Tuesday, December 23, 2014

हिन्दू जीवन दर्शन

हिन्दू जीवन दर्शन सिर्फ एक बकवास है छात्रों के एक समूह ने आवाज को थोडा तीखा करते हुए कहा दुसरे समूह ने उतनी ही तीखी प्रतिक्रिया हिन्दू जीवन दर्शन के पक्ष में दि . मेरे शिक्षक जीवन में ऐसी कई बहस को मैंने सुना है और सुनकर आश्चर्य हुआ है कि हम हमारे जीवन दर्शन को ठीक से नहीं जानते जबकि दर्शन  किसी भी राष्ट के संस्कार और संस्कृति  को गड़ता है हमारे देश के साथ भी ऐसा ही है .

हम भारतीयों की चेतना शक्ति जहा से प्रभावित होती है वो हमारे वेद,उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत और हमारा लोक जीवन है . हिन्दू जीवन दर्शन के वैदिक दर्शन में कहा गया है कि मनुष्य पून्यरूप से इच्छाओ का बना हुआ है जैसी उसकी इच्छाएं होगी वैसी उसकी विचारशीलता होगी जैसी उसकी विचारशीलता व समझ होगी वैसा ही उसका कर्म होगा और जैसे उसके कर्म होंगे वैसा उसका भाग्य . इच्छाओ से छुटकारा प्राप्त कर मनुष्य अमर हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है .

ये हिन्दू दर्शन का एकमात्र द्रष्टिकोण नहीं है गीता में कर्म का दर्शन है असल में ये नवीन हिन्दू दर्शन है जो कर्म का आधार बना कर पुनर्जन्म और इच्छाओ के बीच एक सयोजन करता है

हिन्दू दर्शन वर्तमान की अतीत के साथ निरन्तरता में विश्वास करता है ये एक पक्ष है और दुसरी तरफ वर्तमान को भविष्य में अभिव्यक्त करता है. हिन्दू दर्शन कुछ आधात्मिक विचारो में भी विश्वास रखता है जैसे 'पाप', 'पुण्य', धर्म आदि लेकिन भारतीय जीवन दर्शन सिर्फ संन्यास युक्त ही नहीं है उसमे अर्थ,धर्म,कर्म,मोक्ष भी हैं हमारे यहा का संन्यास व्यक्ति को समाज से न तो पलायनवादी बनाता है और न ही अकर्मण्य वो तो व्यक्ति के जीवन को बहुजन हिताय के सर्वोच्च शिखर तक उठा देता है .चाहे हमारा धर्म हो या दर्शन उसमे वसुधैव कुटुम्बकम रचे-बसे है तमाम तरह की साधना पद्धतिय ,अनुष्ठान और अवधारणाओ के होने पर भी हम सहिष्णु है और सर्वे भवतु सुखिन : की बात करते है .

निम्न पंक्तियों में भारतीय जीवन दर्शन की मूल आवधारणा छिपी है ........
कामिहि नारी पिआरी जिमी,लोभिहिं प्रिय जिमी दाम .
तिमी रघुनाथ निरंतर प्रिय लगांह मोहि राम
   

Wednesday, October 29, 2014

सृजन और जीने का संघर्ष देह -विमर्श नहीं ।

हमारी  नारी दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि जब हम पश्चिमी जीवन शैली अपनाते है तो हमें अल्टा मॉर्डन  कहा जाने लगता है हम पर फब्तियां कसी जाने लगती है और जब हम भारतीय संस्कृति अपनाते है तो हमें रूढ़िवादी कहा जाने लगता है। कुछ लोग कहते है कि हमने पुराने जरुरी बंधनो को खोल दिया है जो समाज के लिए बहुत घातक है। हमारी अभिव्यक्ति  को समाज अपनी पूरी कुंठा के साथ कट्टरता से देखता है और समय-समय पर हमें दंड भी देता है कभी निर्भया बना कर कभी मलाला  बना कर।

