Saturday, March 7, 2015

पूरब के कंधे पर

तुम्हारे साथ को
मैं ने अपने भीतर बूंद बूंद समेटा है
ये एक जादुई एहसास है
जो मेरे अन्दर सिहरन छोड़ जाता है 
ये तो वसंत का आगाज है 
अरे ओ अनमने दिन बाँध  लो अपनी गठरी 
एकांत की चादर मैं ने समेट जो दी है 
अरे ओ दरिया की लहरों मुझे किनारा मिल गया है 
मेरा ये अनायास दुखी और बेचैन होना 
और एक ही पल में बेवजह मुस्कुराहटों का पिटारा खोल देना 
असल में अनजाने  से  आगत की गंध है 
जो पूरब से आ रही है 
अरे मेरी रूह आज तुम मिलोगी 
खुद से और मिलोगी पूरी कायनात से 
आओ चले टिका दे
अपनी उम्र और अकेलापन पूरब के कंधे पर 

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