तृष्णा की है सारी दुनिया
प्रलोभन का इसमे वास
नहीं मिलेगा कोई यहाँ
जिस पर कर तू विश्वास
क्यों व्याकुल हो मन भटकता
क्यों सहता ये प्रलाप
हर और घात ही घात
निराशा का भीषण आघात
शव जैसी ये भौतिक उपलब्धि
व्यर्थ का सारा विज्ञान
उन्माद जैसी ये प्रगति
करती मानव को परेशान
भटक- भटक तू जीवन में फसता
दिन- रात दोड़ता, कमाता तू
अब आया जीवन संध्या काल
तब जाना ये है मायाजाल
ज़बरदस्त . बहुत सुंदर
ReplyDeleteAAPNE AAJ KE SAMAJ KA SATIK CHITRAN KIYA HAI.
ReplyDeleteBAHUT ACHCHA...........
गजब की रचना है.....
ReplyDeleteOf course life is a big rattrap.
ReplyDeleteबेहतरीन।
ReplyDeleteसादर
bahut khubsurat geet...
ReplyDeletesaadar badhai...
भटक- भटक तू जीवन में फसता
ReplyDeleteदिन- रात दोड़ता, कमाता तू
अब आया जीवन संध्या काल
तब जाना ये है मायाजाल .....बहुत अच्छी बात कही पर ये समझ आ जाता तो बात ही क्या थी ये माया जाल तो अपने में ही फंसा कर रखता है |
बहुत सार्थक रचना |
कल 22/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
sahi likha hai ...
ReplyDeletejeevan ka mayajaal der se samajh me aata hai...
सटीक प्रस्तुति ... यही भटकन जीवन है ..
ReplyDeleteजन्माष्टमी की शुभकामनायें
अच्छा लिख रहे हो ...शुभकामनायें !
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ देख कर यहां आया, कविताओं के साथ कुछ समाजशास्त्र भी आएगा, आशा है.
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