Wednesday, May 8, 2019

मानवता की रक्त शिराएं हमारी नदियां


कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ।।
तो क्या शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १३ वें श्लोक में स्तुतिकार रावण अविरल प्रेमयुक्त तरल-सरल भावों के साथ अपने मन की साध को प्रकट करता है ।
नदियों की ऐसी क्या महिमा है कि सोने की लंका वाला रावण भाव-भीने मन से, खोया हुआ  नदी के तट के निकट किसी कुञ्ज-कुटीर में वास करता करना चाहता है अपनी दुर्बुद्धि से मुक्त होना चाहता है।
प्रस्तुत श्लोक  से हो यही लगता है कि हमारी प्राचीन नदियों के तट पर रहने से मन में छिपी आसुरी वृत्तिया शिथिल अथवा विनष्ट करती है एवं शुभ विचारों का मन में उदय करती है और ऐसी स्थिति में यह सोच भी अवश्यम्भावी हो जाती है कि क्या नदियां जादुई होती है जिनके जादू से दुष्ट वृत्तियां उभर कर मन-बुद्धि को दूषित व उद्वेलित नहीं होने देती या जल का संबंध मानव से सिर्फ शरीर का नहीं मन का भी होता है।   रावण द्वारा ‘निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे’ कहना ध्यातव्य है कि भारतीय संस्कृति में जल व जलाशयों की महत्ता पुरातन काल से स्वीकार की जाती रही है तभी तो रावण गंगा के कछार में , कूल के कुञ्ज-कानन में बसने की बात करता है।
नदियां कई कालखण्डों के इतिहास को अपने हृदय में समेटे है । किस मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपनी पत्नी का परित्याग किया  किन बच्चों ने माता के परित्याग का प्रतिकार लिया था।
इतिहास बताता है कि किस नदी तट पर बसी बस्तियों से मिले अवशेष तथा इन अवशेषों की कहानी केवल किसी सभ्यता से नहीं जुड़ी बल्कि हिन्द की उन्नति से जुड़ी है
किस प्रकार उसके तट पर अनेक ऋषियों ने अपने आश्रम स्थापित किये, किस प्रकार इस क्षेत्र में कथाओं का सूत्रपात हुआ किस भांति उसके ही क्षेत्र में पौरोहित्य का विश्वविद्यालय स्थापित हुआ?
किसी रणछोड़ के अग्रज ने अपने अपराध का प्रायश्चित किया।
किस तरह से तथागत ने इसके तट पर विश्राम किया और धम्म पद के उपदेश दिये?
एक महान सम्राट की लाल चीवर धारी शांति सेना अपने नृपति के आदेशों-संदेशों के साथ इसके कूलों के किनारों से आगे बढ़ते हुए आत्ममुग्ध भाव से गुजरी थी।
कैसे एक विदेशी पर्यटक ह्वेनसांग धम्म सभा में सम्मलित होने के लिए थेरी गाता हुआ जिसके तट से गुजर था वो भी उसे याद है। 
किस प्रकार धम्म सभा में उपद्रव करने के बाद कुछ लोग उसको  पार करके उत्तरांचल की ओर प्रस्थान किए थे तब राजा की सेनाएं नदी के तट पर आकर उनकी खोज में काफी समय भटकती रह गयी थी।
किसी मुगल अकबर ने यहां पर वाजिपेय यज्ञ कराने के लिए एक लाख रुपये यहां के ब्राह्मणों को दिये और गोमती का तट यजु:वेद की ऋचाओं सेगूंज उठा। इसके बाद अपनी विभेद कारी नीति के तहत विप्रों की मर्यादा आंकी गयी।
तो क्या नदियां हमारी मानवीय चेतना को प्रभावित करती है ? अगर है तो हमें इन्हें मानवीय दर्जा दे देना चाहिए।
नदियों के नामकरण तो यही कहते है
एददः सम्प्रयती रहावनदता हते।
तस्मादा नद्यो3नाम स्थ ता वो नामानि सिन्धवः।।
(सन्दर्भ ग्रंथ: अथर्ववेद, तृतीय काण्ड, सूक्त-13, मंत्र संख्या - 01)
“हे सरिताओं, आप भली प्रकार से सदैव गतिशील रहने वाली हो। मेघों से ताडि़त होने, बरसने के बाद, आप जो कल-कल ध्वनि नाद कर रही हैं; इसीलिये आपका नाम ’नदी’ पड़ा। यह नाम आपके अनुरूप ही है।’’
नदियों के नामकरण के भिन्न आधार दिए गए हैं। अधिकांश नदियों के नामकरण उनके गुण, वंश अथवा उद्गम स्थल के आधार पर किए गए हैं।
भारत के विविध भागों में प्रवाहित इन नदियों को देवी-देवताओं से समीकरण स्थापित किया जाता है यथा: गंगा – भगवान शिव, गोदावरी – श्री राम, यमुना – श्री कृष्ण, सिंधु – श्री हनुमान, सरस्वती – भगवान गणेश, कावेरी – भगवान दत्तात्रेय, नर्मदा – देवी दुर्गा।
ऐसी स्थिति में हमें इनके सन्दर्भ में पुनः विचार करना होगा शायद ये विचार एक पूरी सभ्यता को पुनःमानव बनाने की कवायद होगी।
एक नदी को हम क्या दे सकते है ?आपने कभी सोचा है या एक नदी आज के दौर में हमसे क्या चाहती है ?
