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Sunday, July 26, 2015

रिश्ते, बंधन , मुक्ति

मुक्ति कोई क्षणिक बात नहीं है. वह एक जीवन अनुभव होती है और उसे बार –बार अनुभव करना पड़ता है .जिन्हें मुक्त होने की इच्छा है या जो मुक्त होना चाहते है बे स्वयं के मन को जाने बौध्द – साहित्य की ये शिक्षा उसकी विशेषता है और हमारे मन का प्रतिबिंब भी है .

जितनी तरह के लोग उतनी ही तरह के दिमाग उतनी ही तरह के दिल और उतनी ही तरह के इश्क .....रिश्ते भी ऐसे ही होते है हर रिश्ते में सूत्र , दर्शन, तर्क, आत्मा, समर्पण, द्वन्द है जो कभी नजर आता है कभी नहीं, पर होता तो है ही मुश्किल तब होती है जब कुछ रिश्ते चेतना ही नहीं अंतश्चेतना तक को अपने अधीन चाहते है और यहीं आकर HE या SHE विस्तार की चाह में निरंकुश हो जाते है और अपने अंह से दुसरे के स्वाभिमान को चुनौती देते है . बिना ये समझे बिना ये जाने कि इससे रिश्ते में आकर्षण खत्म होगा और अपकर्षण ही पैदा होगा जो सामाजिक प्रतिपालनाओं के प्रति कोई एक बावरा विद्धोह करेगा और प्रेम, लक्ष्य, सपने के लिए मुक्त हो देहरी लांघेगा .


अपकर्षण जहां शुरू हो जाता है वह हमेशा पलायन ही होता है तभी तो गौतम बुद्ध हो मुक्त हुए. अगर आप अधिकाधिक प्रतिदान की मांग अपने रिश्ते से करते है तो एक न एक दिन रिश्ता ठंडा पड़ता है और आप रिश्ते से दूर हो जाते है . मूलभूत प्राकृतिक व आदिम प्रवृतियों से न प्रेमी न दांपत्य और न ही माँ जैसे पवित्र रिश्तों को बांधा जा सकता है इसलिए मुक्त हो बंधन से रिश्तों से नहीं.