धरा की नैसर्गिक सौन्दर्यता देख लोक की मनः भावना करोड़ो-करोड़ मुखों से पावस गीतों के रूप में फूट पड़ती है | वर्षा ऋतू में भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कजरी, हिन्दुली, चौमासा, सावन गीत ,वन्य प्रदेशों में टप्पा, झोलइयां, मलेलबा आदि तमाम तरह के मधुर गीतों से प्रकृति गुंजायमान हो जाती है |
लेकिन ये गीत आए कहां से इन्हें किसने रचा....?
उपनिषद के रचयिताओं ने उद्गगीत का सृजन किया उनका संबंध अन्न प्राप्ति के विचार से ही था असल मे उद का अर्थ था श्वास ,गी का अर्थ था वाक्र और था का अर्थ था अन्न अथवा भोजन।(लोकायत)
अन्न पर स्थित सारे विश्व की मंगलकामना करने का विचार ही कितना मनमोहक है।
ऋतु प्रेम, उल्लास, उछाह साथ ही करुणा की अभिव्यक्ति की ऋतू है ऐसी ही किसी ऋतु में रिमझिम बारिश में डूबे खेत, हरियाली का दुशाला ओढ़े पर्वत, कल - कल करती नदियां और झूमते दरख्त ऐसे में श्रम में लीन किसी तरुनी ने काले- काले बादलों के समूह को जाता देख तान छेड़ी होगी जिसमे प्रेम के साथ-साथ विरह भी था और थी कहीं न कहीं अन्न प्राप्ति की भावना जो श्रम की थकान से मुक्ति का मनोविज्ञान भी था।
इस सुंदर धरती पर अपना जीवन खुद गढ़ने का अद्भुत वरदान ईश्वर ने मानव को दिया है इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम इस धरती को मौसम के अनुकूल रहने दे तभी सावन आएगा बादल छाएंगे और तरुणी गा उठेगी---
रसे रसे पानी बरसे हुलसे है परान
रसे रसे बाढ़े, खेतवा में हरियर धान
रसे रसे बोले धनिया रसभरी बतिया
रसे रसे भीजे, पोरे पोरे देहिया जुड़ान
मटियारी गीत और निरबंसियों की कथा ठहर कर सुनने के लिए प्रकृति को सुनना जरूरी है
बादर बुनियाते रहे... मानस .. के स्वर और तेज होते रहे बस प्रकृति से यही कामना है--
'घन घमंड नभ गरजत घोरा ...प्रिया हीन डरपत मन मोरा' ।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/08/2019 की बुलेटिन, "मुद्रा स्फीति के बढ़ते रुझानों - दाल, चावल, दही, और सलाद “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteभावपूर्ण रसमय प्रस्तुति
ReplyDeleteशुक्रिया आप सभी का।
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