Thursday, March 24, 2011

आवाहन

















रूठ गया  जो मुझसे
 क्या कभी ना अपना सकुगी
 में वो तो मेरे अपने थे अपना मानू  किसको में
 हे  पमेश्वर मुझसे क्या  कोई भूल हुई
 केसे पाउगीमें उनको
 ये भूल तो शूल हुई 
उन्होंने मुझसे मुख मोड़ा 
मुझे निर्धन कर डाला 
बिनउनके के जीवन केसा 
अब जीवन  विष का हाला 
 रिश्तो को जो ना समझे
 उसको केसे समझाऊ 
उनके बिना अब जीवन केसा
 केसे इसको निभाऊ
 बीच मझधार में नय्या
 मेरी केसे पार में पाऊ
 ना मुझे जीना है जीवन से प्यार 
मेरे  जीवन स्पंदन बंद  कर दो इसी समय तुम आ
 घनघोर निरशा की   बेला में इसी समय तुम आओ
 हे परम पिता मुझे भी अपने साथ भी ले जाओ  

6 comments:

  1. ऐसी घनघोर निराशा ? ये स्थायी भाव ना बने किसी के जीवन में ऐसा मेरी इश्वर से विनती है , मेरी कविता की दो पंक्तियाँ पढो और निकल आओ इस भाव से .
    हो कितना भी गहरा नैराश्य भाव , जिजीविषा बिखर ना पाए
    स्फुलिंग, इस विद्रूप जड़ता का , कही और प्रखर ना हो जाये

    यू करो मन का दीप प्रज्ज्लावित , निर्मम तम , क्लांत ना कर पाए
    आशा के तुम दीप जलाओ , दीखे प्रदीप , मन अशांत ना कर पाए

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  2. आपकी हर रचना जिन्दगी के करीब लगती है बहुत ही खुबसूरत रचना....

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  3. ना मुझे जीना है जीवन से प्यार
    मेरे जीवन स्पंदन बंद कर दो इसी समय तुम आज
    घनघोर निरशा की बेला में इसी समय तुम आओ
    हे परम पिता मुझे भी अपने साथ भी ले जाओ

    बहुत ही गंभीर और मर्मस्पर्शी कविता है।

    सादर

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  4. उन्होंने मुझसे मुख मोड़ा
    मुझे निर्धन कर डाला
    बिनउनके के जीवन केसा
    अब जीवन विष का हाला ......मर्मस्पर्शी खुबसूरत रचना....

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  5. बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  6. बहुत निराशावादी भाव हैं रचना के ..भावपूर्ण रचना

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