मानते है हम में भी समाज के दूसरे लिंग की ही तरह कुछ कमिया है और हम उन कमियों पर नजर भी रखे है ये हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी है हम उससे पार पाने की भी कोशिश भी कर रहे है। कोशिश है कि हमें धर्म,लिंग, अति महत्वकांक्षा की आड़  कोई इस्तेमाल न करे पर ये कोशिश हम स्त्री ही करना चाहती है हमें कोई सशक्तिकरण नहीं चाहिए हमें हमारी समस्या के लिए खुद ही हल खोजने दे ये हमारी शारीरिक सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी है तभी तो हम अपनी ऊर्जा को बेहतर ढंग  से बेहतर कार्यो के लिए इस्तेमाल कर पाएंगे।   स्त्री सशक्तिकरण जैसे शब्दों से हमारी समस्या कुछ स्त्री प्रश्न या स्त्री मसलो तक ही सीमित  कर दी है हमारा प्रश्न तो विराट है वो किसी सशक्तिकरण के दायरे में  नहीं  आ सकता। 

हमारा पहला व अंतिम प्रश्न है हमें मनुष्य क्यों नहीं समझा जाता और जहां कही ऐसा समझा भी गया है वह हमें नियंत्रित रखा जाता है कि हमें कभी-कभी मनुष्य होने पर भ्रम होता है हम मनुष्य की सीमित नसल  है। 
हमने  जीवन का सृजन किया है  हम जीवन रचियता है हमने न जाने सृजन के कितने-कितने गीत लिखे है तब हमें गरिमा के साथ जीने का हक़ क्यों नहीं?

हमारे सृजन को हमारे त्याग को देवीत्व और गरिमा से जीने के संघर्ष को देह -विमर्श में मत बदलो बस हम इतना ही चाहते है अगर पुरुष  ऐसे कर सके तो हम वादा करते है कि सदियों से आप की दुनिया  का हिस्सा बनी सामाजिक व्यवस्था  और परम्परागत सोच को हम आप से दूर कर देंगे उन रूढ़िगत संस्कारों से आप को बचा लेंगे जिनके शिकार होकर सदियों से आप पुरुषवादी अहंकार के नीचे दबे ठीक से सांस नहीं ले पा रहे है।

सदियों से पुरुष वादी चोले को उतरने का समय आ गया है पुरुष तुम रूढ़िग्रस्त संस्कारों से मुक्त हो और सभ्य बनो हम स्त्री जाती तुम्हारे साथ है आओ दोनों मिलकर उत्तर फेके चोले उन साढ़े- गले कु संस्कारो के और  पूर्ण करे मनुष्यता को। 



Friday, October 17, 2014

जीने की कला

ये आप को तय करना है की आप को कैसा जीवन जीना है वो जीवन जिसमे बाहरी उन्नति है जिसे हम भौतिक उन्नति भी कहा सकते है या फिर वो जीवन जिसमें आंतरिक उन्नति हो . क्या ये अच्छा नहीं हो कि हम ऐसा जीवन जीये जिसमे हमारी अंतरज्योति हमेशा जीवित रहे प्रकाशमान रहे।
जीवन जीना एक कला है और ये कला पूरब के पास बर्षो से थी। भारत की धरती पर जीवन की ये कला बिखरी हुई थी तभी तो जीवन के सही अर्थ के प्रति हमारा दृष्टिकोण हमेशा सकारात्मक और उद्देश्यपूर्ण रहा. जीवन के बाद जीवन की अवधारणा की बात सिर्फ हम ही करते है। हम कौन है ? हमारे जीवन को जीने का क्या उद्देश्य है ....? ये हमारी संस्कृति में लाखों वर्षो से है।

हमारे देश में तमाम ऐसे योगी हुए जिन्हें आध्यात्मिक जागृति की कला का पूर्ण ज्ञान था। कुछ ने उसे बटा भी इस आशा में कि मानव उन्हें अपने जीवन जीने में लागू कर सके और ऐसा हुआ भी परंतु दुर्भाग्य से जीवन जीने की कला सब को नहीं मिल पाई।
हम में से बहुत सारे लोग जीवन में चमत्कार की आशा करते हुए पूरा जीवन काट देते है ऐसा करके लोग अपने जीवन में सिर्फ गतिरोध ही उत्पन्न करते है और निराशा के साथ अपने जीवन का अंत करते है।
जीवन कैसे जीये इस पर बात फिर कभी, अभी तो बस ये की आप अपने जीवन को क्या जी रहे है ? और क्यों जी रहे है ?