प्रश्न बड़ा गंभीर है जिसके उत्तर भी हमें गंभीरता से ही देने होंगे और अगर हम ऐसा नहीं करते तो मानव सभ्यताओं को विलुप्त होते देर नहीं लगेगी।
नदी सिर्फ जीवन चाहती है वो चाहती है कि मानव सभ्यता के साथ- साथ उसके अंदर पलने वाले प्राणियों को बेहतर जीवन मिले लेकिन ऐसा है नहीं देश की समस्त नदियां प्रदुषण का शिकार है ।
एक सर्वेक्षण के अनुसार ज्यादातर नदियों के जल के एक लीटर में ऑक्सीजन की मात्रा इस समय 0.1 घन सेमी रह गई है जबकि 1940 में औसतन यह 2.5 घन सेमी थी। 
कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, भागलपुर, कोलकाता-जैसे कई बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। इन नगरों में अनेक कल-कारखाने हैं। शहरों का मल-जल तथा उद्योगों के अपशिष्ट बिना शोधन के गंगा मे प्रवाहित किये जाते हैं। इसका उपयोग जल-मार्ग की तरह भी किया जा रहा है। गंगा एवं इसकी सहायक नदियों पर बांध बनाकर इसके जल को नहरों में ले जाया जा रहा है। गंगा और सहायक नदियों पर बनाये गये तटबंध गंगा के पारिस्थितिकी तन्त्र पर काफी बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। फलत: इसकी जैव-विविधता में तेजी से ह्रास हुआ है। 
जैव विविधता में ह्रास के दो मुख्य कारण हैं-
1. जीवों का अधिक शिकार या दोहन एवं
2. जीवों के वासस्थान का विनाश।
अधिक शिकार के कारण गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन, घड़ियाल, उदविलाव और मुलायम आवरण वाले कछुए कई क्षेत्रों से विलुप्त हो गये हैं। अन्य क्षेत्रों में ये विलुप्ति के कगार पर हैं।
आर्थिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण रोहू, कतला, नैनी-जैसी प्रजातियों के लिए गंगा का दियारा बरसात के मौसम में प्रजनन क्षेत्र होता है। दियारा में पहले प्राकृतिक रूप से उगने वाली वनस्पतियाँ होती थीं। अब सम्पूर्ण दियारा क्षेत्र में खेती हो रही है। खेती में कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है। इन जहरीले पदार्थों के कारण मछलियों के अंडे से बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं। इस तरह वासस्थान के जहरीला होते जाने और अंधाधुन्ध शिकार के कारण मछलियों में तेजी से ह्रास हुआ है।
वैश्वीकरण के दौर में मछलियों की कई विदेशी प्रजातियाँ भारत में आ रहीं हैं। इनके प्रभाव से गंगा भी अछूती नहीं है। दो दशक पहले तक (1993-95 ई.) गंगा में पटना के आस-पास एक भी विदेशी मछली नहीं पायी गयी थी। लेकिन 2007-09 में विदेशी मछलियों की लगभग दस प्रजातियाँ यहाँ पायी गयीं। ये विदेशी मछलियाँ स्थानीय मछलियों के लिए खतरनाक हैं। 
इस ह्रास के भी कई कारण हैं। इनमें सबसे प्रमुख है प्रदूषण एवं जल प्रवाह की कमी। शहरों से बिना शोधन के जल-मल को सीधे गंगा में गिराया जा रहा है। प्रतिदिन लगभग 13,000 मिलियन लीटर जल-मल गंगा के किनारे वाले शहरों में जनित होते हैं। मगर, मुश्किल से 4,000 मिलियन लीटर जल-मल के शोधन की व्यवस्था हो पायी है।
इसी तरह कल-कारखानों से प्रतिदिन 260 मिलियन लीटर बहि:स्राव निकलता है। इसका अधिकांश भाग बिना शोधन के गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। घरेलू एवं औद्योगिक बहि:स्राव के कारण गंगा काफी प्रदूषित हो गयी है।
कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र को उपयोग में लाये जाने वाले डी.डी.टी., टी.सी.एच, बी.एच.सी. और इण्डोसल्फान आदि कीटनाशक बरसात के महीने में बहकर गंगा में आ जाते हैं। गंगा का जल एवं पारिस्थितिकी तन्त्र इन जहरीले रसायनों से प्रदूषित हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 3,000 टन कीटनाशक प्रति वर्ष गंगा में प्रवाहित हो रहे हैं। कीटनाशकों के अलावा पालीक्लोरिनटेड, बाईफनाईल, परक्लोरिनेटेड- जैसे रसायन भी गंगा में पाए गए हैं।
सोचिए अगर ये हालत भारत देश की सबसे पवित्र नदी मानी जाने वाली गंगा की है तो अन्य नदियों का हाल कैसा होगा ? क्या करें जिनसे हमारी नदियां प्रदूषण से बचे ? क्या हमें उन्हें जीवित दर्जा दे देना चाहिए?
एक नदी की इंसान बनने की कहानी --------------------------------------------
देखा जाए तो ये बुरा भी नहीं अगर ये नदियां हमें जीवन देती है जीवनदायनी है तो इन्हें ये दर्जा मिलने ही चाहिए।
नदी को जीवित का दर्जा दिए जाने का मतलब है, उसे वे सभी अधिकार दे देना, जो किसी जीवित प्राणी के होते हैं। नदी का शोषण करने, नदी को बीमार करने और नदी को मारने की कोशिश करने जैसे मामलों में अब क्रिमिनल एक्ट के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। नदी पर किए गए अत्याचारों के मामले मानवाधिकार आयोग में सुने जा सकेंगे।
भारतीय संस्कृति के आलोक में देखें, तो नदी इतने गुणों का बहाव दिखती है कि लगता है कि सभी सद्गुण तो नदिया के भीतर-बाहर छिपे बैठे हैं।
नदिया-गुणिया एकधन, जो खोजे, सब पाय।
आइये तो खोजें आखिर नदियों में किस तरह और कितने मानवीय गुण है-
प्रहवामाय ,बलशाली,क्रियाशीलता,सक्रिय तत्व की उपस्थिति,क्रिया शक्ति,रसवती-स्पर्शवती आदि
ऋगवेद के सातवें मण्डल में नदी के निरन्तर प्रवाह की स्तुति की गई है। स्पष्ट है कि प्रवाह की निरन्तरता, किसी भी नदी का प्रथम एवम् आवश्यक गुण है। प्रवाह की निरन्तरता बहुआयामी होती है यही नदी का गुण है। किसी एक भी आयाम में हम निरन्तरता को बाधित करने की कोशिश करेंगे; नदी अपना प्रथम और आवश्यक गुण खो देगी। इसके दुष्प्रभाव कितने व्यापक हो सकते हैं; इसका आकलन आज हम कोसी, गंगा, नर्मदा जैसी कई प्रमुख नदियों के आयामों में मनुष्य द्वारा पैदा की गई बाधाओं के परिणामस्वरूप नदी जल की गुणवत्ता तथा जल, रेत, गाद, वेग तथा नदी के बदले रुख से समझ सकते हैं।
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तिष्व श्रवा भवत वजिनः।
देवीरापो यो व ऽऊमिः प्रतूतिः ककुन्मान् वाजसास्तेनायं वाज सेत्।।
यजुर्वेद (नवमध्याय, मंत्र संख्या-छह) में लिखे इस श्लोक का भावार्थ है कि जल के अन्तःस्थल में अमृत तथा पुष्टिकारक औषधियाँ मौजूद हैं। अश्व यानी गतिशील पशु अथवा प्रकृति के पोषक प्रवाह इस अमृत और औषधिकारक जल का पान कर बलवान् हों। हे जलसमूह, आपकी ऊंची और वेगवान तरंगे हमारे लिये अन्न प्रदायक बनें।
वैज्ञानिक दृष्टि भी यही कहती है कि नदी तभी बलवान होती है, जब उसका जल मृत न हो यानी प्रवाह में ऑक्सीकरण की प्रक्रिया सतत् होती रहे। गुणवान होने के लिये औषधियों से संसर्ग करने आने वाले जल का नदी में आते रहना जरूरी है।
