Wednesday, January 6, 2016

अब और नहीं

अभी-अभी तो शरद ने अपनी खुमारी छोड़ी थी अंगड़ाई ले कर दिल में कुछ सरगोशियां कि ही थी की बीते बरसो का धुँआ आँखो में सामता चला गया।
अहसासों के मंजर में ये कौन से अहसास है जो शब्द छीन कर आंसू थमा गए।
कहां से लाए वो पल जो सजा दें मेंहदी लगे हाथो में हसीन सपने। कोई उन परियों को बुला भी दो जो अपने आगोश में ले मायूस सी मासूम को कोई ऐसी कहानी सुना दे जिससे वो कुछ पल के लिए पापा को भूल जाए।
हलांकि जो चले गए है वो नहीं लौटेंगे पर उन सभी के दरवाजे कभी बंद नहीं होंगे ये सोच कर कि उनके साथ बिताए लम्हों की शायद आहट ही आ जाए।
मोमबत्तीयां लिए हम खड़े तुम्हें इतिहास होता हुआ देख रहे है दुःख इसका नहीं दुःख तो इसका है कि सभ्यता के बदलाव की लडाई का अंत नजर नहीं आता। हर जगह आंसू ठहर गए है। ये कौन सा मिजाज़ है जो फीकी रंगत वाला है। फिजाओं हम न उम्मीद नहीं होंगे अब चाहे सफेद फूल खिल दे सरहद के पार या तिरंगा पर अब और नहीं।

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