बीते बरस बीत गए ये सोच कर की आने वाले बरस कैसेबीतेंगे थोड़ी सी ख़ुशी देकर या बेरुखी से मुह मोड़ कर फिर चल देंगे ,साथ छोड़ कर। ये क्रम यूं ही चलेगा ,ये रहा गुजर रहेंगे हमारी अंतिम घड़ी तक ।
लोग बतियाना चाहते है लेकिन बाते नहीं हैं। हलाकि हम वैश्विक हो गए है लेकिन ये हो कर कोलाहाल में जो बदले है सो लड़ रहे है खुद से । पुराने पड़े बिंबो की अधूरी रचना मात्र बन कर हम अतीत की खिड़की से अब भी झाक लेते है और महान सभ्यता का गुणगान शुरू कर देते है। हालाँकि
अप्रासंगिक हो चुके पुराने किस्से कुछ नहीं देते लेकिन फिर भी कुछ रातें तो खुशगवार छोड़ ही जाते है । पड़ोस का देश महसूस कर रहा है उस बीती खुशबू की रूमानियत और जज्बे को। वीरान वेदना अगर कुछ पालो की मुस्कुराहाट दे पाट दे पुराने जख्म तो इस से अच्छा क्या ?
आतंक से लेकर कलह खरीदने वाले हम बच्चों के लिए विगत वर्षो से वो खरीदना भूल ही गए जिन्हें देख उनका खिलखिला वापस आ सके और बच्चे है कि सरहद पर सो कर निकल पढ़े खुशियों के किसी और जहां को खोजने ।
इतनी सजायाफ्ता उम्मीदों हो चुकि है कि बिचारी उफ्फ भी नहीं करती । लेकिन गजब है वो जिनके जिस्म और आत्मा को इतना कुरेचा गया देश- विदेश में फिर भी अपने जीवट के साथ युद्ध में शांति और सुरक्षा की बात करती हैं। सारी बहसों को इनकी स्मृतियां समेटती हैं , जीवन के साथ जीवन जीने के पल देती है उस पर उलाहना यह ये आधी आबादी करती क्या है ?
इतिहास हो चुके युद्ध का ठीकरा फोड़ कर हम उनके सर आज भी कहां युद्ध से निकल पाए है जबकि युद्ध में शांति के गीत उन्होंने ही गाये है । वो कौन सी भाषा होगी जिनमे औरते कहेंगी अपने मन की बात और वो कौन से पल होंगे जो उनकी बात सुनेगें । खैर
बीती बरस से गाँव मर रहे है मजबूर मजदूर पिसान किसान यही चलन है देखते है गाँव कब लौटते है या नहीं। पिछले साल का दुःख,भय,दर्द बन कर लटका न रहे । हर कोई डूब रहा है बचने की चाह में। पगडंडियां ख़त्म हो रही है सड़के फैल रही है और डर से नदिया सिमिट रही है या जाने सभ्यताएं इसके बावजूद नदी इंतजार कर रही है ताल का उसे सागर तक जो जाना है अकेली पढ़ चुकि नदी कहे भी तो क्या कहे।नदी डार्विन को याद कर के आँखों से निकले आसूं सी बची है ।
पहाड़ियों से ज्यादा गलियों में वो अब दिखाई देता है सालो से खौंप के रूप में जेहन से लिपटा बढता ही जा रहा है शायद कोई गांधी फिर से आ कर इस आतंक को जहन से निकल फेके।
कोई बुद्ध अब तो निकले महल से ...शांति के लिए अभी कबूतर से ही काम चलन पढ़ेगा ,तब तक बारूदों की महक में ही बच्चे बड़े होंगे हलाकि बच्चोे ने बारूदों की महक सूघने से मन कर दिया ये बात और है की उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पढ़ा ।
बीते कई बर्षो से चुप्पियों में भी शोर सुनाई देता रहा ये जंगल का शोर है वो भी क्या करे उसके पैरो के नीचे से उसकी शांति खिसकी भय शोर तो देता ही है। पुरानी सभ्यता हम तुम्हारे गुनाहगार है।अब जंगल कर्मा नहीं खेलता अब वो खेलता है संताप।
शिकायतों से भरे हम उमीदो पर खड़े है देखना ये है कि ये उम्मीदें कब तक कयाम रहती है।
किसी अनजाने से शहर की अनजानी सी गली में के आखरी अँधेरे कोने में दिलो की बात न हो बल्कि गली के आखिरी में उजाला हो ताकि सबसे बड़े संवेदना की कहानी रिश्तों में बदले अँधेरे में नहीं।प्रेम में पंचायत ओफ़्फ़......... बंद भी करो।
देश के लोग लेकिन भूख और भूगोल के सम्बन्ध को अच्छे से समझते है एक घटना की तरह उनका जीना बंद हो भूख के साथ इस युद्ध में जीत मनुष्य की हो । थोड़ा ठहर कर ठिठुरती उस सर्दी को भी देख ले जो स्टेशन ,फुटपाथ पर याचना की निगाहों से हमें देख कर सिहरन दे जाती है हलाकि प्रेमचंद जैसे लेखक उन्हें बचा लेते है अपनी कहानियों में। ये कहानियां बरस दर बरस हकीकत हो आने वाले वर्षो में ये कामना तो हम कर ही सकते है ।
बीते बरस बहुत कुछ ले कर गया कुछ दे कर गया ये अलाप का दुहराव है जो यूं ही चलता रहेगा। बीते बरस तुझे सलाम आने वाला बरस तेरा स्वागत चमचमाती रोशनी और धुंआ के साथ।
बीते बरस तुझे सलाम आने वाला बरस तेरा स्वागत ....
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आपको भी नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!
Thanks
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