Thursday, May 25, 2023

उदास मन पर चिपकी हुई चीखों के शव के मानिंद कविताएं -डॉ किरण मिश्रा (बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ)

“बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ” अनिल अनलहातु की ऐसी पुस्तक है जिसे हम कालकथा कह सकते है, इसमे रची- बसी उनकी कविताएँ उनके तीखे अनुभव- संघर्ष का दस्तावेज है।उनकी कालकथा अतीत- बोध से शुरू होकर वर्तमान- बोध तक आती है। स्मृति- बिम्ब के रूप में टुकड़े- टुकड़े में आए अतीत कवि के मानवीय पीड़ा से बने लगते है जो गूँगे लोगों की एक सदी की अभिव्यक्ति हैं।अनिल अनलहातु की कविताएँ उनके गहरे सामाजिक चिन्तन को दर्शाती है। उनके जीवन-जगत के साथ सम्बन्धो व कर्तव्यों के सम्बन्ध में किये गये सम्पूर्ण विचार उनकी कविता में गहरे से आते है। कविता में उनका चिन्तन एक सुनिश्चित स्थान या समय पर न होकर यत्र – तत्र  बिखरे हुए किरदारों को लेकर है जो समाज के सब से नीचे के पायदान से है।उनकी कविता पढ़ते हुए आप सामाजिक चिन्तन के विकास के विभिन्न चरणों मे पहुंच जाते है। कहीं उनका धार्मिक चिन्तन है तो कहीं दार्शनिक, कहीं अचानक वो मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समाज को देखते है तो कहीं उनका भौतिकवादी चिन्तन, उन्हें समाज मे फैले आत्मकेंद्रित दृष्टि में डूबे लोग नज़र आते है। फिर अचानक ही वो सामाजिक - वैज्ञानिक दृष्टि से समाज की समस्याओं का विश्लेषण अपनी कविताओं में करते दिखाई देते है।यहां पर अनायास ही मुझे इंग्लैंड की वरिष्ठ कवियत्री कैथनीन रैन की बात याद आती है कि भारत ही एक ऐसा देश है जहां धर्म की उत्पत्ति के मूल में काव्य है और जहां की संस्कृति और सभ्यता के आधारभूत मूल्यों की रचना ही कवि प्रतिभा के माध्यम से हुआ है ।मुझे लगता है संस्कृति और सभ्यता के खोये हुए मूल्यों की पुनर्स्थापना ही बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ है। भौतिक साधनों की दृष्टि से अक्षम मनुष्य उनकी कविताओं में ऐसा प्राणी है जो समाज के कार्य- व्यापार के समक्ष निरीह है। जिसकी आवाज कहीं गुम है , उस गुम आवाज़ को खोजने की क़वायद ही यह कविताएँ है।अनिल अनलहातु की कविताओं में तर्क प्रधान है । वह अपनी कविताओं में कहीं- कही कार्य कारण संबंधों की स्थापना करते दिखाई देते है। सामाजिक प्रघटनाओं को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखते और एक नई समाजवैज्ञानिक विचारधारा को लेकर कविता रचते है।

जब आप 'बाबरी मस्जिद व अन्य कविताएँ' पढ़ना शुरू करते है, तब वह सिर्फ एक कविता की किताब होती है और जब आप पढ़ना समाप्त करते है तब भी शायद वह आपको एक कविता की ही किताब लगे लेकिन अचानक ही आप उसे फिर से पढ़ेंगे और इस बार पढ़ने की प्रक्रिया में आपको ऐसे अनुभव होंगे, ऐसे- ऐसे दृश्यों से आपका सामना होगा कि आप लगातार उन पात्रों के दर्द, बेचैनी में उनके साथ होते है। उनकी कविताओं के पात्रों के कोई नाम न हो, चाहें वो अपनी पहचान के संकट से जूझ रहे है लेकिन यह नाम रहित पात्र कविता से निकलकर आपके पास जब आते है तो बिना कुछ कहे अपने मौन से आपकी शांति, गर्व और आपके मनुष्य होने पर प्रश्नचिन्ह लगाकर आपके 'मैं' को हिलाकर  वापस कविता में चले जाते है और पीछे छोड़ जाते है आपके मरे हुए अहंकार को।उनके पात्रों का आप कोई भी नाम रख लीजिए , किसी भी नाम से आवाज दीजिए उन्हें, वो इतिहास से गायब है , अब वो आप के आस- पास है लेकिन यकीन मानिए, आप , हम ,हम सबकी लोलुपता के कारण वो इतिहास से फिर गायब हो जाएंगे और वर्तमान में वहीं पाए जाएंगे जहां आप जाति, गोत्र, पन्थ, मत और मज़हब में स्वयं को सम्पूर्ण मानवता का अविभाज्य अंग मानते है। वो उन बेशर्म परम्पराओं से टकराते दिखेंगे जहां असमानता के तत्व समत्व के मूल तत्व पर हावी हैं। या फिर चुनौती देते दिख जाएंगे ब्राह्मणवादी सोच को ।यह कवि की धृष्टता है ,या है कि उसका अपना संघर्ष कि कवि उन्हें आप के आस- पास से ही आप तक भेजता है। जो इतिहास में नही वे सिर्फ कवि के पास ही जा सकते है।यहां पर एक ध्यान देने की बात और है कि ऐसा नही है कि सिर्फ अनिल अनलहातु ही अपनी कविता में हाशिये में पड़े लोगों के लिए दरवाजा खोलते है, अन्य रचनाकार भी ऐसा करते है लेकिन अनिल अनलहातु की कविता के पात्र उस दरवाजे से आपके दिमाग पर चोट करते है, और तब तक करते है जब तक कि आप आत्मकेंद्रित स्वार्थी दुनिया से निकलकर आपको मनुष्य होने का बोध नही कर देते है और बहुत ही मजबूती से मनुष्य होने और न होने के बीच अपने मूलभूत प्रश्नों के साथ खड़े हो जाते है। कवि कोई इन्द्रजाल नही रचता लेकिन यह कवि की लेखन शैली का कमाल है कि आप उनकी कविताएँ पढ़ते हुए गहरे सम्मोहन में चले जाते है और खुद ही दृष्टा व दृश्य हो जाते हैं।उनकी कविता द्वन्द हैं, जड़- चेतन का द्वैत है, ढेर सारे कालजयी प्रश्न है, ढेर सारी जिज्ञासाएँ हैं। ढेर सारी इच्छाएं हैं। प्रीतिकर कथा है।जीवन सत्य की खोज है। कविता में उठे कवि के प्रश्न भारतीय दर्शन, समाज जीवन और मनुष्य होने का सारभूत तत्व विश्लेषण हैं।

उनकी कविताएं आत्म रूपान्तरण देती है । आप आम आदमी, ईश्वर, मनुष्य की प्रकृति और सृष्टि, दृष्टि पर उनकी कविता पढ़कर दार्शनिक सवाल खुद से करने लगते है और जिज्ञासु  बन आपका मन प्रश्नाकुल बन जाता है। यह अव्याख्येय और अनिर्वचनीय ' सत्य' को भाषाबद्ध करने का कवि का आश्चर्यजनक कविकर्म हुआ है। सत्य प्राप्ति की पीड़ अगर आप मे गहन है तो यह कविता आपके लिए हैं। यह कविताएँ रचनाकार से भी प्राचीन है । यह शून्य से नही उगी बल्कि यह प्रशनाकुल संस्कृति परम्परा से उपजी है।

उन्हें पढ़ना आकस्मिक ही हुआ लेकिन यह शायद इसलिए भी था क्योंकि दिमाग मे लगातार एक प्रश्न था कि हमारे दिनों में  कौन सी ऐसी कविता है जो पाखंडी दुनिया को अपनी चीख के साथ उठने और मंथन करने पर बेबस कर रही हैं। और कविता पढ़कर मुझे बहुत ही विस्मय हुआ और गर्व भी की कवि की कविताएँ समकालीन निर्णयों  को चाहें ख़ारिज न भी करें लेकिन युगों के निर्णयों को अपनी दृष्टी से देखने का साहस करती है। बक़ौल उदय प्रकाश अनिल अनलहातु की कविताएँ मुक्तिबोध की कविताओं की पंक्ति में जगह बनाती है। मैं इसमें जोड़ना चाहूँगी और अपनी अपरिवर्तनीय घोषणा करती है। वे खुद से लड़ते- लड़ते लिखते है और लिखते- लिखते लड़ते है बिना किसी संगठित पंथ का राजमार्ग तलाशते चलते है भविष्य घटित करने को।बाहर और भीतर के यथार्थ का अंकन करते अपनी थकान, अकेलेपन, बेबसी, अनपहचानेपन की साक्षी हैं यह कविताएँ इन्हें सिर्फ पढ़ा नही स्मृतियों में भी रखा जाना चाहिए ।

◆मानवीय पीड़ा का ज़िगुरत—आदिम ज़िन्दगी की आधुनिक हत्या की कहानी है यह कविता

यह कहने से पहले की लेखक ने यथार्थवादी प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों को अपनी कविता में व्यक्त किया है, मैं कविता के शीर्षक ' ज़िगुरत' शब्द का ध्यान दिलाना चाहूँगी। वैसे तो 'ज़िगुरत' का अर्थ कवि ने कविता के अंत मे राजा उर नाम्मू द्वारा निर्मित 'सिन' (चंद्रमा) देवता का मंदिर बताया है लेकिन जैसा कि यथार्थवादी कविता में अनुपस्थिति का महत्व है और भाषा का मौन ही अपनी बात कहता है तो यहां द्रष्टव्य रहे कि दुःख हर बार विध्वंस होता है नये दुख से।कविता में दुःख मूल तत्व है जो भावात्मक घटनाओं की नकारात्मक संयोजकता बनाता है। पूरी कविता में जीवन एक घटना है जो पुनः पुनः प्रेषित होता है। कवि मूर्मु के अप्रत्यक्ष दुःख को प्रत्यक्ष बना पाठकों के सामने लाता है।अनिल अनलहातु अपनी कविता में Noumen की बात करते नज़र आते है। Noumen एक घटना है जो स्वतंत्र रूप से मानव भावना है।'मानवीय पीड़ा का ज़िगुरत' कविता निराश, हताश का हवन कुंड है जो कर्तव्य के इर्द- गिर्द घूमती है यहाँ कर्तव्य वह कर्तव्य है जो मकलू मूर्मु को जन्म जात मिला है या इस वर्ग को मिलता है एक बेबसी के साथ --

