ली से उज्जैन, मुक्तिबोध से रघुवीर सहाय तक ,एक शून्य में, शून्य से निकल कर दूसरे शून्य तक, अनन्य से न्याय तक, शोषित से शोषक तक, संघर्ष से शांति तक, दुख से सुख तक, अशुभ से शुभ तक।अब कवि बदल रहा है-

टटोलता हूँ खाँगालता हूँ अपने आप को

और पाता हूँ कि मैं वो नही हूँ

मैं वो नही रहा.... नही रहा वह

साहित्यकार जीवन संग्राम के योद्धा होता है तटस्थ  दर्शक नही। बदलना उसकी नियति है इंसान होने के लिए और अन्य को इंसान बनाने के लिए।

मैं मुक्तिबोध का 'सफल' उर शिष्य होना चाहता हूँ।

एक चाहत के साथ जीता कवि मुक्तिबोध की विचारधारा को खोज निकलना चाहता है ताकि जीवन के प्रति निष्ठा न डिगे संवेदना का उत्ताप बना रहे और वो समाज के मुखौटा को एक एक कार नोचता जाए।किसी भी रचनाकार की अभिव्यक्ति उसके अंतर्मन की खामोशी में दबी होती है , जब वह खामोशी को तोड़ता है तभी फ्रायड के शब्दों में पौ फटती है।

सारी ज़िन्दगी एक ज़लालत गर्क है

कि धरती का एक इंच, एक कोना नही छोड़ा

जहाँ तनकर खड़ा हो सकूँ और

एक बच्चे की मासूम मुस्कराहट जज़्ब कर सकूँ

जब एक गहरी ख़ामोशी पर्त्त- दर - पर्त्त कवि की चेतना में जमती है तब एक चिंगारी सी पाठक के सीने में अटक जाती है। ज़लालत भरे इस समय मे हाशिए पर पड़ा हुआ आदमी, राजनीति में मिली हुई रंगनीति, समाजवाद में मिला हुआ पूँजीवाद को देख निराश हो खुद से भी यही कहता दिखाई देता है।कवि आवाज़ है आम आदमी की।रक्त से सनी इस कविता में आतंक में लिपटा समाज, राजनीति, संस्कृति, अमानवीय तत्व, हिंसा, जघन्य अपराध दिखाई देता है।कवि जो कभी(मुक्तिबोध है तो कभी रामदास) जनता है कि हर युग मे ऐसे जघन्य समय का पर्दाफ़ाश करते हुए ' डोमजी उस्ताद' द्वारा मारा जाना तय है।डोमजी उस्ताद व्यक्ति नही प्रतीक है उस प्रकृति, उस स्वभाव, उस आन्तरिक प्ररेणा की जो आदिम काल से ज्यों की त्यों है। उनकी पहचान कठिन नही उनका विरोध ही कठिन है।सामाजिक यथार्थ की सच्ची पकड़ तथा मानवता के प्रति अदम्य विश्वास की व्यथा है कविता । कवि पीड़ित आत्माओं के नष्टप्राय शक्तियों के समुच्च को अपने अंदर समेट खुद को तिल- तिल कर मरते हुए जीने को मजबूर है।विद्रोही आत्माओं का रामदास या मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षक, परसाई की चीख हो या हो कि आम आदमी, सभी पीड़ा के जंगल मे जलते हुए अपने ही धुएं से धुआँ- धुआँ होते मानवीयता, प्रेम,उल्लास,उमंग की घटा के इंतज़ार में बैठे है।


गुलज़ार ने सही ही कहा है

आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने है...

