Wednesday, March 12, 2014

बचपन की याद उठती


















ऊंघते जब उठता था बचपन 
तभी ऊंघते उठते थे 
मालवा के घने जंगल  
शेर उठते बाघ उठते 
फूल उठते खेल उठते 
हिरन उठते झाड़ उठते 
महुये की गंध उठती 
जंगल में  की दहाड़ उठती 

पत्तों की चरर मरर उठती 
गीत के बोल उठाते 
भीलनी के ताल उठते 
सोई हुयी प्रकृति  उठती 
दोपहर से सांझ होती 
सन्नाटे की बात उठती 

किले से कुछ दूर 
मर्म भरी आवाज उठती 
शोर उठता बात उठती 
पगली  रानी की फ़रियाद उठती 
राजा को ज़रा बोल दो 
मै कब से सोई नही 
अब उन्हें भी कोइ उठा दो 
और अचानक फिर वही चीत्कार उठती 
फिर पुरानी  याद उठती 
फिर पुरानी बात उठती 

महल की खिड़की से ऊपर 
आँख उठती आस उठती 
दीवारों से होते सांझ वाली बात उठती 
प्रेम के गीतों से भरी 
तोता मैना की बात उठती 
रहस्यो से अटी कहानी वाली रात उठती 
बचपन की याद उठती 
बचपन की याद उठती 

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