“सिल हुए होठों, खौफजदा बरौनियों

उदास  लंबोतरे चेहरे पर चिपकी

अवश बेबसी व बेकली के बीच भी

ज़िन्दगी जीने की गहरी ललक

(हम विस्मित थे)”


मूर्मु की ज़िन्दगी जीने की सभी क्रियाएं एक अंत निर्हित रुदाली है जो वह जन्म लेते ही शुरू करती है अपने मारने तक।मूर्मु के अधिकतम पर ध्यान केंद्रित करता कवि है  उसे ग्वाटेमाला से एंडीज तक और दुमका गोड्डा के आदिम जंगलों और घरों के शयन कक्ष तक देखता है।अंतिम दो पंक्तियों में कवि बिम्ब का सामान्यीकरण करता दिखाई पड़ता है --

उसके होठों पर हँसी देखना

एक लम्बा और उबाऊ इन्तज़ार है


कवि अपनी अर्ध- चेतना में मूर्मु के दुःख उसकी अनुभूति को इतनी गहराई से महसूस करता है कि कहीं कहीं तो अनुभूति कवि के मानसिक धरातल पर हुए विस्फोट के मलबे लगते है जिन के टुकड़े- टुकड़े जोर कर रचनाकर्म हुआ है। कवि के शब्द दृश्य से जुड़ा तीखा और त्वरित असर करने वाला है कि एक गहरी उदासी छोड़ जाता है।हमारे पीड़ित या पीड़ा के प्रति दृष्टिकोण व्यापक रूप से भिन्न हो सकते है, इस बात के अनुसार की इसे कितना परिहार्य या अपरिहार्य, उपयोगी या अनुपयोगी , योग्य या अयोग्य माना जाता है।प्राणियों के जीवन मे दुख कई तरह के होते है। नतीजन, मानव गतिविधि के कई क्षेत्र दुःख के कुछ पहलुओं से संबंधित हैं। इन पहलुओं में पीड़ा की प्रकृति, इसकी प्रक्रिया, इसकी उत्पत्ति और कारण, इसका अर्थ और महत्व, इसके संबंधित व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार इसके उपचार, प्रबंध और उपयोग शामिल हो सकते हैं। लेकिन पीड़ा के अंत में हम सब आनंद की अभीप्सा, प्रेम प्राप्ति की साधना और मुमुक्षु भाव लेकर ही जीवन का दर्शन करना चाहते है।कवि मूर्मु की सारी क्रियाओं को कविता में रेखांकित करता है, भौतिक दुनिया को यह बताने के लिए हम इस त्रासद समय के लिए अपनी जवाबदेही सुनिश्चित कर लें।


◆विद्रोही आत्माएँ -- उदास मन पर चिपकी हुई चीखों के शव है यह कविता। 

"केवल एक समझौताहीन यथार्थवाद, जो सच्चाई पर, यानी शोषण, उत्पीड़न पर पर्दा डालने के सभी प्रयासों से जूझेगा। केवल वही शोषण और उत्पीडन की कलाई खोल सकता है।"

--- थीसिस ऑन ऑर्गनाइजर द वॉचवर्ड "फाइटिंग रियलिज्म


कोई उम्मीद बर नही आती

कोई सूरत नज़र नही आती

मौत का एक दिन मुअय्यन

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती


ज़िन्दगी का नैराश्य समझे बिना कोई लेखक ज़िन्दगी को समझ नही सकता। यह मानवीय विरोधाभास भले ही लगे, असहनीय भी लग सकता है किन्तु इसी विरोधाभास को सहते हुए समाज के मानवीय स्वभाव को पूरी शिद्दत से महसूस कर सकते है।बेशक इसे महसूस करने भर से दुश्वारियां बढ़ सकती है, पर कुछ भी आसाँ कहाँ होता है।दश्त- ए- सुखन में सिर्फ फूल ही नही खिलते कवि यह जनता है इसलिए वह अपनी कलम के उजास से साये का पता लगा ही लेता है।

जिंदगी अब भारी है शायद खुशहाल हो

 मयस्सर हो शायद आदमी का इसाँ होना

गाँठे खोलते कवि अनिल अनलहातु अपनी कविता में इतिहास खंगालते हुए इंसानियत को खोजते दिखाई देते है। लेकिन ज़िन्दगी है कि उसकी गाँठें कड़ी और कड़ी होती जाती है।गाँठे जो उन्हें मुक्तिबोध ने, रघुवीर सहाय ने खोलने को दी है।प्रश्न यह है कि क्या हर युग मे यह गाँठें मजबूत और मजबूत होती जाएगी?कवि निराश है, थका है लेकिन हताश नही बेशक वह नही खोल पा रहा है इन गाँठो को। इतना सहज भी तो नही समाज की इन गाँठो को खोलना। ज़िन्दगी की खुशहाली का पता ज़िन्दगी की बर्बर अभिव्यक्ति में ही समाया है।

अब कवि खुद से ही शर्मसार है

मैं एक शर्म में जीत हूँ

एक शर्म को जीता हूँ

जी..ता नहीं हूँ मैं

हारा हूँ/ हारता ही रह हूँ

कभी अपने को हारता देखता है एक शर्मनाक दुर्गन्ध से युक्त समय से हम क्या उम्मीद कर सकते है सिवाय इसके की इस समय का पोस्टमार्टम कर दें।

कि ज़िन्दगी यही रही है सदियों से 

उदास खाली / निरर्थकता और कमीनेपन से भरी

हमारी सब से बड़ी असफलता यही है कि हम इंसान नही हो सके सदियाँ स्तब्ध है, इतिहास लड़खड़ाया हुआ है, बर्बरता उच्च आसान पर विराजमान है, साधारण आदमी उसके पैरों तले दबा असहाय है और सृष्टि और सृष्टा उदासीन।जब जुबान खोलने का मतलब मौत हो तब कवि ही है जो ज़िन्दगी का पता देता है।साहित्य के रूप में समाज की जो छाया प्रकट होती है वह लेखक के व्यक्तित्व के माध्यम से ही आती है।साहित्य के निर्माण में इस बीच की कड़ी एवं लेखक के व्यक्तित्व का बहुत महत्व है और इस महत्व की महत्ता इस वजह में है कि एक और इसका सम्बन्ध समाज से है तो दूसरी और साहित्य से। साहित्य रचना की प्रक्रिया में समाज लेखक और साहित्य परस्पर एक दूसरे को इस तरह प्रभावित करते है कि इनमें से प्रत्येक क्रमशः परिवर्तित और विकसित होता रहता है।समाज से लेखक, लेखक से साहित्य और साहित्य से पुनः समाज ।

--- (मार्क्सिस्ट क्वॉर्टलो मिसलेनिन्न में दैट पैयालाइजिंग एपेरिशन ब्यूटी निबंध)

'विद्रोही आत्माएँ' कविता में कवि समाज के वजनी नियमों के ऊपर जड़ीभूत दबाव से दवा हुआ लगभग खुद स्पन्दनहीन लेकिन लचर, बेबस लोगों का स्पंदन महसूस करता हुआ बदहवास सा चला जा रहा है खुद को भूलता दिल्ली से उज्जैन, मुक्तिबोध से रघुवीर सहाय तक ,एक शून्य में, शून्य से निकल कर दूसरे शून्य तक, अनन्य से न्याय तक, शोषित से शोषक तक, संघर्ष से शांति तक, दुख से सुख तक, अशुभ से शुभ तक।अब कवि बदल रहा है-

टटोलता हूँ खाँगालता हूँ अपने आप को

और पाता हूँ कि मैं वो नही हूँ

मैं वो नही रहा.... नही रहा वह

साहित्यकार जीवन संग्राम के योद्धा होता है तटस्थ  दर्शक नही। बदलना उसकी नियति है इंसान होने के लिए और अन्य को इंसान बनाने के लिए।

मैं मुक्तिबोध का 'सफल' उर शिष्य होना चाहता हूँ।

एक चाहत के साथ जीता कवि मुक्तिबोध की विचारधारा को खोज निकलना चाहता है ताकि जीवन के प्रति निष्ठा न डिगे संवेदना का उत्ताप बना रहे और वो समाज के मुखौटा को एक एक कार नोचता जाए।किसी भी रचनाकार की अभिव्यक्ति उसके अंतर्मन की खामोशी में दबी होती है , जब वह खामोशी को तोड़ता है तभी फ्रायड के शब्दों में पौ फटती है।