इन पुराने मरासिम को एक कवि ही होठों की हँसी से रूबरू करा सकता है। उम्मीद तो यही की जानी चाहिए।


◆विन्सेन्ट वैनगॉग – प्रकृति का चितेरा

अलविदा उसने कहा 

और वो चला गया

अलविदा खुद अपने साए को जब कहना पड़े तो समझ लेना चाहिए कि ज़िंदगी में अब अपना हमनवा कोई नही है।  हमारे युग का सत्य जिसे जानना मानो अपने हाथों अपना कलेजा चीर देना। लेकिन सत्य को नकारे कैसे ? चलो नकार भी दें तो भविष्य तो कवि को कलम पकड़ा कर कहेगा लिखो कि तुम चुप्प क्यों हो। चुप्पी ज़िंदगी का अदृश्य लिहाफ़ है जिसे ओढ़कर ज़िंदगी में लौटा तो जा सकता है, किन्तु ज़िंदगी को लौटाया नही जा सकता।कवि कहता है कि विद्रूपताओं के विरुद्ध अनवरत अंतहीन संघर्ष की अंत: प्रेरणा से रची जाती है कविताएं । ह्रदय को दहकाकर लावा बना कर लिखता है कवि वैनगॉग पर। अब भाव लावा है ।शब्द उभर रहें है। एक डच इंप्रेशनिष्ट चित्रकार विंसेंट वैनगॉग के लिए।

कवि अनिल अनलहतु कविता रचते है कि मानो ज़िंदगी का सच रचते है।


“वैनगॉग को हम नवा मिल गया

बेबसी अब मुकद्दर नही

खौफ़ ऐसा है कि कोई शख़्स कुछ कहता नही

जाने किस तुफ़ान के सब मुंतशिर हैं।‘


कवि हर खौफ़ को लांघ जाता है।


“वहाँ उस और खेत की मेड़ों पर

कौए मंडरा रहे,

कैनवास के अधूरे चित्र

खून के कुछ छीटें पड़े हुए थे;

पता नहीं जीवन की किन स्थितियों का

चित्रण करते वह किस जंगल से

होकर गुज़रा कि...”


ऐसे ही लोग हमारे बीच से अलगाव का शिकार होकर गुज़र जाते है और समाज तसल्ली के साथ उन्हें जाता देखता है। समाज के इस क्रूर कठोर रवैया को नज़रंदाज़ करते हम किसी की मृत्यु जो आत्महत्या है सजग नही होते।

सभ्यता की प्रगति की एक ही निशानी है कि समय समय पर आदमी ने हत्या के प्रति उदासीनता दिखाई है।तभी तो ज़िंदगी की बर्बर अभिव्यक्ति का फ़लसफ़ा लिखा गया।

किसी व्यक्ति की चेतना यानी इच्छा या कल्पना का चरित्र जो भी हो सामाजिक अस्तित्व लोगों के साथ उनके संबंधों और जीवित रहने की सुविधा देने वाली चीजों से वातानुकूलित होता है,जो मूल रूप से दूसरे के साथ सहयोग पर निर्भर होता है। लेकिन हम मनुष्य तो अलगाव के लिए ही जैसे बना है तभी तो हम महान चित्रकार, कवि को खो देते है।

किसी को उसकी आवश्यक प्रकृति से अलग करना फिर उसके जीवन में अर्थ की अनुपस्थिति, आत्मपूर्ति के अवसर के बिना जीने के लिए मजबूर करना उसको उसकी वास्तविकता से दूर करता समाज हत्यारा है। मार्क्स हो, गोरख हो,राजकमल हो ये तो सिर्फ नाम है असल में जो आज के दौर में जो मनुष्य होना चाहते है वह तो अधूरी रचना मात्र है क्योंकि उन्हें जीवन और मैं के साथ जीने ही नही दिया जाता। समाज तो चेतना रखता ही नही। जड़विहीन समाज से हम उम्मीद भी क्या रख सकते है। कभी व्यक्ति और समाज की शक्तियों के बीच एकात्मक प्रति के सेतु थे। व्यक्ति और समाज परस्पर पूरक थे इसलिए जीने की जिजीविषा भी थी। मार्ग के प्रतिबन्ध नहीं थे। 



नथिंग केन इवाल्व व्हिच इज नॉट इनवाल्ड


चित्रकार लड़ रहा है अपने चित्र के ज़रिए और कवि अपनी लेखनी के

रियालिज्म ब्रेटोल्ट ब्रेष्ट लिखते है ; "लेखन के लिए लड़ो! जीवन को बोलने दो।

समाज की विद्रूपताओं से ही लेखनी बद्ध होकर मुखर होती है। पर डर इस बात का है कि कवि की क्रांति दमन का मुखौटा लगाकर कहीं आम आदमी के ही खिलाफ़ न खड़ी हो जाए। और एक बार फिर वैनगॉग