नदी, सिर्फ जल नहीं है; लेकिन जलमय है और यही गुण नदी में क्रियाशीलता लाता है अतः क्रियाशीलता को नदी का गुण कहना गलत नहीं।
अथर्ववेद -(काण्ड तृतीय, सूक्त 13, मंत्र संख्या - एक ) में जलधाराओं में सृष्टि के मूल सक्रिय तत्व का आहृान किया गया है।
सृष्टि के शाब्दिक अर्थ पर जायें तो ‘सृष्टि’ शब्द का मतलब ही है, रचना करना। शाब्दिक अर्थ को सामने रखें, तो रचनात्मक सक्रियता को नदी का एक अपेक्षित गुण मानना चाहिए। सृष्टि कर्म देखें तो सृष्टि में रचना के बाद विनाश और विनाश के बाद रचना सतत् चलने वाले कर्म हैं। इस दृष्टि से नदी में रचना और विनाश तत्व की सक्रिय मौजूदगी की अपेक्षा करनी चाहिए। इसका वैज्ञानिक पहलू यह है कि नदी में जहाँ एक ओर शीतल तत्व मौजूद होते हैं, वहीं ऊर्जा उत्पन्न करने लायक ताप और वेग भी मौजूद होता है। नदीजल जीवन भी देता है और आवश्यक होने पर विनाश करने की भी शक्ति रखता है।
भारत में आज कितनी ही नदियाँ ऐसी हैं कि जिनमें इतना जल न के बराबर  है । कितनी ऐसी है जिनके सिर्फ निशान मौजूद हैं। उनमें न जल है और न जीवन। पृथ्वी पर उनकी रचना आंशिक ही है ।
कई नदियां तो नाले में परिवर्तित है तो कुछ अपने बीत चुके वैभव के साथ बीती बात हो चुकी है। जो है उनके पानी में क्रियाशीलता के आभाव में तेज नहीं।
अथर्ववेद -(काण्ड 03, सूक्त 13, मंत्र संख्या -दो) में जलधाराओं से कामना की गई है कि वे क्रियाशक्ति उत्पन्न कर उन्हे हीनता से मुक्त करेंगी तथा प्रगतिपथ पर शीघ्र ले जायेंगी।
इसका मतलब है कि नदी इतनी सक्षम होनी चाहिए कि वह हमारे भीतर ऐसा कुछ करने की शक्ति पैदा कर सकें, जिससे हमारी हीनता यानी कमजोरी मिटे और हम प्रगति पथ पर अग्रसर हों। इस नदी गुण को हम कृषि, उर्वरता वृद्धि, भूजल पुनर्भरण, भूजल शोधन तथा मैदान व डेल्टा बनाने वाले में नदी के योगदान से जोड़कर देखें।
नदी तो प्रेरणा है
यह नदी गुणाों का आध्यात्मिक और सामाजिक पक्ष है। नदी कर्म में निरन्तरता, शुद्धता, उदारता व परमार्थ तथा वाणी में शीतलता की प्रेरणा देती है। नदियों से सीखने और प्रेरित करने के लिये कवियों ने संस्कृत से लेकर अनेक भाषा व बोलियों में रचनायें रची हैं। कभी उन्हे देखना चाहिए।
रूपा रस स्पर्शवत्य आपो द्रवः स्निग्धा:।
मनुस्मृति में किए उक्त उल्लेख का तात्पर्य है कि रूप, स, स्पर्शवान, द्रवीभूत तथा कोमल ‘जल’ कहलाता है; परन्तु इसमें जल का रस अग्नि और वायु के योग से होता है। स्पष्ट है कि ये सभी गुण, नदी के गुण हैं। नदी कोमलता का आभास देती है। नदी तरल होती है। नदी स्पर्श करने योग्य होती है। नदी में रस यानी जल होता है। नदी का अपना एक रूप होता है।
विचारणीय तथ्य यह है कि जल के ये गुण अग्नि और वायु के योग के कारण होते हैं। यह तथ्य हमें सावधान करता है कि जल हो या नदी, वायु और ताप से इनका सम्पर्क टूटने न पाये। पानी से बिजली बनाती परियोजनाएं नदी का वायु और ताप से संपर्क तोड़ देती है।
शीतलत एवं शांति दायक - एक नदी ही हो सकती है
हिमवतः प्रस्नवन्ति सिन्धौ समह संगम।
आपो ह महंन तद् देवीर्ददन् हृदद्योत भेषज्ञम्।।