सारी ज़िन्दगी एक ज़लालत गर्क है

कि धरती का एक इंच, एक कोना नही छोड़ा

जहाँ तनकर खड़ा हो सकूँ और

एक बच्चे की मासूम मुस्कराहट जज़्ब कर सकूँ

जब एक गहरी ख़ामोशी पर्त्त- दर - पर्त्त कवि की चेतना में जमती है तब एक चिंगारी सी पाठक के सीने में अटक जाती है। ज़लालत भरे इस समय मे हाशिए पर पड़ा हुआ आदमी, राजनीति में मिली हुई रंगनीति, समाजवाद में मिला हुआ पूँजीवाद को देख निराश हो खुद से भी यही कहता दिखाई देता है।कवि आवाज़ है आम आदमी की।रक्त से सनी इस कविता में आतंक में लिपटा समाज, राजनीति, संस्कृति, अमानवीय तत्व, हिंसा, जघन्य अपराध दिखाई देता है।कवि जो कभी(मुक्तिबोध है तो कभी रामदास) जनता है कि हर युग मे ऐसे जघन्य समय का पर्दाफ़ाश करते हुए ' डोमजी उस्ताद' द्वारा मारा जाना तय है।डोमजी उस्ताद व्यक्ति नही प्रतीक है उस प्रकृति, उस स्वभाव, उस आन्तरिक प्ररेणा की जो आदिम काल से ज्यों की त्यों है। उनकी पहचान कठिन नही उनका विरोध ही कठिन है।सामाजिक यथार्थ की सच्ची पकड़ तथा मानवता के प्रति अदम्य विश्वास की व्यथा है कविता । कवि पीड़ित आत्माओं के नष्टप्राय शक्तियों के समुच्च को अपने अंदर समेट खुद को तिल- तिल कर मरते हुए जीने को मजबूर है।विद्रोही आत्माओं का रामदास या मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षक, परसाई की चीख हो या हो कि आम आदमी, सभी पीड़ा के जंगल मे जलते हुए अपने ही धुएं से धुआँ- धुआँ होते मानवीयता, प्रेम,उल्लास,उमंग की घटा के इंतज़ार में बैठे है।


गुलज़ार ने सही ही कहा है

आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने है...

इन पुराने मरासिम को एक कवि ही होठों की हँसी से रूबरू करा सकता है। उम्मीद तो यही की जानी चाहिए।


◆विन्सेन्ट वैनगॉग – प्रकृति का चितेरा

अलविदा उसने कहा 

और वो चला गया

अलविदा खुद अपने साए को जब कहना पड़े तो समझ लेना चाहिए कि ज़िंदगी में अब अपना हमनवा कोई नही है।  हमारे युग का सत्य जिसे जानना मानो अपने हाथों अपना कलेजा चीर देना। लेकिन सत्य को नकारे कैसे ? चलो नकार भी दें तो भविष्य तो कवि को कलम पकड़ा कर कहेगा लिखो कि तुम चुप्प क्यों हो। चुप्पी ज़िंदगी का अदृश्य लिहाफ़ है जिसे ओढ़कर ज़िंदगी में लौटा तो जा सकता है, किन्तु ज़िंदगी को लौटाया नही जा सकता।कवि कहता है कि विद्रूपताओं के विरुद्ध अनवरत अंतहीन संघर्ष की अंत: प्रेरणा से रची जाती है कविताएं । ह्रदय को दहकाकर लावा बना कर लिखता है कवि वैनगॉग पर। अब भाव लावा है ।शब्द उभर रहें है। एक डच इंप्रेशनिष्ट चित्रकार विंसेंट वैनगॉग के लिए।

कवि अनिल अनलहतु कविता रचते है कि मानो ज़िंदगी का सच रचते है।


“वैनगॉग को हम नवा मिल गया

बेबसी अब मुकद्दर नही

खौफ़ ऐसा है कि कोई शख़्स कुछ कहता नही

जाने किस तुफ़ान के सब मुंतशिर हैं।‘


कवि हर खौफ़ को लांघ जाता है।


“वहाँ उस और खेत की मेड़ों पर

कौए मंडरा रहे,

कैनवास के अधूरे चित्र

खून के कुछ छीटें पड़े हुए थे;

पता नहीं जीवन की किन स्थितियों का

चित्रण करते वह किस जंगल से

होकर गुज़रा कि...”


ऐसे ही लोग हमारे बीच से अलगाव का शिकार होकर गुज़र जाते है और समाज तसल्ली के साथ उन्हें जाता देखता है। समाज के इस क्रूर कठोर रवैया को नज़रंदाज़ करते हम किसी की मृत्यु जो आत्महत्या है सजग नही होते।

सभ्यता की प्रगति की एक ही निशानी है कि समय समय पर आदमी ने हत्या के प्रति उदासीनता दिखाई है।तभी तो ज़िंदगी की बर्बर अभिव्यक्ति का फ़लसफ़ा लिखा गया।

किसी व्यक्ति की चेतना यानी इच्छा या कल्पना का चरित्र जो भी हो सामाजिक अस्तित्व लोगों के साथ उनके संबंधों और जीवित रहने की सुविधा देने वाली चीजों से वातानुकूलित होता है,जो मूल रूप से दूसरे के साथ सहयोग पर निर्भर होता है। लेकिन हम मनुष्य तो अलगाव के लिए ही जैसे बना है तभी तो हम महान चित्रकार, कवि को खो देते है।

किसी को उसकी आवश्यक प्रकृति से अलग करना फिर उसके जीवन में अर्थ की अनुपस्थिति, आत्मपूर्ति के अवसर के बिना जीने के लिए मजबूर करना उसको उसकी वास्तविकता से दूर करता समाज हत्यारा है। मार्क्स हो, गोरख हो,राजकमल हो ये तो सिर्फ नाम है असल में जो आज के दौर में जो मनुष्य होना चाहते है वह तो अधूरी रचना मात्र है क्योंकि उन्हें जीवन और मैं के साथ जीने ही नही दिया जाता। समाज तो चेतना रखता ही नही। जड़विहीन समाज से हम उम्मीद भी क्या रख सकते है। कभी व्यक्ति और समाज की शक्तियों के बीच एकात्मक प्रति के सेतु थे। व्यक्ति और समाज परस्पर पूरक थे इसलिए जीने की जिजीविषा भी थी। मार्ग के प्रतिबन्ध नहीं थे। 



नथिंग केन इवाल्व व्हिच इज नॉट इनवाल्ड


चित्रकार लड़ रहा है अपने चित्र के ज़रिए और कवि अपनी लेखनी के

रियालिज्म ब्रेटोल्ट ब्रेष्ट लिखते है ; "लेखन के लिए लड़ो! जीवन को बोलने दो।

समाज की विद्रूपताओं से ही लेखनी बद्ध होकर मुखर होती है। पर डर इस बात का है कि कवि की क्रांति दमन का मुखौटा लगाकर कहीं आम आदमी के ही खिलाफ़ न खड़ी हो जाए। और एक बार फिर वैनगॉग

न मारा जाए।क्योंकि संस्कृति राजनीति के साथ स्थाई भले ही संबंध न बनाएं लेकिन आंशिक समझौते के साथ, साथ साथ खड़ी तो हो ही जाती है। 

सत्य की विजय मात्र सुभाषित है।


“उसने "आलुखोरों"1 व "सिएनों"1 के बीच

अपने वसंत गवाएं थें;

उसकी रातें "नाईट कैफे"1 की टूटी उजड़ी

वीरान ख़ामोशी में गुजरी थीं,

अपने लाश पर मंडराते कौओं को वह

"गेहूँ के खेत"1 में देख चुका था

और "तारों भरी रात"1 में सबसे ज़्यादा

अपने-आप से डरता था।“


तभी तो पूरा जीवन अपनी कला में गॉग जैसे चित्रकार अपनी चरम पीड़ा में विघटन का विरोध करने के लिए, लोगों को संगठित करने के लिए गहन प्रयास करते है और मर जाते है। गेहूं न केवल लोगों के भरण पोषण का प्राथमिक रूप है बल्कि मानव जीवन के पकने का भी प्रतीक है। गॉग इसके ज़रिए एक ईमानदार, शारीरिक श्रम का भी प्रतिनिधित्व करते अपनी पेंटिंग में दिखाई देते है।

एक कवि हो या चित्रकार या हो मूर्तिकार सिर्फ सौंदर्य बोध की कला ही नही रचता वह यथार्थवाद को भी रचता है । इसलिए गॉग गेहूं के खेत की चमकदार गुणवत्ता गति को दर्शाते है। 

गेहूं की बालियों से चमकदार जीवन पर कौए रूपी अशांति जब उड़ती है तब जीवन बेतरतीब हो कर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

प्रकृति चाहें कितनी ही सुंदर क्यों न हो मनुष्यता की खुशबू जैसे ही ख़त्म होती है तब ज़िंदगी में रहा जाने का कोई रास्ता ही नही बचता।


“वह अपने ही आत्म-चित्रों (सेल्फ-पोट्रेट्स) से होकर

गुजरता रहा हर बार, बार–बार,

जिस क्षण जीवन को बचाने की

अंतिम आकुलता में

मारी थी गोली उसने वैन्गाग को,

ठीक उसी क्षण

विएना की किसी बदनाम गली के

आखिरी छोर पर

एक व्यभिचारिणी के गर्भ में

चीखा था हिटलर।“


प्रत्येक पथ मानवीय नही होता। हम न जाने कितने पथ का अनुकरण करते है। कभी रास्ते अहंकारी राजमार्ग बन जाते है तो कभी विनम्र पगडंडी। लेकिन हर बार या यूं कहें की बार बार हमें अपने आत्म तत्व की ही तरफ लौटते है । यही एक जीवनशक्ति, वाईटल फोर्स ही "संभावनाओं" को सम्भवन और चरम तक ले जाता है। एक कवि इस आत्म तत्व से पहुंचता है हर दर्द ,दुख तक।

लेकिन ऐसा क्यों होता है जबकि हम में से कुछ लोग इस तत्व को नकार देते है और खड़े हो जाते है पूरे मानवता के विरुद्ध। उनके नाम कोई भी हो सकते है लेकिन सत्य तक पहुंचाने का कवि का विश्वास वनपंथो, अरण्यों में छिपे सत्य को खोज कर समाज के सामने ले ही आता है। 

 

“बहुत दिनों तक वह एक शून्य पर

न्यूटन की सोच मुद्रा में

बैठा सोचता रहा

जीवन के धुंध और धुंधलके में आँखे गड़ाए,

और जब उसने पाया कि

सारी दुनिया ही

अंधेरे से होकर अंधेरे तक

जाती है

तो वह शुन्य को उल्टा कर

उसके भीतर घुस गया।“


आदमी की पीड़ा को शब्द देना बड़ा मुश्किल है । उसके लिए शून्य से शुरू करके धीरे धीरे मनुष्य हुआ जाता है । इस महान सत्य को कवि अनिल अनलहतु ही समझ सकते है ।

एक रहस्मयी आत्मा की चाहत लिए कवि अनलहतु खोज निकलाते है गॉग जैसे लोग, जो सिर्फ मनुष्य थे । उनकी गलती मनुष्य होना थी। 

कवि की जीवन के प्रति निष्ठा न डिगे, संवेदना का उत्ताप बना रहे इसलिए अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति में उन सभी चीखों को शामिल करता है जो क्षणिक सुख के लिए ऊंटों की पीठ से फिसल कर गेहूं के खेत में मृत्य पाई गई।


“चीख पड़ता हूँ मैं एकबारगी

की समाज के माथे

और आदमी के चेहरे के नकाब के पीछे

जो छिपा बैठा है

निकालो उसे, बाहर करो,

कौन है वह

जो छोटे-छोटे बच्चों को

ऊँटों की पीठ से बांधता है?