न मारा जाए।क्योंकि संस्कृति राजनीति के साथ स्थाई भले ही संबंध न बनाएं लेकिन आंशिक समझौते के साथ, साथ साथ खड़ी तो हो ही जाती है। 

सत्य की विजय मात्र सुभाषित है।


“उसने "आलुखोरों"1 व "सिएनों"1 के बीच

अपने वसंत गवाएं थें;

उसकी रातें "नाईट कैफे"1 की टूटी उजड़ी

वीरान ख़ामोशी में गुजरी थीं,

अपने लाश पर मंडराते कौओं को वह

"गेहूँ के खेत"1 में देख चुका था

और "तारों भरी रात"1 में सबसे ज़्यादा

अपने-आप से डरता था।“


तभी तो पूरा जीवन अपनी कला में गॉग जैसे चित्रकार अपनी चरम पीड़ा में विघटन का विरोध करने के लिए, लोगों को संगठित करने के लिए गहन प्रयास करते है और मर जाते है। गेहूं न केवल लोगों के भरण पोषण का प्राथमिक रूप है बल्कि मानव जीवन के पकने का भी प्रतीक है। गॉग इसके ज़रिए एक ईमानदार, शारीरिक श्रम का भी प्रतिनिधित्व करते अपनी पेंटिंग में दिखाई देते है।

एक कवि हो या चित्रकार या हो मूर्तिकार सिर्फ सौंदर्य बोध की कला ही नही रचता वह यथार्थवाद को भी रचता है । इसलिए गॉग गेहूं के खेत की चमकदार गुणवत्ता गति को दर्शाते है। 

गेहूं की बालियों से चमकदार जीवन पर कौए रूपी अशांति जब उड़ती है तब जीवन बेतरतीब हो कर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

प्रकृति चाहें कितनी ही सुंदर क्यों न हो मनुष्यता की खुशबू जैसे ही ख़त्म होती है तब ज़िंदगी में रहा जाने का कोई रास्ता ही नही बचता।


“वह अपने ही आत्म-चित्रों (सेल्फ-पोट्रेट्स) से होकर

गुजरता रहा हर बार, बार–बार,

जिस क्षण जीवन को बचाने की

अंतिम आकुलता में

मारी थी गोली उसने वैन्गाग को,

ठीक उसी क्षण

विएना की किसी बदनाम गली के

आखिरी छोर पर

एक व्यभिचारिणी के गर्भ में

चीखा था हिटलर।“


प्रत्येक पथ मानवीय नही होता। हम न जाने कितने पथ का अनुकरण करते है। कभी रास्ते अहंकारी राजमार्ग बन जाते है तो कभी विनम्र पगडंडी। लेकिन हर बार या यूं कहें की बार बार हमें अपने आत्म तत्व की ही तरफ लौटते है । यही एक जीवनशक्ति, वाईटल फोर्स ही "संभावनाओं" को सम्भवन और चरम तक ले जाता है। एक कवि इस आत्म तत्व से पहुंचता है हर दर्द ,दुख तक।

लेकिन ऐसा क्यों होता है जबकि हम में से कुछ लोग इस तत्व को नकार देते है और खड़े हो जाते है पूरे मानवता के विरुद्ध। उनके नाम कोई भी हो सकते है लेकिन सत्य तक पहुंचाने का कवि का विश्वास वनपंथो, अरण्यों में छिपे सत्य को खोज कर समाज के सामने ले ही आता है। 

 

“बहुत दिनों तक वह एक शून्य पर

न्यूटन की सोच मुद्रा में

बैठा सोचता रहा

जीवन के धुंध और धुंधलके में आँखे गड़ाए,

और जब उसने पाया कि

सारी दुनिया ही

अंधेरे से होकर अंधेरे तक

जाती है

तो वह शुन्य को उल्टा कर

उसके भीतर घुस गया।“


आदमी की पीड़ा को शब्द देना बड़ा मुश्किल है । उसके लिए शून्य से शुरू करके धीरे धीरे मनुष्य हुआ जाता है । इस महान सत्य को कवि अनिल अनलहतु ही समझ सकते है ।

