सत्यम वृहदृमुग्नम दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवी धारयन्ति सा नो भूतस्य भव्यस्य पल्युमरू लोक प्रथिवी नः कृनोती ।
(पृथ्वी ने भूत काल में जीवों का पालन किया था और भविष्य काल में भी जीवों का पालन करेगी। इस प्रकार की पृथ्वी हमें निवास के लिए विशाल स्थान प्रदान करे। )
आह्वान करते ऋषियों ने कहां सोचा था कि हम जिन पीढ़ियों के निवास के लिए पृथ्वी पर विशाल स्थान मांग रहे है उन्हें इस स्थान की कद्र ही नही होगी। वो पृथ्वी को अपना अस्थाई घर ही मानेंगे। आज सारी पृथ्वी रोष में है पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। पृथ्वी, आकाश, जल,जंगल को प्रदूषित कर दिया है। पेड़- पौधे कट रहे है, वनस्पतियां खत्म हो रही है, कीट- पतंगे तितलियां गायब हो रहीं है। गौरैया मर रहीं है।
सावन में धमक नही ,फागुन में महक नही, , वसंत हताश है , भादों में बारिश की आस है।गंगा निराश है, यमुना उदास है । विकास के उद्योग से प्रकृति का विनाश है।
सयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म ईंधन पर वर्तमान समाज की निर्भरता पृथ्वी को इस तेजी से गर्म कर रही है जो पिछले दो हजार वर्षों से अभूतपूर्व है। इसके प्रभाव के कारण वर्षा की कमी यानी सूखा, जंगल की आग, बाढ़ के रूप में देख सकते है।
आईपीसीसी के आंकलन के अनुसार ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के कारण स्थितियां और भी गंभीर होने वाली है। 1850- 1900 के औसत की तुलना में पृथ्वी की वैश्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है।
जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं।कई प्रभाव अपरिहार्य हैं और दुनिया की सबसे कमजोर आबादी को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे। तो पृथ्वी की जलवायु मानव अनकूल करने के लिए क्या किया जाए ? ये जानने के पहले आइए ये जान लें कि जलवायु परिवर्तन क्या है ?
जलवायु परिवर्तन मौसमी दशाओं के बदलाव को कहते है जो दीर्घ कालीन होता है । यानी किसी विशेष स्थान के लिए आमतौर पर कम से कम 30 वर्षो के मौसम का औसत पैटर्न होता है। मुख्य रूप से, सूर्य से प्राप्त ऊर्जा के कारण ही पृथ्वी की जलवायु का निर्धारण एवं तापमान का संतुलन निर्धारित होता है। यह ऊर्जा हवाओं, समुद्र की धाराओं एवं अन्य तंत्र द्वारा विश्व भर में वितरित हो जाती है तथा अलग- अलग क्षेत्रों की जलवायु को प्रभावित करती है।
पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है और यही ऊर्जा इसकी सतह को गर्माती है। इस ऊर्जा का लगभग एक तिहाई भाग पृथ्वी को घेरने वाले गैसों के आवरण, जिसे वायुमंडल कहा जाता है, से गुजरते वक्त तितर-बितर हो जाता है। इस प्राप्त ऊर्जा का कुछ हिस्सा धरती और समुद्र की सतह से टकराकर वायुमंडल में परावर्तित हो जाता है। शेष हिस्सा, जो लगभग 70 प्रतिशत होता है, धरती को गर्माने के लिए रह जाता है। इसलिए, संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सौर ऊर्जा का कुछ भाग पृथ्वी से वापस वायुमंडल में परावर्तित हो, वरना धरती असहनीय रूप से गर्म हो जाएगी।
वायुमंडल में भी जलवाष्प और कार्बन डाइऑक्साइड सरीखी कुछ गैसें इस परावर्तित ऊर्जा के कुछ अंश को सोख लेती हैं जिससे तापमान का स्तर ‘सामान्य सीमा’ में रखा जा सके । इस ‘आवरण प्रभाव’ की अनुपस्थिति में पृथ्वी अपने सामान्य तापमान से 30 डिग्री सेल्सियस अधिक सर्द हो सकती है।
चूंकि जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसें हमारे विश्व को गर्म रखती हैं, इसलिए इन्हें ‘ग्रीनहाउस गैसें’ कहा जाता है। यहां यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण हैं कि इस प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ की अनुपस्थिति में हमारे ग्रह का औसत सतही तापमान यहां जीवन के लिए प्रतिकूल होता और इस ग्रह पर भी जीवन की संभावना नही रहती।
जलवायु परिवर्तन के वैश्विक खतरे--
◆ विश्व ने अपना कार्बन स्पेस दो तिहाई इस्तेमाल कर लिया है, जबकि पैतीस प्रतिशत जीवाश्म ईंधन के भंडार की खपत एवं वैश्विक जंगलों के एक तिहाई हिस्से को काटा गया है ।
◆ वर्ष 1750 के बाद से विकसित देशों ने ऐतिहासिक उत्सर्जन का 65 फीसदी के आस- पास उत्सर्जित किया है ।
◆कीप द क्लाइमेट, चेंज द इकोनॉमी के अनुसार पारम्परिक जीवाश्म ईंधन भंडार का उपयोग करके एवं जंगलो को एक तिहाई काटते हुए विश्व वातावरण से 2,000 Gtco2e बाहर निकाल चुका है।
◆हर साल लगभग दस बिलियन मैट्रिक टन कार्बन वायुमंडल में छोड़ा जाता है।