इस शताब्दी के सबसे बड़े कवि को

दिल्ली की अँधेरी कोठरियों में ढकेलता

सिजोफ्रेनिया तक ले जाता है,”


जिंदगी के करवा में मौत की ठिठोली एक दम नही होती। निर्माण, उच्चाटन और श्रेय की परिभाषा अलगाव का कारण बनती है।  यही सिजोफ्रेनिया तक ले जाती है। यही राजकमल को गंजेडी बनाती है । यही वैन गॉग को आत्महत्या करने पर मजबूर करती है।

कवि एक और मौत का साक्षी बना उसके साथ साथ अंतिम गंतव्य तक जा रहा है, और मैं जा रही हूं साक्ष्य इकठ्ठा  करने क़ब्र के मुहाने पर जिन्हे कवि वहाँ छोड़ आया है।

आज एक बार फिर 29 जुलाई है और यह है, डच चित्रकार वॉन गॉग जो कहा रहा है शुक्रियां कवि और उतर रहा है अपनी अंतिम पेंटिंग  के साथ क़ब्र में ।

और अंत में यह कविता न जिंदगी का मंत्र है न कोई आख्यान न ही पीड़ा का दस्तावेज बल्कि आदमी की जीने की चाहत की मासूम अभिव्यक्ति है और श्रद्धांजलि है उन तमाम रचनात्मक कार्य करने वाले लोगों के लिए जिन्हें समाज ने उनके मनुष्य होने की सज़ा दी।


 बक़ौल

 कैफ़ी आज़मी

रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई

तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई


निष्कर्ष

 वैदिक वाड्मय का कहना है कि जो ज्ञान अथवा अनुभाव अन्तर्मन की गुहा में निहित है, वही शब्द प्रतीक के माध्यम से मूर्तरूप धारण कर लेता है।

Transcendental consciousness is an impersonal spontaneity.

ज्यां-पाल सार्त्र ने इसे निर्वेयक्तिक चेतना का सार्वभौम स्पंदन यूँ ही नही कहा क्योंकि इस प्रकार के प्रकटीकरण से ही व्यक्तिगत संवेदना के परे उसमे एक सर्वजनीनता आ जाती है।"बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ" की  कविता रचनात्मक आवेश की ऐसी चित दशा की संकेत है जो कवि की उंगली पकड़कर शब्द रूप में स्फुरित हो उठी है।

The linguistic sign unites, not a thing and a name but concept and a sound image.

एक भाषागत शब्द वास्तव में किसी वस्तु को उठाकर नही रखता बल्कि विचार और बिम्ब को जोड़ देते है।

कवि अनिल अनलहतु आंतरिक संघर्ष और बाह्य संघर्ष के बीच द्वंद्वात्मक भौतिकवादी के यथार्थ बोध से ज्ञानात्मक धारा में डूबते है, और एक फैंटेसी से रचते चले जाते है। लेकिन यह फैंटेसी वह है जोकवि के काव्य- बोध को सघन शिल्प, संवेदना में रचा बसा कर उद्वलित करता है। अनिल अनलहतु का शिल्पविधान बहुत ही मौलिक है जो जादू से जगता है।विरल कवि दृष्टि के कारण घटित हुए जीवन का उत्कृष्ट अनुभव अनिल अनलहतु करते हुए भावनात्मक अंतर्द्वंद के बहुत बारीक व मर्मस्पर्शी चित्र खिचते है।कवि ने मुक्त छंद की कविताओं में भाषाशैली, काव्यभाषा, बिंब, प्रतीक, अलंकार का बेहतरीन चित्रण किया है।भारतीय जीवन शैली की त्रासदी पीड़ा और सामाजिक तनाव को फैंटेसी के द्वारा यथार्थ का चित्रण किया है।प्रतीकों द्वारा कथ्य को स्पष्ट तो कहीं- कहीं रहस्यात्मक व काव्य शिल्प को जीवंत बनाया है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि वर्तमान समय मे जबकि यथार्थवादी विचारशीलता की प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है ऐसे में कवि अनिल अनलहतु की कविता का मूल्यांकन बेहद जरूरी है। वह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कवि ने समाज मे मुख्य धारा से कटे एवं साधारण भारतीय समाज के तबके को अपनी कविता में महत्व दिया है।"बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ" का पुनः पुनः पाठ, होना चाहिए यह कहना जरूरी है लेकिन उससे भी बेहद जरूरी है कि कवि का कथ्य या संदेश तो स्पष्ट है लेकिन कविताओं की बनावट बेहद जटिल जो आम पाठकों को कम समझ मे आती है। कवि को अपनी इस दुरूह लेखन शैली पर ध्यान देना चाहिए ताकि आम पाठक भी उनकी कविता को समझ सके।




Sunday, March 12, 2023

पानी का पहरुह -- अनुपम मिश्र

जीवन मुट्ठी की रेत की तरह फिसलता है। पल- पल निकलते लम्हें ज़िन्दगीं की तलाश करते है।समय की चाल बेअसर हो आगे सरकती रहती है।शैने- शैने जीवन यूँ ही निकल जाता है, निष्प्रयोजन।

हमारी कामनाओं का आकाश तो हमेशा खुला रहता है लेकिन कर्मों और विचारों की पगडंडिया बंद रहती है।टूटे मन और खंडित व्यक्तित्व की इस भीड़ में लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है जो न सिर्फ अपने बारे में बल्कि पूरे समाज के बारे में जीवन के बारे में भी सोचते है और ऐसे जीते है जो पानी पर भी अपनी कहानी लिख जाते है।

जी हां मैं बात कर रही हूँ, भारतीय गाँधीवादी, लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद, Ted व्यक्ता व जल संरक्षणवादी अनुपम मिश्र की।


"भाषा लोगों को तो आपस मे जोड़ती ही है, यह किसी व्यक्ति को उसके परिवेश से भी जोड़ती है। अपनी भाषा से लबालब भरे समाज मे पानी की कमी नहीं हो सकती और न ही ऐसा समाज पर्यावरण को लेकर निष्ठुर हो सकता है। इसलिए पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करने वाले लोगों को अपनी भाषाओं के प्रति संजीदा होना पड़ेगा। अपनी भाषाओं को बचाए रखने, मान- सम्मान बख़्शने के लिए आगे आना होगा। यदि भाषाएं बची रहेंगी तो हम अपने परिवेश से जुड़े रहेंगे और पर्यावरण के संरक्षण का काम अपने आप आगे बढ़ेगा।" -- अनुपम मिश्र


पर्यावरण के प्रश्न को पारंपरिक दृष्टि से निकाल कर उसमें एक नये विचार का समावेश करना और उसे भाषा से जोड़ने की अनुपम दृष्टि "अनुपम मिश्र" जैसे पर्यावरणविद की ही हो सकती है। तकनीकी साँचो से सुलझा कर स्वभाषा के साथ जोड़ने की कवायद कोई पर्यावरणविद कैसे कर सकता है जब तक उसमें साहित्य की लोकभाषा की समझ न हो।

इस बात पर कितना आश्चर्य होता है न कि लोकभाषा हमारे बीच से कितनी तेजी से विस्मृत हो रही है। शायद आज के समय ही ऐसा है जो हर चीज को विस्मृत करता चला जा रहा है , तब भाषा को बचा कर पानी को बचाने की बात एक पर्यावरणविद ही कर सकता है या कोई छिपा साहित्यकार।

यह जानने के लिए की आख़िर अनुपम मिश्र ने क्यों, कैसे भाषा को पानी से जोड़ा हमें उनके बारे में जानना होगा।

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्रा और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के यहाँ सन 1948 में हुआ था। हिन्दी के कवि के यहाँ जन्म लेना ही उन्हें भाषा के पास ले लाया। एक लेख में अनुपम मिश्र ने बताया कि उनके पिता घर पर कभी भी अंग्रेजी का प्रयोग नही करते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्होंने कभी लोक भाषा एवं हिन्दी भाषा का साथ नही छोड़ा।

सन १९६८ में संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से लेने के बाद अनुपम मिश्र दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़ गए। संस्थान के मंत्री राधाकृष्ण के कहने पर एक चिट्ठी लेकर बीकानेर सिद्धराज ढ़डढ़ा जी के पास गए। वहाँ जाकर अनुपम जी ने पहली बार बरसात के पानी को जमा किया हुआ देखा, जो उनके लिए बहुत ही आश्चर्य का विषय था। पहला तो यह कि बरसात का पानी इकठ्ठा करने की जरूरत को देखकर यानि कि पानी की इतनी असुविधा और दूसरा की पानी जमा करने का तरीक़ा जो बहुत ही प्राचीन था। उन्होंने एक कुंड ( टांका)में जो घर के आंगन में स्थित था और जिसमें बरसात का पानी लगभग एक साल के लिए इकठ्टा किया गया था, उसे देखा तो जाना कि पानी की किल्लत और उसे सहेजना क्यों जरूरी है। 