एक रहस्मयी आत्मा की चाहत लिए कवि अनलहतु खोज निकलाते है गॉग जैसे लोग, जो सिर्फ मनुष्य थे । उनकी गलती मनुष्य होना थी। 

कवि की जीवन के प्रति निष्ठा न डिगे, संवेदना का उत्ताप बना रहे इसलिए अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति में उन सभी चीखों को शामिल करता है जो क्षणिक सुख के लिए ऊंटों की पीठ से फिसल कर गेहूं के खेत में मृत्य पाई गई।


“चीख पड़ता हूँ मैं एकबारगी

की समाज के माथे

और आदमी के चेहरे के नकाब के पीछे

जो छिपा बैठा है

निकालो उसे, बाहर करो,

कौन है वह

जो छोटे-छोटे बच्चों को

ऊँटों की पीठ से बांधता है?

इस शताब्दी के सबसे बड़े कवि को

दिल्ली की अँधेरी कोठरियों में ढकेलता

सिजोफ्रेनिया तक ले जाता है,”


जिंदगी के करवा में मौत की ठिठोली एक दम नही होती। निर्माण, उच्चाटन और श्रेय की परिभाषा अलगाव का कारण बनती है।  यही सिजोफ्रेनिया तक ले जाती है। यही राजकमल को गंजेडी बनाती है । यही वैन गॉग को आत्महत्या करने पर मजबूर करती है।

कवि एक और मौत का साक्षी बना उसके साथ साथ अंतिम गंतव्य तक जा रहा है, और मैं जा रही हूं साक्ष्य इकठ्ठा  करने क़ब्र के मुहाने पर जिन्हे कवि वहाँ छोड़ आया है।

आज एक बार फिर 29 जुलाई है और यह है, डच चित्रकार वॉन गॉग जो कहा रहा है शुक्रियां कवि और उतर रहा है अपनी अंतिम पेंटिंग  के साथ क़ब्र में ।

और अंत में यह कविता न जिंदगी का मंत्र है न कोई आख्यान न ही पीड़ा का दस्तावेज बल्कि आदमी की जीने की चाहत की मासूम अभिव्यक्ति है और श्रद्धांजलि है उन तमाम रचनात्मक कार्य करने वाले लोगों के लिए जिन्हें समाज ने उनके मनुष्य होने की सज़ा दी।


 बक़ौल

 कैफ़ी आज़मी

रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई

तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई


निष्कर्ष

 वैदिक वाड्मय का कहना है कि जो ज्ञान अथवा अनुभाव अन्तर्मन की गुहा में निहित है, वही शब्द प्रतीक के माध्यम से मूर्तरूप धारण कर लेता है।

Transcendental consciousness is an impersonal spontaneity.

ज्यां-पाल सार्त्र ने इसे निर्वेयक्तिक चेतना का सार्वभौम स्पंदन यूँ ही नही कहा क्योंकि इस प्रकार के प्रकटीकरण से ही व्यक्तिगत संवेदना के परे उसमे एक सर्वजनीनता आ जाती है।"बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ" की  कविता रचनात्मक आवेश की ऐसी चित दशा की संकेत है जो कवि की उंगली पकड़कर शब्द रूप में स्फुरित हो उठी है।

The linguistic sign unites, not a thing and a name but concept and a sound image.

एक भाषागत शब्द वास्तव में किसी वस्तु को उठाकर नही रखता बल्कि विचार और बिम्ब को जोड़ देते है।

