क्यों कोई -कोई दिन
इतना बोझिल होता है
कि खिड़की से गुजरती हवा
खुले कपाट बंद कर देती है
और दिन अधेरों में सहम कर छिप जाता है
क्यों सूरज खिड़की के कपाट नहीं खोलता
ठिठक कर आँगन में खड़ा रहता है
और हर ख़ुशी किनारे के पार नज़र आती है
क्यों ये बोझिल दिन
सिद्धार्थ की सीमओं से निकल कर बुद्ध नहीं बन जाता ?
इतना बोझिल होता है
कि खिड़की से गुजरती हवा
खुले कपाट बंद कर देती है
और दिन अधेरों में सहम कर छिप जाता है
क्यों सूरज खिड़की के कपाट नहीं खोलता
ठिठक कर आँगन में खड़ा रहता है
और हर ख़ुशी किनारे के पार नज़र आती है
क्यों ये बोझिल दिन
सिद्धार्थ की सीमओं से निकल कर बुद्ध नहीं बन जाता ?
सुन्दर पंक्तियाँ
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