Wednesday, October 15, 2014

नहीं बीतती साँझ



गोधूली की इस बेला में 
नहीं बीतती साँझ 

व्योम मौन है 
धरा चुप है 
मन का खग भी ठहरा है 
ऐसी है शिशिर  की ये साँझ 

गोधूली की इस बेला में 
नहीं बीतती साँझ 

मन रीता जैसे हो निशा 
पर नयनों में है मनो उषा 

नयनों के इस वीराने में 
नहीं बीतती साँझ 

Tuesday, September 9, 2014

एक अंधेरी रात और..........वो

एक अंधेरी रात समय १२. ४० दिल्ली का बाहरी इलाका हर तरफ सन्नाटा झिंगृर भी निशब्द.... बड़े-बड़े प्रेत की तरह झूलते दरख़्त तेज बारिश गाड़ी ख़राब। मैं गाड़ी से उतरती हूँ बारिश और तेज हो जाती है मैं पैदल ही चल पड़ती हूँ मैकनिक की तलाश में....

इतनी रात में मैकनिक कहा मिलेगा मैं बड़बड़ती हू दूर बहुत दूर पर एक मैकनिक है तभी आवाज आती है मैं डर जाती हूँ जी आप कौन........ उत्तर मिलता है मैं 'बेचैन आत्मा' मेरा डर कम होता है अच्छा वो फेसबुक वाले मैं तो आप को वाले ही समझी थी और अपनी आदतनुसार हस पड़ती हूँ उधर से बहुत ही डरावनी हसी सुनाई पड़ती है नहीं मैं सचमुच की बेचैन आत्मा हूँ अब फिर से डरने की बारी मेरी है मेरे हाथ पैर कांपने लगते है उधर से पूछा जाता है क्या में भी फेसबुक ज्वाइन कर सकती हूँ? मेरी डर से आवाज ही नहीं निकलती बेचैन आत्मा कहती है क्या है न वो हमारे यहाँ भी फेसबुक है पर उस पर इतने सारे भूतों ने भूतनीय बन के एकाउंट खोल दिए है की पता ही नहीं चलता की सही कौन और गलत कौन है खैर छोडो और बताओ.... 

मैं डरते -डरते पूछती हूँ आप कहां रहती है वो कहती है हमारे अपने बगले थे अब बिल्डरों ने तोड़ कर फ्लेट बना दिए है जी जी मै अपने कदम और बाते दोनों ही नहीं रोकना चाहती क्योंकि कुछ भी हो सकता है मैं पूछती हूँ आप में से कुछ लोग पेड़ पर भी रहते है न मेने टी वी पर देखा था फिर भयंकर हसी के साथ वो कहती है अरे में ही तो थी झूला झूल रही थी क्यों आप के फ्लेट के पास पेड़ नहीं अब मैं निडर होने लगती हूँ वो एक गहरी सांस लेती है पेड़ तो कई थे पर उनको काट-काट कर शॉपिंग मॉल बना दिए है इस लिए में झूला झूलने उधर ही निकल जाती हूँ गहरी उदासी के साथ वो बोलती है वहां मेरी सहेली भी रहती है जिसके साथ कुछ लोगो ने अनहोनी करके उसे पेड़ पर टांग दिया था।....


मैं ने कहा कड़कड़डूमा कोर्ट में भी तो आप के कुछ लोग है वो फिर हसी अबकी उसकी हसी डरावनी नहीं थी। अरे उनको तो हमारी भूतों की पंचायत ने सजा दी है वो क्या है न वो लोग जब जिंदा थे तो हमेशा कम्प्यूटर पर ही सारा समय निकाल देते थे अपने पारिवारिक सदस्यों को टाइम ही नहीं देते थे इसलिए हमारी पंचायत ने उनकी सज़ा ये दी है की वो रात ११ से सुबह ३ बजे तक कम्प्यूटर खोलेंगे और बंद करेंगे अब बिचारे वही करते है जी मैं ने मन ही मन प्रॉमिस किया अब से छोटा आर्टिकल भी लिखूँगी नहीं .......

