आज फिर पूर्णिमा का चाँद अपनी चांदनी के साथ अठखेलियाँ कर रहा है बिल्कुल उस दिन की ही तरह जब बिरजू की माँ नाँच देखने जा रही थी।
गाड़ी गांव से बाहर हो कर धान के खेतों के बगल से जा रही है चाँदनी कातिक की !.......खेतों से धान झरते फूल की गंध आती है। बाँस की झाड़ी में कही दूद्धी की लता फूली है। गाड़ी में चंपिया,सुनरी,लरेना की बीवी और जंगी बैसकोप का गीत गाती है-चंदा की चांदनी....।
मैं उस गीत की महक को महसूस कर रही हूं हर धुन,हर गंध,हर लय,हर ताल,हर सुर को शब्दों में बाँधना चाहती हूं एक सामान्य सरल मानव मन के भावों को शब्दों का आकार देने के लिए जैसे ही कलम पकडती हूं तभी एक आवाज मेरे उत्साह को क्षीण करती है व्यर्थ की कोशिश मत करो ,क्यों झूठा लेखन लोगो को परोसना चाहती हूं लेखन की बुनियाद हमेशा सच्ची होनी चाहिए फिर चाहे उसमे तुम सपनों के महल बना लो।
सच्ची बुनियाद ? मैं चकित सी उन्हें देखती हूं अरे ये तो पंचलाईट, लाला पान की बेगम,तीसरी कसम.....कहानियों के लेखक फनीश्वरनाथ रेणु हैं।
वो मेरी जिज्ञासा शांत करते है
तुम्हारे समय की लाल पान की बेगम नाच देखने न जा पाती बिरजू के बप्पा का खेल तो उसी समय ख़त्म कर दिया जाता जब बाबू साहब के खिलाफ जा कर सर्वे अधिकारी को उन्होंने असलियत बताई थी बाबू साहब की धमकी कोरी धमकी नहीं होती वो अगर सर्वे अधिकारी को ले दे कर अपने पक्ष में नहीं करते तो सही में सारे परिवार को आग के हवाले कर देते और ऐसा अगर नहीं भी होता तो बिरजू कर्ज में आत्महत्या कर लेता।
गोधन बिचारा अगर सनीमा का गाना नहीं भी गाता तब भी प्यार के जुर्म में कोई खाप पंचायत पेड़ पर लटका देती या प्रेम में गोधन मुनरी को धोका देकर बेंच आता या मुनरी के पंचायत में शिकायत करने पर तेज़ाब डाल कर सनीमा का गाना गाता। या फिर उसके साथ...जाने दो।
हिरामन अब गाड़ी में बाँस नहीं लादेगा वो लादेगा असलह जिसके लिए वो कसम नहीं खायेगा।
और अगर लादेगा चंपा का फूल तो आसिन कातिक की भोर न भी होती तब भी वो गाड़ी भटका कर हिराबाई की हँसी को हमेशा के लिए वही दफना आता ,नदी किनारे धान के खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध नहीं लेता ।
रहा घाट के लोग अब वैसे नहीं । फूल,शूल,गुलाब,कीचड़, चन्दन,सुन्दरता,कुरूपता, अच्छाई ,बुराई के साथ हमारे समय में हम साहित्य की दहलीज पर कदम रखते थे।
लेकिन आज हर तरफ बुराईयों का कीचड़ ही दिखाई देता है ऐसे मैं आज का लेखक चंपा की गंध और सावना की कहानी कैसे कहे। आतंकवाद से लेकर समाजवाद तक हर वाद में उलझे आप सब की सोच विवाद का रूप ले कर धर्म,जाति,समुदाय के रूप रंग उसकी मानवता की गंध को बदबू में परिवर्तित कर देती है।
अब तो हर लड़की को महुआ घटवारिन बन उलटी धारा में तैरना पड़ता है कभी उसे किनारा मिलाता है तो कभी नहीं इसलिए ही तो सभी कहानी बिना किनारे ख़त्म हो जाती है ये कहा कर रेणु झरती हुई चाँदनी में समा जाते है । मैं कलम रख देती हूं और सोचती हूं आने वाली पीढ़ी को मिट्टी से जोड़ू या सच से और धीरे-धीरे बुदबुदाते हुये कहती हूं