कवि अनिल अनलहतु आंतरिक संघर्ष और बाह्य संघर्ष के बीच द्वंद्वात्मक भौतिकवादी के यथार्थ बोध से ज्ञानात्मक धारा में डूबते है, और एक फैंटेसी से रचते चले जाते है। लेकिन यह फैंटेसी वह है जोकवि के काव्य- बोध को सघन शिल्प, संवेदना में रचा बसा कर उद्वलित करता है। अनिल अनलहतु का शिल्पविधान बहुत ही मौलिक है जो जादू से जगता है।विरल कवि दृष्टि के कारण घटित हुए जीवन का उत्कृष्ट अनुभव अनिल अनलहतु करते हुए भावनात्मक अंतर्द्वंद के बहुत बारीक व मर्मस्पर्शी चित्र खिचते है।कवि ने मुक्त छंद की कविताओं में भाषाशैली, काव्यभाषा, बिंब, प्रतीक, अलंकार का बेहतरीन चित्रण किया है।भारतीय जीवन शैली की त्रासदी पीड़ा और सामाजिक तनाव को फैंटेसी के द्वारा यथार्थ का चित्रण किया है।प्रतीकों द्वारा कथ्य को स्पष्ट तो कहीं- कहीं रहस्यात्मक व काव्य शिल्प को जीवंत बनाया है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि वर्तमान समय मे जबकि यथार्थवादी विचारशीलता की प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है ऐसे में कवि अनिल अनलहतु की कविता का मूल्यांकन बेहद जरूरी है। वह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कवि ने समाज मे मुख्य धारा से कटे एवं साधारण भारतीय समाज के तबके को अपनी कविता में महत्व दिया है।"बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ" का पुनः पुनः पाठ, होना चाहिए यह कहना जरूरी है लेकिन उससे भी बेहद जरूरी है कि कवि का कथ्य या संदेश तो स्पष्ट है लेकिन कविताओं की बनावट बेहद जटिल जो आम पाठकों को कम समझ मे आती है। कवि को अपनी इस दुरूह लेखन शैली पर ध्यान देना चाहिए ताकि आम पाठक भी उनकी कविता को समझ सके।




Sunday, March 12, 2023

पानी का पहरुह -- अनुपम मिश्र

जीवन मुट्ठी की रेत की तरह फिसलता है। पल- पल निकलते लम्हें ज़िन्दगीं की तलाश करते है।समय की चाल बेअसर हो आगे सरकती रहती है।शैने- शैने जीवन यूँ ही निकल जाता है, निष्प्रयोजन।

हमारी कामनाओं का आकाश तो हमेशा खुला रहता है लेकिन कर्मों और विचारों की पगडंडिया बंद रहती है।टूटे मन और खंडित व्यक्तित्व की इस भीड़ में लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है जो न सिर्फ अपने बारे में बल्कि पूरे समाज के बारे में जीवन के बारे में भी सोचते है और ऐसे जीते है जो पानी पर भी अपनी कहानी लिख जाते है।

जी हां मैं बात कर रही हूँ, भारतीय गाँधीवादी, लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद, Ted व्यक्ता व जल संरक्षणवादी अनुपम मिश्र की।


"भाषा लोगों को तो आपस मे जोड़ती ही है, यह किसी व्यक्ति को उसके परिवेश से भी जोड़ती है। अपनी भाषा से लबालब भरे समाज मे पानी की कमी नहीं हो सकती और न ही ऐसा समाज पर्यावरण को लेकर निष्ठुर हो सकता है। इसलिए पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करने वाले लोगों को अपनी भाषाओं के प्रति संजीदा होना पड़ेगा। अपनी भाषाओं को बचाए रखने, मान- सम्मान बख़्शने के लिए आगे आना होगा। यदि भाषाएं बची रहेंगी तो हम अपने परिवेश से जुड़े रहेंगे और पर्यावरण के संरक्षण का काम अपने आप आगे बढ़ेगा।" -- अनुपम मिश्र


पर्यावरण के प्रश्न को पारंपरिक दृष्टि से निकाल कर उसमें एक नये विचार का समावेश करना और उसे भाषा से जोड़ने की अनुपम दृष्टि "अनुपम मिश्र" जैसे पर्यावरणविद की ही हो सकती है। तकनीकी साँचो से सुलझा कर स्वभाषा के साथ जोड़ने की कवायद कोई पर्यावरणविद कैसे कर सकता है जब तक उसमें साहित्य की लोकभाषा की समझ न हो।

इस बात पर कितना आश्चर्य होता है न कि लोकभाषा हमारे बीच से कितनी तेजी से विस्मृत हो रही है। शायद आज के समय ही ऐसा है जो हर चीज को विस्मृत करता चला जा रहा है , तब भाषा को बचा कर पानी को बचाने की बात एक पर्यावरणविद ही कर सकता है या कोई छिपा साहित्यकार।