क्या सोचने लगी उसने पूछा मै होले से मुस्कुरा दी अब हम दोस्त बन गए थे। वो बोली तुम यही सोच रही हो न की मैं इतनी खुश क्यों हूँ मैने धीरे से सर हिलाया उसने कहा क्योंकि यहाँ भूत समाज में कोई भेड़िये नहीं है जो हमारी इज्ज़त को तार -तार कर सके हमें यहाँ पर खुशियो का परित्याग नहीं करना पड़ता है. हम यहाँ पर जिंदगी को जीते है घसीटते नहीं ये कहा कर उसने बिदा ली में ने देखा उसके चेहरे पर असीम आनंद था...... मै सोच रही थी काश हमारे यहाँ पर भी महिलाओं को इतनी सुरक्षा और स्वतंत्रता मिले।

Saturday, September 6, 2014

पति -पत्नी आनंदोत्सव

जीवन पति -पत्नी का 
नहीं चलता ये एक सीधी रेखा में 

हमारे और तुम्हारे बीच 
वाचा के उग्रबाण होते है 

जो रूपांतरित होते है 
ये रूपांतरण हमेशा धनात्मक होता है

भरता है हमें 
एकात्मकता व आनंदोत्सव में 

प्रेम को प्रखर करता है 
तरंग -आवृत में स्पंदन 
बदल देता है आनंदोत्सव वसंतोत्सव में 
आनंदोत्सव वसंतोत्सव में 




Tuesday, September 2, 2014

नारी और सौंदर्यबोध

उन्होंने कहा हम परतंत्र है और
उतार दिया सुहाग चिन्ह 
फेक दिए रीतिरिवाज 
उन्होंने कहा हम रचेंगे तंत्र 
उठा लिए हथियार 
सीख ली गाली 
उन्होंने कहा अब हम स्वतंत्र है 
पहन लिए अल्प वस्त्र 
उतार दिए संस्कार 

मेरी ये रचना आज की कुछ स्त्री का आंशिक सच ही हो पर है तो। आज के समाज में सौंदर्य की यही परिभाषा है। आज के समाज में किसी भी अन्य विचार से ज्यादा सौंदर्य के मिथक है जो की जीवन के सभी क्षेत्रों में फैले है। क्यों क्योंकि कुछ स्त्रियों को लगता है कि
बदन दिखाना सौंदर्य है और इस तरह के सौंदर्य से लोग उसे गंभीरता से लेने लगेंगे। उसे अन्य लोगो से ज्यादा बढ़ावा मिलेगा उसे लोग विशेष समझेंगे। इस तरह की सोच को बाजारवाद ने और बड़ा दिया है और उसकी शिकार स्त्री आसानी से हुई है।

कोचिंग, कॉलेज अन्य सार्वजनिक स्थलों पर घूमती हुई लडकिया जीता जगता उदहारण है इस दिखावे का ये संस्कार हीनता है । कम से कम कपड़ो में अपनी शरीर की नुमाइस करती ये लडकिया किस सशक्तिकरण को दर्शना चाहती है मुझे आज तक नहीं मालूम हो सका। लडकिया तो लडकिया बड़े शहरों में उम्रदराज महिलाओं को जब अल्प कपड़ो में देखती हूँ तो सोचती हूँ क्या इनके लिए यही स्वतंत्रता है.वह रे नारी गजब है तेरी मुक्ति।
शरीर को उघाड़कर अपने ऊपर उठती अश्लील निगाहों से तथाकथित इन महिलाओ का पुरुष बराबरी का ये तरीका मेरी समझ के परे है। अगर ये पुरषो से बराबरी नहीं सिर्फ खूबसूरती दिखने का तरीका है तो शायद उन्हें खूबसूरती की परिभाषा पता नहीं। ब्यूटी लाइज इन दी आईज ऑफ बिहोल्डर --खूबसूरती देखने वाले की नज़र में होती है। 

ये सही है कि सौंदर्य का एक मनोविज्ञान होता है और मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार का संबंध उसकी दमित -भावनाओं से होता है और शायद सौंदर्य पर भी उसकी सोच इसी सोच के आस-पास घूमती है पर जब ये सोच सार्वजानिक हो जाती है और सामाजिक मर्यादाएं को लांघती है तो सौंदर्यबोध ख़त्म हो कर आश्लीलताबोध का एहसास होता है। ये नहीं भूलना चाहिए की हम समाज का ही प्रतिनिधित्व करते है और व्यक्ति का सौंदर्यबोध,समग्र -रूप से समाज का सौंदर्यबोध है। 

