जब उड़ने लगती है सड़क पर धूल
और नीद के आगोश में होता है फुटपाथ
तब बीते पलों के साथ
मैं आ बैठती हूँ बालकनी में
अपने बीत चुके वैभव को अभाव में तौलती
अपनी आँखों की नमी को बढाती
पीड़ाओं को गले लगाती
तभी न जाने कहां से
आ कर माँ पीड़ाओं को परे हटा
हँस कर
मेरी पनीली आँखों को मोड़ देती है फुटपाथ की तरफ
और बिन कहे सिखा देती है
अभाव में भाव का फ़लसफा
मेरे होठों पर
सजा के संतुष्टि की मुस्कान
मुझे ले कर चल पडती है
पीड़ाओं के जंगल में
जहाँ बिखरी पडी हैं तमाम पीड़ायें
मजबूर स्त्रियां
मजदूर बचपन
मरता किसान
इनकी पीड़ा दिखा सहज ही बता जाती हैं
मेरे जीवन के मकसद को
अब मैं अपनी पीड़ा को बना के जुगनू
खोज खोज के उन सबकी पीड़ाओं से
बदल रही हूँ
माँ की दी हुई मुस्कान
और सार्थक कर रही हूँ
माँ के दिए हुए इस जीवन को
सच है माँ ही जीवन देती है और वाही दिशा भी देती है ... जीने को प्ररणा देती है ..
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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