यह जानने के लिए की आख़िर अनुपम मिश्र ने क्यों, कैसे भाषा को पानी से जोड़ा हमें उनके बारे में जानना होगा।

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्रा और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के यहाँ सन 1948 में हुआ था। हिन्दी के कवि के यहाँ जन्म लेना ही उन्हें भाषा के पास ले लाया। एक लेख में अनुपम मिश्र ने बताया कि उनके पिता घर पर कभी भी अंग्रेजी का प्रयोग नही करते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्होंने कभी लोक भाषा एवं हिन्दी भाषा का साथ नही छोड़ा।

सन १९६८ में संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से लेने के बाद अनुपम मिश्र दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़ गए। संस्थान के मंत्री राधाकृष्ण के कहने पर एक चिट्ठी लेकर बीकानेर सिद्धराज ढ़डढ़ा जी के पास गए। वहाँ जाकर अनुपम जी ने पहली बार बरसात के पानी को जमा किया हुआ देखा, जो उनके लिए बहुत ही आश्चर्य का विषय था। पहला तो यह कि बरसात का पानी इकठ्ठा करने की जरूरत को देखकर यानि कि पानी की इतनी असुविधा और दूसरा की पानी जमा करने का तरीक़ा जो बहुत ही प्राचीन था। उन्होंने एक कुंड ( टांका)में जो घर के आंगन में स्थित था और जिसमें बरसात का पानी लगभग एक साल के लिए इकठ्टा किया गया था, उसे देखा तो जाना कि पानी की किल्लत और उसे सहेजना क्यों जरूरी है। 

मरुभूमि में पानी का संग्रह उन्होंने क्या देखा उनका जो आंतरिक रूपांतर हुआ उससे उनकी ज़िन्दगीं ही बदल गई। इसी घटना के बाद अनुपम मिश्र पानी और पानी अनुपम मिश्र दोनों ही एक दूसरे के पर्याय बन गये।

अनुपम मिश्र इस घटना के बाद ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत हो गये और उन्होंने इस और कार्य की भी शुरुआत कर दी जो उनकी मृत्यु तक चलती रही।

यह वह समय था जब देश मे पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नही खुला था। सरकार और जनता का शायद ही इस विषय पर ध्यान जाता हो।लेकिन अनुपम मिश्र पर्यावरण- संरक्षण के मुद्दे पर बहुत ही गंभीर थे, और निरन्तर जनचेतना और सरकार को जागरूक करने में लगे हुए थे।

अनुपम मिश्र लगातार बिना सरकारी मदद के पर्यावरण पर पूरी तल्लीनता से कार्य कर थे। जैसे सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम , सूख चुकी अखुरी नदी का पुनर्जीवन। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजिस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवन, बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का कार्य भी किया है। तरुण भारत संघ के अध्यक्ष रह कर उनके पानी के लिए किये गए कार्य भी अद्वितीय है।उनके काम को देखें तो उन्होंने पर्यावरण पर क़ाबिले तारीफ़ काम किया है।

अद्भुत, अतुलनीय, अनोखा, अप्रतिम, बेमिसाल, अनुठा, अपूर्व, बेजोड़ उनके नाम के समानार्थी उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। सोये, ऊबे, उदासीन समाज मे लुप्त होते पानी के प्रति चेतना जागृत करने का काम कोई अनुपम ह्रदय वाला ही कर सकता है। उनकी हर कोशिश सिर्फ पर्यावरण के लिए ही थी। वह पानी के लिए ही अपनी कोशिश के जरिए पहचाने गये। उनकी सबसे बड़ी बात यह रही कि उन्होंने ऐसे लोग तैयार किये जो बिना किसी शौर शराबे के अपने - अपने अंचलों में, समुदाय के बीच उनकी आवाज बन कर पानी की पहचान बन कर काम मे लगे है।