अल्प कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन इंसान इसके पार है. मानव हो तो आंतरिक सुंदरता को पहचानो अपनी योगता और कार्य करने की क्षमता को पहचान कर उसे एक नया रूप दो। खूबसूरत शरीर एक दिन ख़त्म हो जाना है जो असल है वह पहुचने की कोशिश होनी चाहिए। भारतीय संस्कृति को आत्मसात करे जीवन जीने की यही सही रीत है। यकीन मानिये आपकी और आप के जेहन की भी खूबसूरती इससे बढ़ जाएगी। 


Wednesday, August 27, 2014

प्रेम के अर्थ

आप ने ईश्वर को कभी नहीं देखा, उसे कभी महसूस भी नहीं किया। लेकिन एकाएक आप को लगता है कि ईश्वर आप के साथ है वो हरपल आप का मार्गदर्शन कर रहा है जानते है क्यों क्योकि आप का प्यार आप के साथ है।

मुझे लगता है प्यार ही ईश्वर और ईश्वर ही प्यार है। प्यार भी आपकी जिंदगी को आकर देता है। आप के लिए रास्ता बनाता है, आप के लिए खुशिया लाता है। वो आप के अंदर शक्ति भरता है,सम्पूण्यता लाता है सद्भावना लाता है और यही सब ईश्वर भी करते है।
 अपनी योग्यता और कर्म करने की क्षमता पर विश्वास करना आप अपने 'प्यार' से ही सीखते है। चीजो को सही परिपेक्ष्य में जब आप देखते है और सभी परिस्थितियों में बिना निराश हुए जीवन जीते है तब हमें महसूस होता है कि हम सच में प्यार को जी रहे है सच भी यही है ईश्वर की तरह प्यार भी हमें सकारात्मक होना सिखाता है।

अगर आप को ईश्वर के निकट जाना है तो अपने प्यार पर मुग्ध हो फिर आप धीरे-धीरे सारे ब्रहमांड पर मुग्ध होंगे और इस तरह आप का प्यार विस्तार पाते -पाते ईश्वर में एकाकार हो जायेगा।
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Monday, July 28, 2014

एक बहन का पत्र नरेंद भाई के नाम

सपनो के सौदागर भाई नरेंद मोदी जी ,

आप काफी प्रभावशाली तरह से लोगो को सपने बाटे किसी को अमन का सपना किसी को महगाई कम करने का किसी को नौकरी का किसी को सहरद की सुरक्षा का। हम भोली जनत्ता ने आप के सपनो को खरीद तो लिया पर हम आप से उसे सच करने का एक और सपना नहीं ले पायेगे शायद क्या वो सपना आप हमें नहीं देंगे......?   लोगों में शिकायत है कि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला कठपुतली मात्र बन कर रह जाता है। हमने इतिहास में तुर्कों मुगलों के बहादुर शाह जफ़र टाइप से लेकर अंग्रेजों के वायसराय होते हुए डॉ मनमोहन तक के शासक देखें जिनके मुंह में जबान नहीं हुआ करती थी। 

माना कि आप प्रशासन को चुस्त दुरुस्त करने में लगे हुए हैं और सोशल साइट्स के माध्यम से अपनी बात रख रहें हैं। नगरों की ३० प्रतिशत जनता उसे देख रही है किन्तु ७० प्रतिशत जनता गांवों में है जो आपके ट्विटर और फेसबुक को नहीं पढ़ सकती। वह तो चौपाल लगाती जिसमे रेडिओ चलता है। चुनावो के दौरान सिंह गर्जना सुनने को आदी बनाने वाले हे मौन मोहन सिंह के वारिस जो १० साल से "कम्युनिकेशन गैप" की परम्परा थी कम से कम उसे जारी रखने के लिए वोट नही दिया गया था। आज हर जगह सौगंध मुझे इस मिटटी वाले गीत(जो कि एक करोड़ पति भाट ने पईसे लेकर लिखा होगा ) की जगह एक गांव जवार के कवि (नाम याद नहीं आ रहा ) की पंक्तियाँ हवाओं में तैर रही हैं। इस हवा को महसूस करिये। ये उसी भारत की अवाम की आवाज है जिसने आपकी दहाड़ में अपने स्वाभिमान की गूँज सुनी थी। आज उसे वो आवाज सुनायी नहीं दे रही है। उसे अपनी आवाज वापस चाहिए। उसे आश्वस्ति चाहिए जो उसे पूर्व में " भाइयों बहनों" को सुनकर होती थी। हमें आप पर पूरा भरोसा है। पूरा समर्थन है। हम सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं लेकिन १० साला परम्परा के वारिस बनने से इंकार करते हैं। 
सपनो को हकीकत में बदलने की कोशिश जल्दी कीजिये ऐसा न हो कि हमारा भरोसा आप से उठने लगे और फिर हम किसी और का सपना खरीदने निकल पड़े  क्योकि सपने खरीदना हमारी मजबूरी है। 
सावन में इतनी सौगात तो एक बहन को मिलेगी ही न इसी आशा के साथ 
 आप की बहन 'किरण'आप की प्यारी जनता की आवाज के साथ एक बहन का पत्र नरेंद भाई के नाम 