मरुभूमि में पानी का संग्रह उन्होंने क्या देखा उनका जो आंतरिक रूपांतर हुआ उससे उनकी ज़िन्दगीं ही बदल गई। इसी घटना के बाद अनुपम मिश्र पानी और पानी अनुपम मिश्र दोनों ही एक दूसरे के पर्याय बन गये।

अनुपम मिश्र इस घटना के बाद ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत हो गये और उन्होंने इस और कार्य की भी शुरुआत कर दी जो उनकी मृत्यु तक चलती रही।

यह वह समय था जब देश मे पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नही खुला था। सरकार और जनता का शायद ही इस विषय पर ध्यान जाता हो।लेकिन अनुपम मिश्र पर्यावरण- संरक्षण के मुद्दे पर बहुत ही गंभीर थे, और निरन्तर जनचेतना और सरकार को जागरूक करने में लगे हुए थे।

अनुपम मिश्र लगातार बिना सरकारी मदद के पर्यावरण पर पूरी तल्लीनता से कार्य कर थे। जैसे सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम , सूख चुकी अखुरी नदी का पुनर्जीवन। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजिस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवन, बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का कार्य भी किया है। तरुण भारत संघ के अध्यक्ष रह कर उनके पानी के लिए किये गए कार्य भी अद्वितीय है।उनके काम को देखें तो उन्होंने पर्यावरण पर क़ाबिले तारीफ़ काम किया है।

अद्भुत, अतुलनीय, अनोखा, अप्रतिम, बेमिसाल, अनुठा, अपूर्व, बेजोड़ उनके नाम के समानार्थी उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। सोये, ऊबे, उदासीन समाज मे लुप्त होते पानी के प्रति चेतना जागृत करने का काम कोई अनुपम ह्रदय वाला ही कर सकता है। उनकी हर कोशिश सिर्फ पर्यावरण के लिए ही थी। वह पानी के लिए ही अपनी कोशिश के जरिए पहचाने गये। उनकी सबसे बड़ी बात यह रही कि उन्होंने ऐसे लोग तैयार किये जो बिना किसी शौर शराबे के अपने - अपने अंचलों में, समुदाय के बीच उनकी आवाज बन कर पानी की पहचान बन कर काम मे लगे है।

वह खुद पर्यावरण के किसी एक कार्य तक सीमित नही रहे। उन्होंने न सिर्फ पानी के संरक्षण का कार्य किया बल्कि बाढ़ जैसी भयावह समस्या का हल बताया। उनका पर्यावरण को देखने व समाधान का तरीक़ा बिल्कुल ही अलहदा था। उन्होंने जल संकट का समाधान ऐसे रूप में प्रस्तुत किया कि जल संकट समाधान विश्वसनीय व कम लागत वाला लगा।

अनुपम मिश्र हर बार कहते थे कि पर्यावरण की समस्याओं का समाधान उसका हल हमारे पास सदियों से हमारे लोक में है। बस हमें इतना भर करना है कि हम उन बिसार दिये को पुनः याद करें और उन्हें थोड़ा सा झाड़- पोछ कर अपना लें। उनका कहना था कि मुश्किल यह है कि लोक के यह तरीक़े हमारी कुंजी थे , हम ने उस कुंजी को दूर फेंक दिया है अब पर्यावरण का सुधार हो तो कैसे ?

अनुपम मिश्र ने उस कुंजी को न सिर्फ खोजा बल्कि उससे पर्यावरण को खोला भी। उन्होंने ऐसे सभी लोक कार्य जो जल को संरक्षित करते है, उस पर कार्य किया। उनका कहना था कि जीवन पांच महाभूत से बना है अगर उस पर संकट आएगा तो सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक संकट भी उठ खड़े होंगे।इसलिए जरूरी है कि हम पांच महाभूतों की बेहतरी के लिए कार्य करें।

मध्यकालीन भारत मे जल व्यवस्था का विश्वकोश जो अनुपम मिश्रा ने तैयार किया था। जिसमें जल संग्रह के भूले- बिसरे तरीक़ों को ही नही पुनर्जीवित किया बल्कि अप्रचलित हो चुके शब्दों को भी पुनर्जीवित किया। अपनी अनुसंधान प्रक्रिया में उन्होंने प्राचीन भारत की जाति  व्यवस्था उसके आर्थिक आधार के ढांचे का भी प्रामाणिक आधार खड़ा किया।

किसी भी कार्यक्षेत्र में कार्य करना बहुत ही महत्वपूर्ण है लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उस कार्य को ही जीवन मे उतार लेना लेकिन शायद उससे भी बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है दूसरों को अपने कार्य से इस कदर बदल देना की वह एक परम्परा बन जाए।

बस यही अनुपम मिश्र ने पर्यावरण पर किया, जो उन्हें दूसरे से जुदा करता था। उन्होंने भाषा और साहित्य के साथ पर्यावरण को तो जोड़ा ही उन्होंने खुद को प्राचीन लुप्त पर्यावरण परम्परा से खुद को जोड़ा कर इतिहास रच दिया।



एक बानगी देखिए -- "आज भी खरे है तालाब" 

तालाब निर्माण करने वाली अनेकानेक जातियों में से एक है – गजधर. गजधर वास्तुकार थे. गांव-समाज हो या नगर-समाज, उनके नवनिर्माण की, रख-रखाव की जिम्मेदारी गजधर निभाते थे. नगर नियोजन से लेकर छोटे से छोटे निर्माण के काम गजधर के कंधों पर टिके थे. वे योजना बनाते थे, कुल काम की लागत निकालते थे, काम में लगने वाली सारी सामग्री जुटाते थे और इस सबके बदले वे अपने जजमान से ऐसा कुछ नहीं मांग बैठते थे जो वे दे न पाएं. लोग भी ऐसे थे कि उनसे जो कुछ बनता, वे गजधर को भेंट कर देते. काम पूरा होने पर पारिश्रमिक के अलावा गजधर को सम्मान भी मिलता था. सरोपा भेंट करना अब शायद सिर्फ सिख परंपरा में ही बचा है पर अभी कुछ ही पहले तक राजस्थान में गजधर को गृहस्थ की ओर से बड़े आदर के साथ सरोपा भेंट किया जाता रहा है. पगड़ी बांधने के अलावा चांदी और कभी सोने के बटन भी भेंट दिए जाते थे. जमीन भी उनके नाम की जाती थी. पगड़ी पहनाए जाने के बाद गजधर अपने साथ काम करने वाली टोली के कुछ और लोगों का नाम बताते थे, उन्हें भी पारिश्रमिक के अलावा यथाशक्ति कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी. (पृ. १८, आ.ख.ता.) 

"आज भी खरे है तालाब" हमारी लुप्त होती जल सम्पदा को दर्शाती पुस्तक है। जो कहीं न कहीं हमें इस भाव से भारती है कि हमारी लोक संस्कृति बेहद समृद्ध थी। इस पुस्तक में जलाशयों का ज्ञान ही नही बल्कि जिन्हें जलाशयों ज्ञान था उनकी लोक संस्कृति, अंधविश्वास, लोक मान्यताएं, लोक साधनाएं, मेले- ठेले ( जो अधिकाशतः मंदिर, तालाब, नदी आदि के पास लगते थे ) लोक विश्वास, जातियां, मिथक, खानपान, प्रेम, विवाह, न्याय, अन्याय इसमें संदर्भित है।

असल मे भारत मे लोक- मान्यताएं ही ऐसी है जिसमें कोई भी कार्य चाहें वह तालाब बनाने का हो या कुआँ खोदने का उसमें हमारे आपसी संबंध, खानपान, उत्सव, शामिल हो जाते है। इसे हम आज भी छत ढलते समय देख सकते है।

अनुपम मिश्र ने पर्यावरण को साहित्य में भी समेटा है जिसमें पुस्तक हैं--

◆राजिस्थान की रजत बूँदे

◆साफ माथे का समाज

◆ आज भी खरे है तालाब


"आज भी खरे है तालाब ब्रेन लिपि सहित तेरह भाषा मे प्रकाशित हुई है। इसकी एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं।


पुरुस्कार और सम्मान --

अनुपम मिश्र को २००९ में टेड ( टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित किया था।)

"आज भी खरे हैं तालाब" के लिए उन्हें २००११ में देश के प्रतिष्ठित 'जमनालाल बजाज पुरस्कार' से समानित किया गया था।

१९९६ में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार 'इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। उन्हें 'कृष्ण बलदेव वैद' पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।


प्रकृति सदा से है। सदा रहेगी। लेकिन संस्कृति मनुष्य का सृजन है। मनुष्य और अस्तित्व की प्रीति रीति और चित्त का संस्कार भी। अनुपम मिश्र को यह चित्त के संस्कार अपने पिता भवानी प्रसाद मिश्र से मिले थे। तभी उन्होंने संस्कृति के सतत सृजन कर्म और उसके सबसे बड़े फल भाषा को अपने कार्य का आधार बनाया। असल मे भाषा अद्भुत लब्धि है। लोक भाषा हमें गढ़ती है। बेशक हमनें ही भाषा गढ़ी लेकिन उस भाषा ने जिन मनुष्यों को गढ़ा उन्होंने भाषा को सामाजिक संपदा बना दिया। इसके सबसे बड़े उदाहरण अनुपम मिश्र थे। उन्होंने लोक भाषा के लोक व्यवहार से ही जाना कि एकाकी की कोई संस्कृति नहीं होती। इकाई होना दुख और अनंत होना आनंद है। इसलिए उन्होंने पर्यावरण के प्रश्न पर लोगों को जोड़ा साथ ही जोड़ा अपने साथ परंपरागत भाषा व्यवहार। जिससे उन्हें परंपरागत जल सहजने के तरीक़े, बाढ़ से निपटने के तरीक़े आदि पता चले।

