Saturday, January 31, 2015

मुहब्बत का मौसम ग़ज़ल गा रहा है


आफताब है वो मेरा सहर कर रहा है
दीदार धीरे धीरे असर कर  रहा है

न दिल पास में है ना धड़कन  बची है
मुहब्बत का मौसम  ग़ज़ल गा रहा है

संवरती हूँ जब भी आईने के सामने
प्यार से उसके मेरा बदन खिल  रहा है

शबनम बन बिखरती  फिजाओं में हूँ
फ़रिश्ता हिफाजत मेरी कर रहा है

प्यार मैं भी करती हूँ उससे इस तरह
जैसे मस्जिद में कोई दुआ कर रहा है

1 comment:

  1. शबनम बन बिखर रही हूँ हर दिन फिजाओं में
    फ़रिश्ता बन वो मेरे लिए दूआ कर रहा है
    बहुत ही उम्दा ख्याल ... प्रेम में अक्सर ऐसा होता है ...

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