कोई गतिशील बिंदु
किसी बिंदु से मिले
उस अंतराल के बीच
उसे बांधने के भ्रम में खड़ी मैं
बट गई हूँ
पहरों, घंटो, मिनिट और सेकेण्ड में
देख रही हूँ एक मीठी दोपहर को
कोई शायद गुजरा है बिना किसी आहट के
वो जो अविरल, अनत है
सन्निकट था मेरे
अब किसी दूरदराज के खेतों में
विहंसती सरसों की पीली बालियों के
बीच झूम रहा है
और मैं
एक एक बोझिल पालो को समेट रही हूँ
इस आस में
कि इन पलों पर फिर छिटकेगी मुस्कान उसकी
जो कर देगी मुझे लींन
उस अनूठी लय में
जिसमे कालचक्र अनवरत घूमता है
बहुत सुंदर पंक्तियाँ...
ReplyDelete