उन्होंने लोक भाषा के माध्यम से लोक व्यवहार को और फिर पर्यावरण को समझा।असल मे वेद की ऋचाएं ही मानव और प्रकृति की प्रथम ध्वनियाँ थी। जो धीरे- धीरे लोक में बसी, और इसी लोक को पकड़ कर अनुपम मिश्र ने हमें हमारी भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व पर्यावरण से मिलवाया।

अनुपम मिश्रके लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि हम इस मिलन को स्थाई बना लें और पर्यावरण की इस धुन को सुनते रहे। जो कह रही है कि --

जलम् एव जीवनम् और लोक ही भारतीय अनुभूति का परम तत्व।






 

     

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Monday, November 14, 2022

भारतीय अनुभूति का प्राणतत्त्व -- प्राणवायु

नेशनल जियोग्राफिक की एक डॉक्यूमेंट्री देख कर उठी हूँ। चीन के प्रदुषण, भारत की घटती बारिश, मैक्सिको का जल संकट फ्लोरिडा अमेरिका के मौसम की विचित्रता और भी कुछ है लेकिन मैं घबरा कर अब भारत की राजधानी के राजपथ पर खड़ी हूँ भूलना चाहती देखा हुआ, जीवन को महसूस करना चाहती हूं। सांझ को विदा करना चाहती हूं सुबह का स्वागत करना चाहती हूं। 

लेकिन देखती हूँ धुंध में खोती जा रही हूँ हर तरफ धुँआ ही धुँआ, गैस चेम्बर में बदलता हुआ शहर की हालत देख जैसे ही गहरी सांस लेती हूँ तो तमाम जहरीले कणों व प्रदूषक गैसों का तमाम हिस्सा मन मस्तिष्क को जैसे हिला देता है। दिल मे गुबार होठों पर उदासी लिए मैं खोज रही हूँ उस जगह को जहां जाने पर सांसों को सुकून मिले दिल का गुबार निकले।
किसी शायर का शेर याद आता है कि

सांस लेता हूँ तो दम घुटता है
कितनी वे- दर्द हवा है।

ऐसा क्यों हुआ ???
कैसे हुआ ??
इस पर चिंतन करना बेमानी है। कैसे ठीक हो सिर्फ इस पर बात होनी चाहिए। इसलिए जान लेते है कि हमारी जान को जान आए वो चीज क्या है ? तो चलिए रूबरू होते है प्राणवायु से --

ऑक्सीजन या प्राणवायु या जारक रंगहीन, स्वादहीन तथा गंधहीन गैस है। यह एक रासायनिक तत्त्व है जिसके प्रारम्भिक अध्ययन में जे. प्रीस्टले और सी. डब्ल्यू . शेले ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। प्रिस्टले ने मर्क्युरिक - ऑक्साइड को गर्म करके ऑक्सीजन गैस तैयार किया।एन्टोनी लौवोइजियर ने इस गैस के गुणों का वर्णन किया तथा इसका नाम ऑक्सीजन रखा, जिसका अर्थ है 'अम्ल उत्पादक' ।

ऑक्सीजन अपने प्रकार का एक अलग और महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है वातावरण में पांचवा हिस्सा अक्सीजन का ही है अक्सीजन तकरीबन सभी तत्वों के साथ मेल कर सकती है संजीवों में ऑक्सीजन, हाइड्रोजन , कार्बन और अन्य के साथ मेल से रहती है मनुष्य के शरीर के भार का 2/3 हिस्सा पूर्णता ऑक्सीजन मिले तत्वों का ही है।

वैज्ञानिक व्याख्या है लेकिन इससे इतर प्राणवायु की विस्तृत व्याख्या हमारे ऋषियों ने की है प्राचीन ग्रंथ वेदों में। आइए जानते है जिसे हमारे ऋषि प्राणवायु कहते थे वो क्या है ? और कहाँ से गमन करती है ? 
प्राणवायु का मूल स्रोत सूर्य है, सूर्य से निःसृत ऑक्सीजन अर्थात प्राणतत्त्व समस्त विश्व को अनुप्राणित करता है। प्राणतत्त्व अति सूक्ष्म है। इसी का स्थूल रूप प्राणवायु है। प्राणों को स्थिर या संचालित रखने के इसी गुण के कारण ऑक्सीजन प्राणवायु कही जाती है।

क्या ऑक्सीजन के स्तर में वृद्वि ने प्राणियों के जीवन के विकास को बढ़ावा दिया है, या इसके विपरीत हुआ? यह एक बड़ा प्रश्न है जो जीवों के जीवन के लिए बेहद जरूरी है। यह मनुष्य के पशु- पक्षियों के कीट- पतंगों के इस पृथ्वी पर रहने रूपने की विकास यात्रा भी है।
नियोप्रोटेरोज़ोइक युग के दौरान ऑक्सीजन के स्तर में एक साधारण  वृद्धि के बजाय, वातावरण में ऑक्सीजन स्तर में काफी बदलाव आया है। दस लाख वर्षो में, ऑक्सीजन का स्तर 0•3 प्रतिशत रह गया है। वायुमंडलीय ऑक्सीजन का स्तर काम होना बेहद दुःखद है मनुष्य के लिए लेकिन डायनासोर जैसे जीवों के विलुप्त होने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

पृथ्वी और प्राणी के लिए के लिए बेशक यह महत्वपूर्ण है कि ऑक्सीजन का स्तर बढ़ाने पर विचार हो। पृथ्वी और प्राणी पर यह केंद्रित दृष्टिकोण है।
पृथ्वी पर ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत एक प्रक्रिया के जरिए ही पैदा हुआ जिसे प्रकाश संश्लेषण कहा जाता है। यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा पौधे और सूक्ष्म जीव सूर्य के प्रकाश पानी और कार्बनडाइऑक्साइड का उपयोग शर्करा के रूप में ऑक्सीजन और ऊर्जा बनाने के लिए करते हैं।
वायुमंडल में उपस्थति ऑक्सीजन की 60 से 80 प्रतिशत तक आपूर्ति समुद्र में तैरने वाले छोटे हरे पौधे से होती है जिन्हें 'प्लवक' (फयटोटले कटान) कहा जाता है। शेष अपूर्ति जंगलो से होती है। विशेषकर अमेजन के विशाल एवं संघन वनों से जिन्हें "धरती का फेफड़ा" कहा जाता है। 

एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में 03 खरब पेड़ है जो हर वर्ष 60 अरब टन ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। ऑक्सीजन के लिए पेड़ पौधों के निकट जाना कितना जरूरी है यह जितना जल्द आत्मकेंद्रित एवं भौतिकवादी इंसान समझेगा उतना ही अच्छा होगा।

वायु के महत्व को उल्लेखित करते हुए अथर्ववेद में कहा गया है कि वायु आकाशीय जल को सर्वत्र  पहुंचाने में सहायक होती है जिससे अन्नादि में समृद्वि आती है।
वेदों में वायु को सम्मान देते हुए कहा गया है कि वायु हमारी रक्षा करें
त्रायन्ता मस्तां गण:
अर्थात हे वायु हमारी रक्षा करो। प्रकृति में रहे असंतुलनों में वायु के रौद्र रूप जैसी आंधी तुफान से होने वाले नुकसान के प्रति वेदों में प्रार्थाना की गई है। कि हे वायु देवता हमारी प्रार्थना है कि आप हमेशा ही प्राणिमात्र के लिए अनुकूल रहें।
पञ्च वायु को पंच प्राणवायु के नाम से भी जाना जाता है। आकाशादि पञ्च महाभूतों के राजस अंश से समष्टि रूप में पंच वायु की उत्पत्ति होती।
एतत्प्रणादि पञ्च कमाकाशादिगतर जोडशोभ्ये मिलितेभ्य उत्पछते

जीव प्राणियों के शरीर मे विचरण करने वाली वायु ही पञ्च वायु है।
शरीर में प्राणादि पञ्च वायु के प्राण अदान, समान, त्यान और रसादि को प्रेरित करने वाली तथा सम्पूर्ण शरीर मे विचरण करने वाली त्यान वायु है। यह वायु स्वेद एवं रक्त का संचार करती है। इस वायु की पांच प्रकार की चेष्टाएं है-- 
१. प्रसारण
२.आकुंचन
३.विन्नमण
४.अन्नमन
५.तिथर्यम गमन
वायु को हम तीन तरह से समझ सकते है--
१. अधिभौतिक
२.आधिदैविक
३.आध्यात्मिक
आधिदैविक शब्द आधि उपसर्ग पूर्वक दिव धातु से निष्पन्न है। दिव का अर्थ है प्रकाशित करना या चमकना।
ऋग्वेद में वायु शब्द देवता का बोधक है। पाप विमोचक वायु समस्त पापों से मुक्ति दिलाने वाले है " विमुमुक्तमसमे।" ।
असीम शक्तियों के अधिवति होने के साथ- साथ वायु अमृत तुल्य भी है अतः वायु से प्रार्थना की गई है कि तुम्हारी जो आमरण की शक्ति है वह हमारे जीवन के लिए दो क्योंकि तुम हमारे पिता, भाई, और बन्धु हो। इस आमरण शक्ति के कारण ही तुम लोक कल्याणकारी कर्म में नियुक्त किये गये हो।
उपरोक्त बातों से हम समझ सकते है कि वेदों के ऋषि वायु के प्रति क्या अनुराग रखते थे असल मे उनकी यही संवेदनशीलता उन्हें न सिर्फ वायु जैसी जरूरी तत्व बल्कि सृष्टि के प्रत्येक तत्व के प्रति ग्रहणशील बनाती थी और ऐसा क्यों न हो क्योंकि पञ्च तत्व जीवनशक्ति, वाईटल फोर्स ही जीवन की सारी संभावनाओं को सम्भवन पर ले जाते है। इसलिए पञ्च तत्व प्राणऊर्जा है।