"अजी हाँ, मारे गए गुलफाम.....।
गाड़ी गांव से बाहर हो कर धान के खेतों के बगल से जा रही है चाँदनी कातिक की !.......खेतों से धान झरते फूल की गंध आती है। बाँस की झाड़ी में कही दूद्धी की लता फूली है। गाड़ी में चंपिया,सुनरी,लरेना की बीवी और जंगी बैसकोप का गीत गाती है-चंदा की चांदनी....।
मैं उस गीत की महक को महसूस कर रही हूं हर धुन,हर गंध,हर लय,हर ताल,हर सुर को शब्दों में बाँधना चाहती हूं एक सामान्य सरल मानव मन के भावों को शब्दों का आकार देने के लिए जैसे ही कलम पकडती हूं तभी एक आवाज मेरे उत्साह को क्षीण करती है व्यर्थ की कोशिश मत करो ,क्यों झूठा लेखन लोगो को परोसना चाहती हूं लेखन की बुनियाद हमेशा सच्ची होनी चाहिए फिर चाहे उसमे तुम सपनों के महल बना लो।
सच्ची बुनियाद ? मैं चकित सी उन्हें देखती हूं अरे ये तो पंचलाईट, लाला पान की बेगम,तीसरी कसम.....कहानियों के लेखक फनीश्वरनाथ रेणु हैं।
वो मेरी जिज्ञासा शांत करते है
तुम्हारे समय की लाल पान की बेगम नाच देखने न जा पाती बिरजू के बप्पा का खेल तो उसी समय ख़त्म कर दिया जाता जब बाबू साहब के खिलाफ जा कर सर्वे अधिकारी को उन्होंने असलियत बताई थी बाबू साहब की धमकी कोरी धमकी नहीं होती वो अगर सर्वे अधिकारी को ले दे कर अपने पक्ष में नहीं करते तो सही में सारे परिवार को आग के हवाले कर देते और ऐसा अगर नहीं भी होता तो बिरजू कर्ज में आत्महत्या कर लेता।
गोधन बिचारा अगर सनीमा का गाना नहीं भी गाता तब भी प्यार के जुर्म में कोई खाप पंचायत पेड़ पर लटका देती या प्रेम में गोधन मुनरी को धोका देकर बेंच आता या मुनरी के पंचायत में शिकायत करने पर तेज़ाब डाल कर सनीमा का गाना गाता। या फिर उसके साथ...जाने दो।
हिरामन अब गाड़ी में बाँस नहीं लादेगा वो लादेगा असलह जिसके लिए वो कसम नहीं खायेगा।
और अगर लादेगा चंपा का फूल तो आसिन कातिक की भोर न भी होती तब भी वो गाड़ी भटका कर हिराबाई की हँसी को हमेशा के लिए वही दफना आता ,नदी किनारे धान के खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध नहीं लेता ।
रहा घाट के लोग अब वैसे नहीं । फूल,शूल,गुलाब,कीचड़, चन्दन,सुन्दरता,कुरूपता, अच्छाई ,बुराई के साथ हमारे समय में हम साहित्य की दहलीज पर कदम रखते थे।
लेकिन आज हर तरफ बुराईयों का कीचड़ ही दिखाई देता है ऐसे मैं आज का लेखक चंपा की गंध और सावना की कहानी कैसे कहे। आतंकवाद से लेकर समाजवाद तक हर वाद में उलझे आप सब की सोच विवाद का रूप ले कर धर्म,जाति,समुदाय के रूप रंग उसकी मानवता की गंध को बदबू में परिवर्तित कर देती है।
अब तो हर लड़की को महुआ घटवारिन बन उलटी धारा में तैरना पड़ता है कभी उसे किनारा मिलाता है तो कभी नहीं इसलिए ही तो सभी कहानी बिना किनारे ख़त्म हो जाती है ये कहा कर रेणु झरती हुई चाँदनी में समा जाते है । मैं कलम रख देती हूं और सोचती हूं आने वाली पीढ़ी को मिट्टी से जोड़ू या सच से और धीरे-धीरे बुदबुदाते हुये कहती हूं
"अजी हाँ, मारे गए गुलफाम.....।
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