Friday, July 18, 2014

शिवाले से हो जाये

चलो चले कही निर्जन वन में,
गीत प्यार के गए।
तकनीक, ज्ञान,सिद्धांतछोड़े,
फिर से आदिम हो जाए 
गीत प्यार के गए. 
रोजी की फिक्र छोड़े
रोटी  की मशक्कत छोड़े,
कब तक इन्हे गले लगाये
चलो गीत प्यार के गए।  
भँवरो की गुनगुन सुने,
फूलो की रुनझुन सुने,
झरनो में खो जाए
गीत प्यार के गए। 
झूमते पहाड़ देखे,
उंघते दरख़्त देखे,
नदिया में खो  जाये
गीत प्यार के गए।
पत्थर में फूल देखे,
झील में सूर्य देखे,
आवारा बादल हो जाये
गीत प्यार के गए.
छिपता दिखता चाँद देखे,
तारो भरा आसमान देखे,
धरती के हो जाये 
गीत प्यार के गए।
घट - घट में राम देखे,
प्राणियों में श्याम देखे,
शिवाले से हो जाये
गीत प्यार के गए.     

  

Wednesday, July 16, 2014

कमबख्त यादें

आज मैंने यादों की पिटारी खोली है आप भी मेरे साथ यादों की पिटारी खोलिए देखिये तो सही उसमे कुछ अच्छी यादें होगी कुछ बुरी। बुरी यादों से सबक लेकर उसे मन से प्रवाहित कर देना है अच्छी यादों को झाड़ पोछ कर फिर से उसी पिटारी में रखना है आप कहेंगे क्यों?..... क्योंकि उन छोटी छोटी यादों से मिलेंगी इतनी खुशियाँ जो आप का दामन भर देंगी दामन से खुशियाँ चुनने आप हमें भी बुलाएंगे ना …।
 मैंने तो यादों की पिटारी से कुछ टाइटल उठाये है वही जो हमें स्कूल कॉलेज में हमारे जूनियर दिया करते थे। पर मै इसे आप से शेयर क्यों करू आप भी तो अपनी यादों की पिटारी से कुछ निकाले मुस्कराएँ । वही जब आप उनसे पहली बार मिले थे और जो पहला खत लिखा उस लम्हे को क्यों छिपाते है जनाब रहने दीजिये हम तो आप के मुँह से सुनना है वो रात जो आप ने दोस्तों के साथ घूमते हुये बिताई अरे बड़े भैया से तमाम मिन्नतों से मिली मोटर साइकिल लेकर भागना और गली कूचों में पुलिस से बचते बचाते एक ख़ास गली में पहुँच जाना और बालकनी में किसी का आना। … सब कुछ याद आएगा।
 अच्छा थोड़ा और पीछे चलते हैं बचपन में जब तेजी के साथ टायर पर डंडी मारते रेस किया करते थे और बताऊँ भैंस की पीठ पर बैठकर खुद को राणाप्रताप समझना आप हंस रहे रोज मशक्कत हंसी छीन ली है न? यादें उसे लौटा रही। । याद है दीदी से लड़ाई और और उसकी विदा पर छिप कर उसकी गुड़िया के साथ बहुत रोये थे। यादों ने सब देखा था और जब रक्षाबंधन पर वो ससुराल से नहीं आ पाई तो दोस्त की कलाई पर राखी देखकर कैसी टीस हुयी थी। 

