Friday, February 13, 2015

फेसबुकी औरते!

 फेसबुकी औरते!

उम्र की ढलान को पीछे छोड़ बन जाती हैं सोलह साला
रहती है परियों की दुनिया में जहाँ आते हैं उन्हें 
खुली आँखों से देखे जाने वाले सपने 
जिसमे होती हैं वो शहजादियों से भी कमसिन


लगाती है सजा के अपने बीते लम्हें 
और कॉलेज आइडेंटिटी कार्ड के पिक 
फेसबुक प्रोफाइल पर 
आने लगते है लाइक और  कमेंट
खो जाती हैं फेसबुकी परी- कथा में 
इस तरह खुद को जोड़ती हैं आज के समय में 

खालीपन की जमी हुयी काई 
खुरचती हैं, बनाती हैं हवा महल
झूलती रहती हैं कल्पनाओं के हिंडोले में
फेसबुकी औरतें जैसे सावन में लौटी हों बाबुल के घर
हो जाती हैं अल्हड़  और शोख


खोखले राजाओं और राजकुमारों से घिरी 
जो उसके एक हाय पर लाइन  लगा  देते है 
हजारों पसंद के चटके 
वाह, बहुत खूब, उम्दा, दिल को छू गयी!
वह मुस्कराती इतराती खेलती है,पर अचानक  
एक दिन  ऊब कर बदल देती हैं पात्र 
और फिर निकल पढ़ती हैं नई खोज में फेसबुकी औरतें

Wednesday, February 4, 2015

तुम्हारे प्यार की खुशबू में



रात भर बारिश में,
ऐसे भीगा मोगरा
जैसे भीगता है मन मेरा
तुम्हारे प्यार में
और खिल खिल सा जाता है।
मैंने उस मोगरे की
बना ली है वेणी
और टांक लिया है जूड़े में
इस तरह महकती रहती हूँ
तुम्हारे प्यार की खुशबू में।
++किरण++

Saturday, January 31, 2015

मुहब्बत का मौसम ग़ज़ल गा रहा है


आफताब है वो मेरा सहर कर रहा है
दीदार धीरे धीरे असर कर  रहा है

न दिल पास में है ना धड़कन  बची है
मुहब्बत का मौसम  ग़ज़ल गा रहा है

संवरती हूँ जब भी आईने के सामने
प्यार से उसके मेरा बदन खिल  रहा है

शबनम बन बिखरती  फिजाओं में हूँ
फ़रिश्ता हिफाजत मेरी कर रहा है

प्यार मैं भी करती हूँ उससे इस तरह
जैसे मस्जिद में कोई दुआ कर रहा है

Tuesday, January 27, 2015

मैंने सिर्फ मुहब्बत की

हवायें बदली बदली हैं ये मौसम बहका बहका है
मैंने सिर्फ मुहब्बत की तो फिर ये जादू कैसा है।
नज़्मों के बादल घिरे थे कुछ गज़लें भी बरसी थीं
मेरी कच्ची धरती से उठी भाप में चंदन महका है।
उस रात चाँद से तुमने क्या कह दिया बता देना
आजकल मुझसे जानें क्यूँ वो उखड़ा उखड़ा रहता है 

तुम्हे जब याद करती हूँ तो होंठ मुस्कानें लगते हैं
ये दुनिया वाले कहते हैं मुझे शायद कुछ हुआ सा है।

Saturday, January 24, 2015

वसंत ! क्यों रूक गये पतझड़ पड़ाव पर.

ये मेरा सौभाग्य है की डिग्री कॉलेज में पहला चयन मेरा निराला की धरती गढ़ाकोला निकट उन्नाव में हुआ. गढ़ाकोला माँ सरस्वती के वरद पुत्र महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी का पैत्रिक गाँव  है वैसे उनका जन्म वसंत पंचमी के दिन 21फरवरी 1896 को मिदनापुर पश्चिमी बंगाल में हुआ था.बंगला, हिंदी,संस्कृत,और अंग्रेजी का ज्ञान रखने वाले महाप्राण ने अपनी छाया से  हिंदी साहित्य में वसंत  के अग्रदूत बने.… किंतु  दुर्भाग्य से वो अपने जीवन को पतझड़ से अलग नहीं कर सके.

ये निराला का ही प्रताप है की आज भी वहां की धरती में कुछ ऐसी अनुभूति  है की आप की लेखनी रचियता बन भाव को शब्दों में पिरोने लगती है .वो भाव जो अब स्थाई भाव है के साथ मेरी रचना।।

वसंत देखा तुम्हे था
निराला की रचना में
कवि की कल्पना में
उस घाट  पर बाधी थी नाव जहाँ कवि ने
अब तुम क्यों नजर नहीं आते
प्रेम गीत अब क्यों नहीं गाते
क्यों रूक गये पतझड़ पड़ाव पर
सुस्ताना था वहां तुम्हे पल भर
अभी भी शाखों में फूल खिलते हैं
प्रेमी अब भी यहाँ मिलते है
व्यथा से मेरी बौराया वसंत
फिर बोला कुछ सकपकाया वसंत
रोज मिलते तो है प्रेम की सौगात लिए
फिर धुंधले हो जाते है उनकी आँखों के दिये
अब प्रेम में वो रंग नहीं मिलते
अब ख़्वाबों के कंवल नहीं खिलते
इसलिए पतझड़ की तरह आता हूँ
रस्म अदायगी   कर चला जाता हूँ
अब न रहूँगा इस ठावं बंधु
पूछे चाहे सारा गाँव बंधु