हे धावा पृथिवी, मधु मिमिक्षत्तम 

प्रकृति की सभी शक्तियां एक सुनिश्चित विधान में चलती है। ऋत नियमों से बड़ा कोई नही होता। वायु से आयु है। लेकिन दूषित वायु से आयु खोते हम जीवन- मरण के प्रश्न में उलझ गए है। 
विश्व का यह प्रश्न कितना जरूरी यह हम कोरोना काल मे देख चुके है। 
पूर्ण से पूर्ण को अगर घटा दिया जाए तब भी पूर्ण ही बचता है। यह प्राण को अगर समझना हो तो केवल आधात्म से ही समझा जा सकता है और प्राणवायु को भी। प्राण ब्रह्मांड का स्पंदन है। यह ब्रह्मांड ग्रहों व नक्षत्रों के माध्यम से सांस लेता है और मनुष्य भी अपनी सांसों के माध्यम से इस ब्रह्माण्ड से जुड़ा है प्राण के कारण ही जीव को प्राणी कहा जाता है और सांस को प्राणवायु।
जीवन नृत्य की शुरुआत क्या प्राणवायु बिना की जा सकती है। प्राण-वायु का संयोग जीवन और वियोग मृत्यु है। सघन वायु है तो गहन है जहां है तो अन्न है। शरीर के भिन्न अंगों में प्रवाहित पांच वायु का वर्णन चरक संहिता में आता है जो हमारे विनाश और विकास, सुख और दुख का भी कारण बनती है।
 
ऑक्सीजन का महत्व एवं उपयोग --
१.धातुओं को जोड़ने एवं तोड़ने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।
२.ऑक्सीजन जल में घुलनशील होती है जो श्वसन के लिए उपयोगी है।
३. वो लोग जो पर्वतारोही होते है वो अथवा अधिक ऊंचाई पर उड़ान में  सिलेंडर का उपयोग किया जाता है।
४.रॉकेट ईंधन में द्रवित ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।
५.सल्फर से सल्फ्यूरिक अम्ल व अमोनिया से नाइट्रिक अम्ल के उत्पादन में ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।
६. वैल्डिंग के लिए प्रयुक्त की जाने वाली ऑक्सी-- एसिटिलीन में भी ऑक्सीजन का प्रयोग होता है।
७.सल्फर से सल्फ्यूरिक अम्ल व अमोनिया से नाइट्रिक अम्ल के उत्पादन में ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है।

इन उपयोग से भी बढ़कर ऑक्सीजन का उपयोग प्राणों को संजोने के लिए किया जाता है । जीवों की उत्पत्ति उनके जीवित रहने के लिए इस प्राणवायु का होना कितना जरूरी है यह बताने की जरूरत नही। अब जबकि हम प्राकृतिक युग से निकल कर भौतिकयुग में भटक रहे है और कोरोना जैसी महामारी से दो- चार हो चुके है तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि माशूका की सांसों की खुशबू के आगे की महत्वपूर्ण चीज है ऑक्सीजन या प्राणवायु सभी प्राणियों का जीवन है इसलिए शेर सिर्फ सांसों तक नही जीवन की आस तक हो, नही तो जीवन नृत्य की शुरुआत, शुरुआत होने से पहले ही खत्म हो जाएगी।

 वो कहा गया है न कि -
पहली साँस पे मैं रोया या आख़िरी साँस पे दुनिया
इन साँसों के बीच मे हम ने क्या खोया क्या पाया।

मनुष्य प्रकृति का योग है। शरीर प्रकृति की शक्तियों से ही निर्मित है। शरीर को त्यागकर प्राणवायु सूत्रात्मा को प्राप्त होने की चाहत भारतीय मरणोन्मुख साधक की प्रार्थना है लेकिन जीवन से मृत्यु के बीच जो हम ठहरे रहते है उसके लिए प्रार्थना ऐसी हो जिसमें पांच तत्वों का सर्जन होता रहे क्योकि इन तत्वों का विसर्जन प्रत्यक्ष मृत्यु है। मृत्यु के बाद प्राण वायु से जा मिलते है लेकिन उससे पहले जीवन की बात करें ,वायु से ही हम तक प्राण आते है तो यह जरूरी हो जाता है कि वायु शुद्ध हो।

जीवन उत्सव को कायम रखने के लिए यह जरूरी है कि शरीर मे वायु की उपस्थिति शुद्ध हो सही मात्रा में हो। प्राण मूल शक्ति है उनकी शक्ति वायु है। प्रकृति से सतत सृजन इन से ही चलता है। ऋग्वेद में सृष्टि सृजन के पहले देवता नही है लेकिन प्राण है। ऋषि कहते है दिन - रात भी नही है, लेकिन साँस है मतलब वायु है।

अनादीवातं स्वधया...
दो तरह की वायु हमारे पास है एक मनुष्य के शरीर को संचालित करने वाली और दूसरी अनिल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त वायु। हमारी वायु जब अनिल से मिलती है तो हम जीवन- मरण के चक्र से झुटते है। यद्यपि जीवधारी में विद्यमान वायु सम्पूर्ण प्रकृति की वायु से भिन्न नहीं है लेकिन जीवधारी में विद्यमान वायु शरीर बन्धन में है और प्रकृति में सब तरफ उपस्थित वायु सर्वव्यापी है। यह और कुछ नही अनुभूत प्राण है। प्राणियों को पुनर्नवा प्राण शक्ति देते है और जगत का प्राण समृद्ध होता है। मनुष्य के भीतर की वायु को प्राण, अपन, समान,व्यान और उदान कहा गया है। यह एक प्राण ही पाँच रूप में कहा जाता है।
मनुष्य में प्राण है इसलिए वह प्राणी है । सारी शक्तियां प्राणवायु के कारण ही किसी न किसी रूप में बनी रहती है।हमारा लेहकन महकना प्राणवायु की देन है। यह ऐसा देव है जो अंधविश्वास नहीं प्रत्यक्ष अनुभूती है।

प्राण अग्नि है, यही सूर्य है ,यही पर्जन्य- वर्ष्या के मेघ है और यही वायु भी है। प्राणवायु को अनेक आयामों में हमें देखना चाहिए अंतर्जगत का भाव बनाना ध्यान देने योग्य है।
भारती ऋषि तभी तो बारम्बार 'नमस्ते वयो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रहमासि, त्वामेव प्रत्यक्ष ब्रहा वदिष्यामि।' कहते नही थकते। वो इसे सर्वशक्तिमान यूँ ही तो नहीं बताते।क्या अब भी आप कहेंगे भारतीय अनुभूति का ब्रह्म अंध आस्था है ? मैं कहूंगी यह प्रत्यक्ष है।

मानव की प्रथम ध्वनि बनी रहे, जीवन उत्सव यूँ ही चलता रहे, साँस, साँस ॐ का उदघोष होता रहे। मानव जाग्रत बना रहे पंच तत्वों के प्रति, पंचघा स्वरूपों में प्राण जगत से सम्बद्ध रहे । यही हमारी सयुक्त प्रार्थना हो। यही शिव संकल्प है--
तन्मे मन: शिव संकल्पमस्तु ।













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Friday, June 17, 2022

आषाढ़ की आस

 आषाढ़ बनकर ही अधर के पास आना चाहता हूं

मैं तुम्हारे प्राणों का उच्छ्वास पाना चाहता हूं।💚

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आषाढ़ तो धरती और अंबर का मिलन दिवस तो  आइए हम इस मिलन दिवस के गवाह बने, फागुन के लड़कपन और सावन के यौवन में डूबे आषाढ़ को धरती के ताप को हर लेने दीजिए। गर्मी की कसक को अगर कम करना है तो आषाढ़ को ठसक के साथ आने दीजिए इसलिए जरूरी है कि पर्यावरण को लेकर हम सब बेहद जागरूक हो जाएं।

तो ज्येष्ठ की रोहिणी की तप्तता को मृग की बौछार संतृप्त करें और प्रकृति हरीतिमा के गीत गाये, धारा- अंबर एक हो तभी तो किसी दूर गांव की हरियाली पर आषाढ़ की बून्दे देख कोई किशोरी अपनी सखी से कहेगी-

कारी सियाही बदरी, झक झालर आयो मेह

बरसे आषाढ़ी मेहरा,कोई कोई उत बालम परदेश।

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Saturday, June 11, 2022

तपती धरती बदलता मौसम

सत्यम वृहदृमुग्नम दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवी धारयन्ति सा नो भूतस्य भव्यस्य पल्युमरू लोक प्रथिवी नः कृनोती ।

(पृथ्वी ने भूत काल में जीवों का पालन किया था और भविष्य काल में भी जीवों का पालन करेगी। इस प्रकार की पृथ्वी हमें निवास के लिए विशाल स्थान प्रदान करे। ) 

आह्वान करते ऋषियों ने कहां सोचा था कि हम जिन पीढ़ियों के निवास के लिए पृथ्वी पर विशाल स्थान मांग रहे है उन्हें इस स्थान की कद्र ही नही होगी। वो पृथ्वी को अपना अस्थाई घर ही मानेंगे। आज सारी पृथ्वी रोष में है पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। पृथ्वी, आकाश, जल,जंगल को प्रदूषित कर दिया है। पेड़- पौधे कट रहे है, वनस्पतियां खत्म हो रही है, कीट- पतंगे तितलियां गायब हो रहीं है। गौरैया मर रहीं है।

सावन में धमक नही ,फागुन में महक नही, , वसंत हताश है , भादों में बारिश की आस है।गंगा निराश है, यमुना उदास है । विकास के उद्योग से प्रकृति का विनाश है।

सयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म ईंधन पर वर्तमान समाज की निर्भरता पृथ्वी को इस तेजी से गर्म कर रही है जो पिछले दो हजार वर्षों से अभूतपूर्व है। इसके प्रभाव के कारण वर्षा की कमी यानी सूखा, जंगल की आग, बाढ़ के रूप में देख सकते है।

आईपीसीसी के आंकलन के अनुसार ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के कारण स्थितियां और भी गंभीर होने वाली है।  1850- 1900 के औसत की तुलना में पृथ्वी की वैश्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है।

 जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं।कई प्रभाव अपरिहार्य हैं और दुनिया की सबसे कमजोर आबादी को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे। तो पृथ्वी की जलवायु मानव अनकूल करने के लिए क्या किया जाए ? ये जानने के पहले आइए ये जान लें कि जलवायु परिवर्तन क्या है ?

