Wednesday, April 8, 2015

सूखे मनुपुत्र



मै मनुपुत्र!
साफ करता हूँ
जिन्दगी के धुंधलके को,
सारे नाजुक जज्बे सर्द पड़ गए
अन्दर का बैल थक कर जुगाली करता है
और तब तक करता रहता है
जब तक बातो की डचकरों से,
तानो की ठोकरे उस पर प्रहार नहीं होते
मुझे फिर से बैल बनाने के लिए।
मेरे सामने होती है
एक लम्बी फेरिस्त
जिसमे होता है
ख्वाहिशों का लम्बा सिलसिला
जो मेरे सींगो पर रख दिया जाता है
काश मैं ख्वाहिशों को सींगो से नीचे रख पाता,
मोड़ पाता पीछे गर्दन
देख पाता गुजरे गुबार को,
पतझड़ सावन में भेद कर पाता
समेट पाता जिन्दगी के बिखराव को
और बता पाता कि,
ऐसा दरिया हूँ जिसके किनारे सूखे हैं
मैं मनुपुत्र
अभिशापित हूँ देखने के लिए
सामने प्रलय होते हुए,
समंदर के हर कतरे को अंतस में जब्त करने को।

5 comments:

  1. एक लम्बी फेरिस्त
    "जिसमे होता है
    ख्वाहिशों का लम्बा सिलसिला
    जो मेरे सींगो पर रख दिया जाता है"


    सुन्दर रचना

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  2. वाह , कुछ बेबसी , कुछ नियति .... बहुत अच्छी रचना

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  3. मनुपुत्र भला कब हारे

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  4. मनुपुत्र भला कब हारे

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  5. मनुपुत्र भला कब हारे

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