Tuesday, May 5, 2015

अक्षर



कुछ मिलने, कुछ होने की कामना का अंत कर
वासना का कर विसर्जन
सुन पा रही हूँ प्रकृति के कण-कण का संगीत
सूखे पत्तो की मीठी राग
फूलो की पंखुड़ियों का थरथराना
वर्षा की बूँदों की झनकार
अंतस के गीत
इस तरह
वाक्यों और शब्दों के बंधनों से मुक्त
अक्षर बन जाती हूँ मैं
और पहुंच जाती
उस विराट उर्जा के पास
घुल जाती हूँ सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में
यही मेरी नियति, प्रारब्ध और आध्यात्म है।

4 comments:

  1. प्रकृ्ति के समीप ही शांति मिलती है बहुत अच्छी रचना1

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  2. बहुत सुन्दर वर्णन किया।

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  3. कामनाओं से मुक्ति ही पहला कदम है उस विराट शक्ति के अस्तित्व को महसूस करने का सृष्टि के कण कण में...बहुत ही प्रभावी और गहन अभिव्यक्ति...

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  4. शब्दातीत को शब्द मे ढाला है
    भावातीत को भावो मे ढाला है
    अतीव सुन्दर, बधाई

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