बार बार इंटरव्यू देकर नौकरी नही लगी तो आपने दोस्तों से मिलना बंद कर दिया था और उस दिन जब आप अकेले और उदास बैठे थे अचानक पापा ने कंधे पर हाथ रखा उस स्पर्शका कोई मोल है? लीजिये चुप हो गये। पर वो पहली ज्वाइनिंग याद है माँ की आखे.……। 
आँखे पोछिए आप ने तो मेरी भी आँखे भिगों दी तो बाँटिये ना मेरे साथ अपनी यादें आप खुद में बदलाव महसूस करेंगे इस भागती दौड़ती जिंदगी में कुछ ख़ुशी के लम्हे मिलेंगे। मेरे पास भी ऐसी अनमोल यादें है जिन्होंने मेरा आज का दिन खूबसूरत बना दिया है और मैं पहुंच रही हूँ अपनी यादों में आप भी निकल पढ़िये अपनी सुनहरी यादों के सफर और शेयर करना मत भूलियेगा।   

Monday, July 14, 2014

प्रेम, न आदि न अंत

ढेर सारे खिलते हुए मोगरो के बीच आप के मन को महकाने वाला प्रेम, जिंदगी भर साथ चलने वाला प्रेम, बिना कुछ कहे सब कुछ कहा जाने वाला प्रेम, बचपन वाला प्रेम, कॉलेज वाला प्रेम, ख्वाब वाला प्रेम , कितने नाम कितने रूपों में प्रेम हमारे पास आया है।
 लेकिन आज आप का परिचय उस प्रेम से कराऊगी जिसे हम समझ के भी नहीं समझना चाहते। वो है डांट वाला प्रेम, चिंता वाला प्रेम ,और मूक प्रेम आप कहेंगे अरे ये प्रेम की कौन सी परिभाषा है में कहूँगी ये भारतीय प्रेम है उस प्रेम से अलग जिसमे बात -बात में आई लव यू कहा जाता है ……अरे वो प्रेम ही क्या जिसे जुबान से कहा जाए.……।

कार्ड, गिफ्ट , मल्टीप्लेक्स में पिक्चर, रेस्टोरेंट में खाना ये प्रेम का एक रूप हो सकता है पर अपने हाथ से कहना बना कर खिलाना या आप के लिए लड्डू बना कर टिफिन में लाना भी प्यार है। दोस्तों प्यार में तो एक मुस्कान भी काफी है। कुछ ना बोल कर पलकें झुकना भी है या उनका धीरे से ये कहना अपना ध्यान रखना ये क्या है। तेज गाड़ी चलाने पर टोकना , देर से घर आने पर चिंता करना आप की गन्दी खानपान की आदतों पर लड़ना ये सब भी प्यार ही है पर शायद हम उसके पीछे छिपे भाव को नहीं समझ पाते या समझना नहीं चाहते ये भाव तो यही कहना चाहते है की आप हमारे लिए सब कुछ हो हमें आपकी चिंता है हम आप से प्यार करते है तो अबकी बार उस चिंता में उस गुस्से में प्यार को सुनने की कोशिश कीजिये। ये भारतीय प्रेम है जनाब इसमे सर्वस्य उड़ेल देने की चाहत होती है तभी तो आप के बार- बार मना करने पर भी आप को थोड़ा और खाने की गुजारिश की जाती है..
कुछ प्यार सन्नाटे वाले होते है जिसमे कुछ पता ही नहीं चलता सन्नाटे के पीछे जो आवाज होती है हवा की झींगुर की वैसा ही कुछ-कुछ एहसास होता है पर कुछ स्पष्ट समझ नहीं आता अरे तो समझने की कोशिश कीजिये वो आप से प्यार भरी दो बाते कहना चाहता है बस हिम्मत ही नहीं होती है……… शब्दों के पार भी प्यार है । 

पसीने से सराबोर 
मेरे माथे को पोछ्ते तुम

देर से घर आने पर मेरी व्याकुलता 

अपनी उदासियों में तलाशती 
तुम्हारा कंधा 

या बिना कहे तुम्हारी
सारी समस्या समझती मै

प्यार यही है बस यही

Wednesday, March 12, 2014

बचपन की याद उठती


















ऊंघते जब उठता था बचपन 
तभी ऊंघते उठते थे 
मालवा के घने जंगल  
शेर उठते बाघ उठते 
फूल उठते खेल उठते 
हिरन उठते झाड़ उठते 
महुये की गंध उठती 
जंगल में  की दहाड़ उठती 