भारत में होने वाले खतरे---
◆वर्ष 2018 में एचएसबीसी ने दुनिया की 67 अर्थव्यवस्थाओं पर जलवायु परिवर्तन के खतरे का आंकलन किया उसमें कहा गया कि मौसम के बदलाव का भारत मे व्यापक रूप से असर पड़ेगा। ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को क्षति हो सकती है जो कई लाख करोड़ तक जा सकती है।
◆जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव कृषि पर होगा क्योंकि भारतीय कृषि मानसून पर आधारित है । जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून में अनिश्चितता उत्पन्न होगी असामान्य मानसून के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ जैसी स्थितियों का सामना करना होगा ।
◆भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार प्रति एक सेंटीग्रेट तापमान बढ़ने पर गेहूं के उत्पादन में चार से पांच मिलियन टन की कमी होती है। इसके साथ ही परागणकरी कीटों जैसे तितलियों, मधुमक्खियों की संख्या में कमी से कृषि उत्पादन नकारात्मक रूप में दिखाई देगा।
◆ जलवायु परिवर्तन पर भारत सरकार की अब तक की पहली रिपोर्ट कहती है कि सदी के अंत तक ( 2100 तक) भारत के औसत तापमान में 4. 4 डिग्री की बढ़ोतरी हो जाएगी जिसका सीधा असर लू के थपेड़ों और चक्रवर्ती तूफानों की संख्या बढ़ने के साथ समुद्र के जल स्तर के उफान के रूप में दिखाई देगा। मौसम विस्मित है और शायद रूठा हुआ भी । हवा में co2 का स्तर बढ़ रहा है तापमान में वृद्धि हो रही है, ग्लेशियर पिघल रहें है। ढेरों प्रजातियां खतरें में है। सांस को आस नही है, तो अब क्या करें ? आइए छोटी- छोटी कोशिशों से इस खतरनाक प्रक्रिया को धीमा करें और उम्मीद रखें कि मौसम एक बार फिर खुशगवार होगा।
◆कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने, हवा की गुणवत्ता में सुधार करने, तापमान को कम करने, जैव विविधता को सरंक्षित करने के लिए पेड़ लगाइए। ये साधारण लग सकता है लेकिन ये पर्यावरण के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
◆कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने के लिए और तापमान को कम रखने के लिए महासागरों को संरक्षण दें। समुद्र तटों को प्रदूषित न करें। मछली को खाद्य रूप में कम अपनाएं।
◆ ऊर्जा दक्षता में सुधार करें। फोटोवोल्टिक सौर पैनलों का उपयोग करें, एलईडी बल्बों का चयन , पुराने उपकरणों को बदलना आदि।
◆हरित ऊर्जा का उत्पादन
◆हाइब्रिड या इलेक्टिक कार,परिवहन के लिए सार्वजनिक साधनों का उपयोग,कम दूरी के लिए साइकिल जैसे वाहन का उपयोग।
◆प्लास्टिक के उत्पादन का कम उपयोग।
◆कचरे का सही ढंग से निपटान।
◆अक्षय ऊर्जा बहुत ही महत्वपूर्ण है।
◆शाकाहार अपनाएं ।
◆स्थाई आदतें विकसित करें।छोटे और स्थानीय व्यवसायों का विकल्प चुनें, शिल्प उत्पाद खरीदें और गुणवत्ता और स्थायी वस्तुओं में निवेश करें। प्रकृति की सभी शक्तियां एक सुनिश्चित विधान में चलती है। ऋत नियमों से बड़ा कुछ भी नही । आज जीवन- मरण के प्रश्न में उलझे हम भूल ही गये लोक रीति तुलसी पूजा, पीपल पूजा और वटवृक्ष की पूजा के तत्व वन संरक्षण से ही जुड़े हुए हैं। गांवों में आज भी पेड़ काटने को पाप और वृक्षारोपण को पुण्य बताया जाता है। नदियों के दीपदान का अर्थ नदी का सम्मान करना है। यज्ञ हवन के कर्मकाण्ड रूढ़ि नहीं हैं, इनमें प्रकृति की प्रीति और वातायन शुद्धि की ही आकांक्षा है। पर्यावरण संतुलन से तात्पर्य है जीवों के आसपास की समस्त जैविक एवं अजैविक परिस्थियों के बीच पूर्ण सामंजस्य। ऐसा सामंजस्य जिसमें कुछ भी अवांछनीय न हो ताकि जल वायु भूमि के प्रदूषण की समस्या न हो। हमारे भौतिक शरीर मूल रूप से पाँच तत्वों - मिट्टी, पानी, हवा, आग और आकाश - से मिल कर बने हैं पर मिट्टी इन सब में एकदम मूल और स्थिर तत्व है इस स्थिर तत्व की गुणवत्ता को बनाए रखिए ये जीव के लिए बेहद जरूरी है।
प्रकृति में रूप है, रास है, गंध है, ध्वनियां है उन्हें अवध्वस्त न होने दें।जल, जंगल, जमीन, वनस्पति, हवा सभी मे स्वच्छता हो मधुरता हो ये आह्वान जरूरी है पृथ्वी को अकक्षुण रखने के लिए जीव को बचाने के लिए।
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥8॥
मधुमान् नः वनस्पतिः, मधुमान् अस्तु सूर्यः, माध्वीः गावः भवन्तु नः ।
चिंतन मंथन से निकली बेहतरीन पोस्ट । विकास के साथ इन बातों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए । अन्यथा जब धरती रहने लायक ही नहीं रहेगी तो विकास का क्या करेंगे ।
ReplyDeleteGreat Word's
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