Friday, May 26, 2017

जमीनस्तो

बादल उमड़ घुमड़ रहे है
खदेडी गई कौमों की स्त्रियां
इंतज़ार में है
अषाढ की उमस कुछ कम पड़े
सियासत की हवा कुछ नरम पड़े
तो नसों में धंसी वक्त की कीलों
को निकाल फेका जाए
वो जर्द चिनारों से
जो खौफ लेकर चली थी
वो खौफ भी उनके नहीं
आंसुओं से तर दर्द सूख गये
लेकिन लोरियों में घुले खून की महक
अभी तक गई नहीं
उनके रौंदे जिस्म महज़ब की कहानी कहते है
स्त्रियां भूल गई
रचना रचाना स्त्री का है
उसे बारूद के ढेर पर बैठाना पुरुष का काम है
स्त्री के लिए जमी कभी जन्नत न बनी
फिरदौस बरूह जमीनस्तो
जहाँगीर ने कहा था
नूरजहां कहां कह पायी थी ?
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Monday, May 15, 2017

मिट्टी का जिस्म लेकर चले खुद की तलाश में

जीवन के खंड खंड से निकले शब्द
कविता बन उतरे कागजों पर
तो कभी मन के प्रान्तर में भटकते रहे
लेकिन एकांत अखंड ही रहा
आमंत्रण देता
संभावनाओं के पंख लगे
अब अधिष्ठाती हूँ मैं
फिर कोलाहल हुआ
'मैं' खंडित
तो कौन उपस्थित था
ऊर्जा
कैसी उर्जा
सम्बन्ध
कैसा सम्बन्ध
सारी ध्वनियाँ थरथरा कर
गुरुत्वाकर्षण का भेदन
नहीं करती
क्यों
कुछ नि:शेष है
शून्य से आगे
महाशुन्य की तलाश में।


Tuesday, May 9, 2017

ताजा गोस्त

हुंअ
बंद करो चीख पुकार
ये लोकतंत्र है
और वो स्वतंत्र
उन्हें खाने पीने चाटने स्वाद लेने की
पूरी आजादी है
सुन्दर स्वाद रुचिनुसार
अपना मनपसंद माल
पड़ोस, दफ्तर, बाज़ार, गलियों से
उठा लेना
उनका मूलभूत अधिकार है
उन्हें पसंद है
ताजा गुलाबी गोस्त
अगर जावा न भी हो तो
भूण या एक दो तीन....
बरस का भी चलेगा
ये विकसित दुनिया है
अब गुलाबी गोस्त का भक्षण
ज्यादा मुमकिन ज्यादा आसान है
कितना सुखद और बनाने में आसान भी
देह से आत्मा तक को छीलना है
फिर स्वाद धीरे धीरे लेना है
उन धारदार पालो का
और तब तक लेना है जब तक
पौरुष आप के अन्दर प्रकट न हो जाये
और खुद को आप
पुष्ट होते हुए महसूस न करे
आखिर आप पुरुष है
आप लोकतंत्र में है
आप को खाने पीने स्वाद लेने की
छुट है
संवैधानिक अधिकारों के साथ

एक वैधानिक चेतावेनी- मादा देह नहीं गोस्त है
उन्हें देह समझने की भूल न करे
क्षमता अनुसर भक्षण करे।