उसकी पीठ पर बैजनी फूल बंधे थे
और हाथ में सपने
अभी अभी उगे पंख
उसने करीने से सजा रखे थे
कुछ जुगनू उसके होठों पर चिपके थे
कुछ हँसी बन आसमान में
वो एक सर्द रात थी
जब हम नक्षत्रों के नीचे चल रहे थे
और चाँद मेरे साथ
हिम खंड के पिघलने तक
मैं उसका साथ चाहता था
उसे भी इंतजार था सुनहरी धूप का
मैं भरना चाहता था
वो समेटना
इसलिए हमने एकांत का
इंतजार किया
उसकी हँसी एकांत को भर रही थी
मैं डूब रहा था
तभी एकांत के अधेरों में छिपे भेड़ियों ने
उसकी हँसी को भेदना शुरू कर दिया
मैं अकेला ,उनके साथ उनकी हैवानियत
हैवानियत से मेरी नियत हार गई
और हँसी भी
क्षत विक्षित हँसी अब झाड़ियों में पड़ी थी
और में न्याय में
न्याय उलझा था किसी नियम से
मैं आज भी अधेरी रात के डर को
मुट्टी भर राख और चुल्लू भर आंसू में मिला कर
न्याय की आस्थाएं ढूंढ़ रहा हूं।
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बहुत ही मार्मिक वर्णन आज के बदलते सामाजिक परिदृश्य का ,लोगों को मतलब नहीं है देश की समस्याओं से सुन्दर !
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