मैं एक स्त्री ईमानदारी से अपने सारे दोष को स्वीकार करती हूँ और उनकी जाँच - पड़ताल करती हूँ तो ये पाती हूँ हर बार पुरुष जाति पर लगा के तोहमत और बन कर अबला मैंने अपने उन दोषों को खूबसूरती से छिपाया है जिन्होंने मुझे हमेशा कमजोर किया है . इन दोषों को मैंने मेरे अन्दर खुद ही पैदा किया सदियों से उन्हें पोषा और वक्त आने पर उन दोषों को बिचारी , अबला, त्याग की देवी और ना जाने कितने नाम देकर अपने वजूद के साथ ऐसा आत्मसात किया कि सतयुग से लेकार आज तक मैं उनका इस्तेमाल अपनी सुविधा अनुसार करती आ रही हूँ और जब कभी मैं इसमे सफल नहीं हो पाती तो लगा कर पुरुषों पर दोषारोपण अपने दोष को जस्टिफाई करती रही हूँ .
परम्पराएँ , रीति -रिवाज , संस्कार सब को बनाने में मेरा साथ था और उन्हें समाज को सिखाने में मेरी भूमिका पुरुष से ज्यादा थी फिर भी मेने ही उन परम्पराओं की दुहाई दे दे कर अपने आप को कमजोर करने में जुटी रही क्यों ....? क्योकि मैं अपने ही बनाए खोल से बाहर नहीं निकलना चाहती थी .
मैं एक स्त्री आज ईमानदारी से ये स्वीकार करती हूँ कि हमारी दुनिया कि क्रांति सिर्फ और सिर्फ हमारे दोषों को स्वीकार करने में है खुद को खुद से बचाने में है शायद ये प्रतिक्रांति ही हमें हमारे आत्मसम्मान , आत्मविश्वास से मिला सकती है जिसे हमने अपने खोल में जिसमे हम वर्षो से बंद है उसके बाहर कही दूर फेक दिया हैं .
मैं एक स्त्री आज ईमानदारी से ये स्वीकार करती हूँ कि हमारी दुनिया कि क्रांति सिर्फ और सिर्फ हमारे दोषों को स्वीकार करने में है खुद को खुद से बचाने में है शायद ये प्रतिक्रांति ही हमें हमारे आत्मसम्मान , आत्मविश्वास से मिला सकती है जिसे हमने अपने खोल में जिसमे हम वर्षो से बंद है उसके बाहर कही दूर फेक दिया हैं .
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