Sunday, March 27, 2016

हीरामन

हीरामन ओ हीरामन आज मैं भी तुम्हारी गाड़ी में देखो आ बैठी आ तो उस दिन भी बैठी थी जब मेरी हँसी पछुआ हवाओं सी चलती थी अपनी लंबी-लंबी  चोटी को हिलाती हुलस-हुलस जाती थी छोडो हीरामन वो पुरानी बाते तुम बताओ हीराबाई से फिर कभी भेट हुई .....नहीं चलो अच्छा ही हुआ जानते हो हीरामन जब तुम मुझे मिले तो मैं बी.ए.में पढ़ती थी हीरामन तब से न जाने कितनी डिग्री ली पर प्यार 'प्रेम' के अनगिनित अंत को नहीं समझ पाई । अच्छा ये बताओ तो महुआ घटवारिन का किस्सा का सच्चा था तुम कहते हो हैं तो सच्चा ही होगा गुलेरी कहते है लहना सिंह प्रेम में था तभी तो कहना निभा पाया महुआ घटवारिन प्रेम में जान दी तुम प्रेम में कसम उठा लिए बताओ तो हीरामन का प्रेम बिछोह ही है प्रेम जब मिल जाए तो प्रेम ख़त्म क्यों हो जाता है हीरामन ?अपने प्रेम का हित कोई सोचे तो गुनाहों के घेरे में खड़ा कर दिया जाता है और भारती बना देते है हीरामन उसे देवता।
हीरामन प्रेम तुम्हें का लगता है ,दरिया है ,आग का या ऐसा ढाई अक्षर जिसे पढ़ा तो सब ने पर समाज कोई नहीं पाया तुम गाँव  से गाँव का चक्कर लगते रहे शेखर शशि के साथ जिन्दगी भर का लेख जोखा लिख बैठे कोई सहारा में नंगे पाव चक्कर कटा तो कोई खुद को डूबा बैठा पर प्रेम,प्यार,प्रीत,मोहब्बत को न समाझा तो न समझा। सो हीरामन तुमने ली तीसरी कसम और हम लेते है पहली प्रेम पर लिखेंगे पढेंगे पर.......।

1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक अधूरी ब्लॉग-बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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