वह खुद पर्यावरण के किसी एक कार्य तक सीमित नही रहे। उन्होंने न सिर्फ पानी के संरक्षण का कार्य किया बल्कि बाढ़ जैसी भयावह समस्या का हल बताया। उनका पर्यावरण को देखने व समाधान का तरीक़ा बिल्कुल ही अलहदा था। उन्होंने जल संकट का समाधान ऐसे रूप में प्रस्तुत किया कि जल संकट समाधान विश्वसनीय व कम लागत वाला लगा।

अनुपम मिश्र हर बार कहते थे कि पर्यावरण की समस्याओं का समाधान उसका हल हमारे पास सदियों से हमारे लोक में है। बस हमें इतना भर करना है कि हम उन बिसार दिये को पुनः याद करें और उन्हें थोड़ा सा झाड़- पोछ कर अपना लें। उनका कहना था कि मुश्किल यह है कि लोक के यह तरीक़े हमारी कुंजी थे , हम ने उस कुंजी को दूर फेंक दिया है अब पर्यावरण का सुधार हो तो कैसे ?

अनुपम मिश्र ने उस कुंजी को न सिर्फ खोजा बल्कि उससे पर्यावरण को खोला भी। उन्होंने ऐसे सभी लोक कार्य जो जल को संरक्षित करते है, उस पर कार्य किया। उनका कहना था कि जीवन पांच महाभूत से बना है अगर उस पर संकट आएगा तो सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक संकट भी उठ खड़े होंगे।इसलिए जरूरी है कि हम पांच महाभूतों की बेहतरी के लिए कार्य करें।

मध्यकालीन भारत मे जल व्यवस्था का विश्वकोश जो अनुपम मिश्रा ने तैयार किया था। जिसमें जल संग्रह के भूले- बिसरे तरीक़ों को ही नही पुनर्जीवित किया बल्कि अप्रचलित हो चुके शब्दों को भी पुनर्जीवित किया। अपनी अनुसंधान प्रक्रिया में उन्होंने प्राचीन भारत की जाति  व्यवस्था उसके आर्थिक आधार के ढांचे का भी प्रामाणिक आधार खड़ा किया।

किसी भी कार्यक्षेत्र में कार्य करना बहुत ही महत्वपूर्ण है लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उस कार्य को ही जीवन मे उतार लेना लेकिन शायद उससे भी बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है दूसरों को अपने कार्य से इस कदर बदल देना की वह एक परम्परा बन जाए।

बस यही अनुपम मिश्र ने पर्यावरण पर किया, जो उन्हें दूसरे से जुदा करता था। उन्होंने भाषा और साहित्य के साथ पर्यावरण को तो जोड़ा ही उन्होंने खुद को प्राचीन लुप्त पर्यावरण परम्परा से खुद को जोड़ा कर इतिहास रच दिया।



एक बानगी देखिए -- "आज भी खरे है तालाब" 

तालाब निर्माण करने वाली अनेकानेक जातियों में से एक है – गजधर. गजधर वास्तुकार थे. गांव-समाज हो या नगर-समाज, उनके नवनिर्माण की, रख-रखाव की जिम्मेदारी गजधर निभाते थे. नगर नियोजन से लेकर छोटे से छोटे निर्माण के काम गजधर के कंधों पर टिके थे. वे योजना बनाते थे, कुल काम की लागत निकालते थे, काम में लगने वाली सारी सामग्री जुटाते थे और इस सबके बदले वे अपने जजमान से ऐसा कुछ नहीं मांग बैठते थे जो वे दे न पाएं. लोग भी ऐसे थे कि उनसे जो कुछ बनता, वे गजधर को भेंट कर देते. काम पूरा होने पर पारिश्रमिक के अलावा गजधर को सम्मान भी मिलता था. सरोपा भेंट करना अब शायद सिर्फ सिख परंपरा में ही बचा है पर अभी कुछ ही पहले तक राजस्थान में गजधर को गृहस्थ की ओर से बड़े आदर के साथ सरोपा भेंट किया जाता रहा है. पगड़ी बांधने के अलावा चांदी और कभी सोने के बटन भी भेंट दिए जाते थे. जमीन भी उनके नाम की जाती थी. पगड़ी पहनाए जाने के बाद गजधर अपने साथ काम करने वाली टोली के कुछ और लोगों का नाम बताते थे, उन्हें भी पारिश्रमिक के अलावा यथाशक्ति कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी. (पृ. १८, आ.ख.ता.) 