अथर्ववेद (सूक्त 24, मंत्र संख्या-एक) का भावार्थ यह है
कि हिमाच्छित पर्वतों की जलधारायें बहती हुई समुद्र में मिलती हैं। ऐसी धारायें हृदय के दाह को शान्ति देने वाली होती है।
आज अशांति में जीते हम शांति का मर्म समझना ही नहीं चाहते ऐसे में एक नदी ही हमें इस गुण से परिचित करा सकती है।
ये गौर करने वाली बात है ये गुण हिम धाराओं के है जो पर्वतीय नदियों में मिलते है।
भारत के सांस्कृतिक ग्रंथों में जहाँ जल में ईश का वास माना गया है, वहीं नदियों को देवी तथा माँ का सम्बोधन दिया गया है। पौराणिक कथाओं में कहीं किसी नदी का उल्लेख किसी की पुत्री, तो किसी का किसी की बेटी, बहन अथवा अर्धांगिनी के रूप में आया है। नर्मदाष्टक में नर्मदा को हमारी और हमारी प्राचीन संस्कृति की माँ बताया गया है। यह प्रमाण है कि भारत का सांस्कृतिक इतिहास नदियों को जड़ न मानकर, जीवित मानता है। सांस लेना, गतिशील होना, वृद्धि होना, अपने जैसी सन्तान पैदा करना - किसी के जीवित होने के इन जैविक लक्षणों को यदि हम आधार मानें, तो हम पायेंगे कि नदी में ये चारों लक्षण मौजूद हैं।
नदियां मानवता की रक्त शिराएं हैं
-----------------------------------------
गौर करें कि तल, तलछट, रेत, सूक्ष्म एवम् अन्य जलीय जीव, वनस्पति, वेग, प्रकाश, वायु तथा जल में होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया मिलकर एक नदी और इसके गुणों की रचना करते हैं। इसी आधार पर नदी वैज्ञानिकों ने प्रत्येक नदी को महज जल न मानकर, एक सम्पूर्ण जीवंत प्रणाली माना है। इसी आधार पर न्यूजीलैण्ड और इक्वाडोर में नदियों को जीवित का दर्जा मिला।
यह सिर्फ एक नदी को बचाने की कवायद नहीं है बल्कि मानव और प्रकृति के बीच के छीजते रिश्ते को मजबूत करने की कोशिश है. सहअस्तित्व का ये भाव सिर्फ भाषणों या सम्मेलनों तक सीमित नहीं रहा बल्कि उसे जमीन पर उतारकर दुनिया भर की नदियों का भविष्य संवारने का पैगाम दिया गया है. नदी को इंसानी अधिकार देना चौंकाता जरूर है लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि ऐसे अभूतपूर्व तरीकों से ही तेजी से प्रदूषित हो रही दुनियाभर की नदियों की रक्षा की जा सकती है. उनके मुताबिक इस बात को भी समझने की जरूरत है कि नदियों को बचाने के परंपरागत तरीके उतने प्रभावी साबित नहीं हो पा रहे।
नदियां मानवता की रक्त शिराएं हैं। नदियों के मरने का मतलब इंसानी सभ्यता का भी खत्म होना है.
नदी को जीवित का दर्जा दिए जाने का मतलब है, उसे वे सभी अधिकार दे देना, जो किसी जीवित प्राणी के होते हैं लेकिन क्या जीवित आम आदमी की तरह नदी भी न्याय मंगाते- मंगाते निराश हो ख़त्म तो नहीं हो जाएगी?
-------------------------------------------------------------
सन्दर्भ ग्रंथ--
1.शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १३ वें श्लोक
2.अथर्ववेद, तृतीय काण्ड, सूक्त- 13, मंत्र संख्या- 01
3.यजुर्वेद, नवमध्याय, मंत्र संख्या-6
4.यजुर्वेद अध्याय 23 मंत्र 22
5.मनुस्मृति
6.अथर्ववेद सूक्त-24, मंत्र संख्या- 1
----------------------------------------------------------------

No comments:

Post a Comment