Friday, August 19, 2011

तृष्णा की है सारी दुनिया

तृष्णा की है सारी दुनिया 
प्रलोभन का इसमे वास 
नहीं मिलेगा कोई यहाँ 
जिस पर कर तू विश्वास

क्यों व्याकुल हो मन भटकता
क्यों सहता ये प्रलाप
हर और घात ही घात 
निराशा का भीषण आघात 

शव जैसी ये भौतिक उपलब्धि 
व्यर्थ का सारा विज्ञान
उन्माद जैसी ये प्रगति 
करती मानव को परेशान 

भटक- भटक तू जीवन में फसता
दिन- रात दोड़ता, कमाता तू
अब आया जीवन संध्या काल 
तब जाना ये है मायाजाल 

12 comments:

  1. ज़बरदस्त . बहुत सुंदर

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  2. AAPNE AAJ KE SAMAJ KA SATIK CHITRAN KIYA HAI.
    BAHUT ACHCHA...........

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  3. गजब की रचना है.....

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  4. भटक- भटक तू जीवन में फसता
    दिन- रात दोड़ता, कमाता तू
    अब आया जीवन संध्या काल
    तब जाना ये है मायाजाल .....बहुत अच्छी बात कही पर ये समझ आ जाता तो बात ही क्या थी ये माया जाल तो अपने में ही फंसा कर रखता है |
    बहुत सार्थक रचना |

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  5. कल 22/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  6. sahi likha hai ...
    jeevan ka mayajaal der se samajh me aata hai...

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  7. सटीक प्रस्तुति ... यही भटकन जीवन है ..

    जन्माष्टमी की शुभकामनायें

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  8. अच्छा लिख रहे हो ...शुभकामनायें !

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  9. छत्‍तीसगढ़ देख कर यहां आया, कविताओं के साथ कुछ समाजशास्‍त्र भी आएगा, आशा है.

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