"आज भी खरे है तालाब" हमारी लुप्त होती जल सम्पदा को दर्शाती पुस्तक है। जो कहीं न कहीं हमें इस भाव से भारती है कि हमारी लोक संस्कृति बेहद समृद्ध थी। इस पुस्तक में जलाशयों का ज्ञान ही नही बल्कि जिन्हें जलाशयों ज्ञान था उनकी लोक संस्कृति, अंधविश्वास, लोक मान्यताएं, लोक साधनाएं, मेले- ठेले ( जो अधिकाशतः मंदिर, तालाब, नदी आदि के पास लगते थे ) लोक विश्वास, जातियां, मिथक, खानपान, प्रेम, विवाह, न्याय, अन्याय इसमें संदर्भित है।

असल मे भारत मे लोक- मान्यताएं ही ऐसी है जिसमें कोई भी कार्य चाहें वह तालाब बनाने का हो या कुआँ खोदने का उसमें हमारे आपसी संबंध, खानपान, उत्सव, शामिल हो जाते है। इसे हम आज भी छत ढलते समय देख सकते है।

अनुपम मिश्र ने पर्यावरण को साहित्य में भी समेटा है जिसमें पुस्तक हैं--

◆राजिस्थान की रजत बूँदे

◆साफ माथे का समाज

◆ आज भी खरे है तालाब


"आज भी खरे है तालाब ब्रेन लिपि सहित तेरह भाषा मे प्रकाशित हुई है। इसकी एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं।


पुरुस्कार और सम्मान --

अनुपम मिश्र को २००९ में टेड ( टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित किया था।)

"आज भी खरे हैं तालाब" के लिए उन्हें २००११ में देश के प्रतिष्ठित 'जमनालाल बजाज पुरस्कार' से समानित किया गया था।

१९९६ में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार 'इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। उन्हें 'कृष्ण बलदेव वैद' पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।


प्रकृति सदा से है। सदा रहेगी। लेकिन संस्कृति मनुष्य का सृजन है। मनुष्य और अस्तित्व की प्रीति रीति और चित्त का संस्कार भी। अनुपम मिश्र को यह चित्त के संस्कार अपने पिता भवानी प्रसाद मिश्र से मिले थे। तभी उन्होंने संस्कृति के सतत सृजन कर्म और उसके सबसे बड़े फल भाषा को अपने कार्य का आधार बनाया। असल मे भाषा अद्भुत लब्धि है। लोक भाषा हमें गढ़ती है। बेशक हमनें ही भाषा गढ़ी लेकिन उस भाषा ने जिन मनुष्यों को गढ़ा उन्होंने भाषा को सामाजिक संपदा बना दिया। इसके सबसे बड़े उदाहरण अनुपम मिश्र थे। उन्होंने लोक भाषा के लोक व्यवहार से ही जाना कि एकाकी की कोई संस्कृति नहीं होती। इकाई होना दुख और अनंत होना आनंद है। इसलिए उन्होंने पर्यावरण के प्रश्न पर लोगों को जोड़ा साथ ही जोड़ा अपने साथ परंपरागत भाषा व्यवहार। जिससे उन्हें परंपरागत जल सहजने के तरीक़े, बाढ़ से निपटने के तरीक़े आदि पता चले।

उन्होंने लोक भाषा के माध्यम से लोक व्यवहार को और फिर पर्यावरण को समझा।असल मे वेद की ऋचाएं ही मानव और प्रकृति की प्रथम ध्वनियाँ थी। जो धीरे- धीरे लोक में बसी, और इसी लोक को पकड़ कर अनुपम मिश्र ने हमें हमारी भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व पर्यावरण से मिलवाया।

अनुपम मिश्रके लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि हम इस मिलन को स्थाई बना लें और पर्यावरण की इस धुन को सुनते रहे। जो कह रही है कि --

जलम् एव जीवनम् और लोक ही भारतीय अनुभूति का परम तत्व।






 

     

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