Saturday, December 16, 2017

न्याय की आस्थाएं

उसकी पीठ पर बैजनी फूल बंधे थे 
और हाथ में सपने 
अभी अभी उगे पंख 
उसने करीने से सजा रखे थे 
कुछ जुगनू उसके होठों पर चिपके थे 
कुछ हँसी बन आसमान में

वो एक सर्द रात थी 
जब हम नक्षत्रों के नीचे चल रहे थे 
और चाँद मेरे साथ 
हिम खंड के पिघलने तक 
मैं उसका साथ चाहता था 
उसे भी इंतजार था सुनहरी धूप का

मैं भरना चाहता था 
वो समेटना 
इसलिए हमने एकांत का 
इंतजार किया

उसकी हँसी एकांत को भर रही थी
मैं डूब रहा था
तभी एकांत के अधेरों में छिपे भेड़ियों ने 
उसकी हँसी को भेदना शुरू कर दिया 
मैं अकेला ,उनके साथ उनकी हैवानियत
हैवानियत से मेरी नियत हार गई 
और हँसी भी

क्षत विक्षित हँसी अब झाड़ियों में पड़ी थी 
और में न्याय में
न्याय उलझा था किसी नियम से
मैं आज भी अधेरी रात के डर को 
मुट्टी भर राख और चुल्लू भर आंसू में मिला कर
न्याय की आस्थाएं ढूंढ़ रहा हूं।
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1 comment:

  1. बहुत ही मार्मिक वर्णन आज के बदलते सामाजिक परिदृश्य का ,लोगों को मतलब नहीं है देश की समस्याओं से सुन्दर !

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