पत्तों की चरर मरर उठती 
गीत के बोल उठाते 
भीलनी के ताल उठते 
सोई हुयी प्रकृति  उठती 
दोपहर से सांझ होती 
सन्नाटे की बात उठती 

किले से कुछ दूर 
मर्म भरी आवाज उठती 
शोर उठता बात उठती 
पगली  रानी की फ़रियाद उठती 
राजा को ज़रा बोल दो 
मै कब से सोई नही 
अब उन्हें भी कोइ उठा दो 
और अचानक फिर वही चीत्कार उठती 
फिर पुरानी  याद उठती 
फिर पुरानी बात उठती 

महल की खिड़की से ऊपर 
आँख उठती आस उठती 
दीवारों से होते सांझ वाली बात उठती 
प्रेम के गीतों से भरी 
तोता मैना की बात उठती 
रहस्यो से अटी कहानी वाली रात उठती 
बचपन की याद उठती 
बचपन की याद उठती 

Monday, February 10, 2014

अरावली, पन्ना धाय और मैं

अरावली  से मेरा पहला परिचय शायद कक्षा चार या पांच की हिन्दी की किताब के नाटक “पन्ना धाय” मे हुआ था. पन्ना धाय  नाटक के पात्र सोना के मुंह से सुना कि पन्ना धाय राजमहल मे अरावली पर्वत की तरह अडी खडी है, इस वाक्य ने  मेरे नन्हे मन मे ये विचार पैदा किया कि निश्चित ही अरावली पर्वत बहुत ही विशाल और वन तथा वनजीवो से भरा होगा उस दिन से मेरा सपना उस पर्वत को देखने का बना रहा. सन 1998 मे इसे देखने का सौभाग्य मिला जब आगरा के रास्ते मैने राजस्थान मे प्रवेश किया मुझे सोना कि बात बिल्कुल सही लगी सच पन्ना धाय ना सिर्फ राजमहल मे इतिहास मे जिस त्याग, समर्पन और हिम्मत से आज भी खडी है और हम भारतीय नारियो को गर्व से भर देती है उसी हिम्मत से मुझे तो अरावली राजस्थान की सीमा मे अडा हुआ दिखा उसकी विशालता मे सुरक्षित होने के अहसास को मैने राजस्थान की धरती पर महसूस किया. हमारी व्यवस्था मे ना जाने कितने “बलबीर” आते जाते रहते है पर एक पन्ना धाय राजवंश को ना सिर्फ जिन्दा रखती है बल्कि उन्हे देती है श्रेष्ठ परम्पराये, संस्कार और त्याग. अरावली को देखते हुये भी मुझे इसी परम्परा का अहसास हुआ उसे देख कर लगा मानो घर के बुजुर्ग जिसने अपने श्रम से ना सिर्फ परिवार को परम्परा संस्कार व त्याग की सौगात दी है बल्कि अपनी कठोरता का दिखावा भले ही बाहर से किया हो घर के लोगो की कोमलता को बचाया है राजस्थान के नागरिको को अरावली ने कुछ ऐसा एहसास कराया है तभी तो मेरी उस राजस्थान की यात्रा मे पास मे बैठी मेरी सहयात्री अरावली पर्वत को हाथ जोड कर कहती है ये तो हमारे बुजुर्ग है ना जाने कब से खडे है हमारी सुरक्षा मे मैने भी उनके साथ हाथ जोड लिये और एहसासो से भर उठी. विषम परिस्थितियो मे वो क्या था जिसने पन्ना धाय् को थामा था अरावली भी राजस्थान के विषम मौसम को थामे रहता है तभी तो हरियाणा गुडगांव जैसे शहर मे राजस्थान हवाओ की रेत को छान कर भेजता है लेकिन कब तक? दैनिक जागरण मे पढी एक खबर ने मुझे चौंका दिया. अब अटल अविचल खडे अरावली पर होटल काम्पलेक्स बनेगे ............  क्या भूमंडलीकरण ने हमारी नैतिक सम्पदा को बिल्कुल ही समाप्त कर दिया है अरावली कोई भौतिक सम्पदा नही है उसे छिन्न भिन्न करने का मतलब हमारी परम्परओ हमारे संस्कारो को छिन्न भिन्न करना है राजस्थान की धरती पर पन्ना धाय के साथ खडे इस प्रहरी को समाप्त मत करिये हमारी श्रेष्ठ परम्पराये तो यही कहती है.