जलवायु परिवर्तन मौसमी दशाओं के बदलाव को कहते है जो दीर्घ कालीन होता है । यानी  किसी विशेष स्थान के लिए आमतौर पर कम से कम 30 वर्षो के मौसम  का औसत पैटर्न होता है। मुख्य रूप से, सूर्य से प्राप्त ऊर्जा के कारण ही पृथ्वी की जलवायु का निर्धारण एवं तापमान का संतुलन निर्धारित होता है। यह ऊर्जा हवाओं, समुद्र की धाराओं एवं अन्य तंत्र द्वारा विश्व भर में वितरित हो जाती है तथा अलग- अलग क्षेत्रों की जलवायु को प्रभावित करती है।

 पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है और यही ऊर्जा इसकी सतह को गर्माती है। इस ऊर्जा का लगभग एक तिहाई भाग पृथ्वी को घेरने वाले गैसों के आवरण, जिसे वायुमंडल कहा जाता है, से गुजरते वक्त तितर-बितर हो जाता है। इस प्राप्त ऊर्जा का कुछ हिस्सा धरती और समुद्र की सतह से टकराकर वायुमंडल में परावर्तित हो जाता है। शेष हिस्सा, जो लगभग 70 प्रतिशत होता है, धरती को गर्माने के लिए रह जाता है। इसलिए, संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सौर ऊर्जा का कुछ भाग पृथ्वी से वापस वायुमंडल में परावर्तित हो, वरना धरती असहनीय रूप से गर्म हो जाएगी। 

वायुमंडल में भी जलवाष्प और कार्बन डाइऑक्साइड सरीखी कुछ गैसें इस परावर्तित ऊर्जा के कुछ अंश को सोख लेती हैं जिससे तापमान का स्तर ‘सामान्य सीमा’ में रखा जा सके । इस ‘आवरण प्रभाव’ की अनुपस्थिति में पृथ्वी अपने सामान्य तापमान से 30 डिग्री सेल्सियस अधिक सर्द हो सकती है।

चूंकि जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसें हमारे विश्व को गर्म रखती हैं, इसलिए इन्हें ‘ग्रीनहाउस गैसें’ कहा जाता है। यहां यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण हैं कि इस प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ की अनुपस्थिति में हमारे ग्रह का औसत सतही तापमान यहां जीवन के लिए प्रतिकूल होता और इस ग्रह पर भी जीवन की संभावना नही रहती।

जलवायु परिवर्तन के वैश्विक खतरे--

◆ विश्व ने अपना कार्बन स्पेस दो तिहाई इस्तेमाल कर लिया है, जबकि पैतीस प्रतिशत जीवाश्म ईंधन के भंडार की खपत एवं वैश्विक जंगलों के एक तिहाई हिस्से को काटा गया है ।

◆ वर्ष 1750 के बाद से विकसित देशों ने ऐतिहासिक उत्सर्जन का 65 फीसदी के आस- पास उत्सर्जित किया है ।

◆कीप द क्लाइमेट, चेंज द इकोनॉमी के अनुसार पारम्परिक जीवाश्म ईंधन भंडार का उपयोग करके एवं जंगलो को एक तिहाई काटते हुए विश्व वातावरण से 2,000 Gtco2e बाहर निकाल चुका है।

◆हर साल लगभग दस बिलियन मैट्रिक टन कार्बन वायुमंडल में छोड़ा जाता है।

भारत में होने वाले खतरे---

◆वर्ष 2018 में एचएसबीसी ने दुनिया की 67 अर्थव्यवस्थाओं पर जलवायु परिवर्तन के खतरे का आंकलन किया उसमें कहा गया कि मौसम के बदलाव का भारत मे व्यापक रूप से असर पड़ेगा। ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को क्षति हो सकती है जो कई लाख करोड़ तक जा सकती है।

◆जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव कृषि पर होगा क्योंकि भारतीय कृषि मानसून पर आधारित है । जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून में अनिश्चितता उत्पन्न होगी असामान्य  मानसून के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ जैसी स्थितियों का सामना करना होगा ।

◆भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार प्रति एक सेंटीग्रेट तापमान बढ़ने पर गेहूं के उत्पादन में चार से पांच मिलियन टन की कमी होती है। इसके साथ ही परागणकरी कीटों जैसे तितलियों, मधुमक्खियों की संख्या में कमी से कृषि उत्पादन नकारात्मक रूप में दिखाई देगा।

◆ जलवायु परिवर्तन पर भारत सरकार की अब तक की पहली रिपोर्ट कहती है कि सदी के अंत तक ( 2100 तक) भारत के औसत तापमान में 4. 4 डिग्री की बढ़ोतरी हो जाएगी जिसका सीधा असर लू के थपेड़ों और चक्रवर्ती तूफानों की संख्या बढ़ने के साथ समुद्र के जल स्तर के उफान के रूप में दिखाई देगा। मौसम विस्मित है और शायद रूठा हुआ भी । हवा में co2 का स्तर बढ़ रहा है तापमान में वृद्धि हो रही है, ग्लेशियर पिघल रहें है। ढेरों प्रजातियां खतरें में है। सांस को आस नही है, तो अब क्या करें ? आइए छोटी- छोटी कोशिशों से इस खतरनाक प्रक्रिया को धीमा करें और उम्मीद रखें कि मौसम एक बार फिर खुशगवार होगा। 

◆कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने, हवा की गुणवत्ता में सुधार करने, तापमान को कम करने, जैव विविधता को सरंक्षित करने के लिए पेड़ लगाइए। ये साधारण लग सकता है लेकिन ये पर्यावरण के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। 

◆कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने के लिए और तापमान को कम रखने के लिए महासागरों को संरक्षण दें। समुद्र तटों को प्रदूषित न करें। मछली को खाद्य रूप में कम अपनाएं। 

◆ ऊर्जा दक्षता में सुधार करें। फोटोवोल्टिक सौर पैनलों का उपयोग करें, एलईडी बल्बों का चयन , पुराने उपकरणों को बदलना आदि। 

◆हरित ऊर्जा का उत्पादन 

◆हाइब्रिड या इलेक्टिक कार,परिवहन के लिए सार्वजनिक साधनों का उपयोग,कम दूरी के लिए साइकिल जैसे वाहन का उपयोग। 

◆प्लास्टिक के उत्पादन का कम उपयोग। 

◆कचरे का सही ढंग से निपटान। 

◆अक्षय ऊर्जा बहुत ही महत्वपूर्ण है। 

◆शाकाहार अपनाएं । 

◆स्थाई आदतें विकसित करें।छोटे और स्थानीय व्यवसायों का विकल्प चुनें, शिल्प उत्पाद खरीदें और गुणवत्ता और स्थायी वस्तुओं में निवेश करें। प्रकृति की सभी शक्तियां एक सुनिश्चित विधान में चलती है। ऋत नियमों से बड़ा कुछ भी नही । आज जीवन- मरण के प्रश्न में उलझे हम भूल ही गये लोक रीति तुलसी पूजा, पीपल पूजा और वटवृक्ष की पूजा के तत्व वन संरक्षण से ही जुड़े हुए हैं। गांवों में आज भी पेड़ काटने को पाप और वृक्षारोपण को पुण्य बताया जाता है। नदियों के दीपदान का अर्थ नदी का सम्मान करना है। यज्ञ हवन के कर्मकाण्ड रूढ़ि नहीं हैं, इनमें प्रकृति की प्रीति और वातायन शुद्धि की ही आकांक्षा है। पर्यावरण संतुलन से तात्पर्य है जीवों के आसपास की समस्त जैविक एवं अजैविक परिस्थियों के बीच पूर्ण सामंजस्य। ऐसा सामंजस्य जिसमें कुछ भी अवांछनीय न हो ताकि जल वायु भूमि के प्रदूषण की समस्या न हो। हमारे भौतिक शरीर मूल रूप से पाँच तत्वों - मिट्टी, पानी, हवा, आग और आकाश - से मिल कर बने हैं पर मिट्टी इन सब में एकदम मूल और स्थिर तत्व है इस स्थिर तत्व की गुणवत्ता को बनाए रखिए ये जीव के लिए बेहद जरूरी है। 

प्रकृति में रूप है, रास है, गंध है, ध्वनियां है उन्हें अवध्वस्त न होने दें।जल, जंगल, जमीन, वनस्पति, हवा सभी मे स्वच्छता हो मधुरता हो ये आह्वान जरूरी है पृथ्वी को अकक्षुण रखने के लिए जीव को बचाने के लिए।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥8॥

मधुमान् नः वनस्पतिः, मधुमान् अस्तु सूर्यः, माध्वीः गावः भवन्तु नः ।