Friday, June 10, 2011

दर्द का उद्धार

सामाजिक  संरचना तथा सामाजिक व्यवस्था का स्वरूप इस बात पर निर्भर करता है की उसके अंतर्गत स्त्रियो की स्थिति कैसी है. स्त्रियों की स्थिति भारतीय समाज में कैसी है और कैसी होनी चाहिए ये विवाद का विषय रहा है. मै इस  विवाद में नहीं पड़ना चाहती क्योकि मेरा मानना है कि अगर आप में गुण है तो एक न एक दिन आप को उपयुक्त स्थान मिलेगा चाहे समाज हो या घर भारतीय स्त्री के साथ ऐसा ही हुआ है आज उसने अपनी स्वतंत्र  पहचान बनाई है सामाजिक निरर्थकता को पूर्णतय समझते हुए. अगर भारतीय नारी चिरपरचित समर्पित पत्नी और वत्सल्मयी माँ है तो वैराग्य में साध्वी गणिका के रूप में स्वतंत नारी अस्त्र-शस्त्र एवं शासन में प्रवीन वीरांगना , स्वतन्त्रता आन्दोलन में संघर्षरत, साहित्य में सृजनशील, कलाओ में निपुण रही है.लेकिन में इस लेख  के माध्यम से बात करुगी आज की नारी की.आज  की नारी  अधिक जागरूक. अधिक साहसी, अधिक  आत्मनिर्भर है फिर क्या कारन है की वो आज भी पीड़ित है में यह कोईआंकड़े  नहीं दुगी जो ये बताये की आज की नारी कितने प्रतिशत खुश या दुखी है. नविन  सामाजिक परिवेश में नारी अपने आप को कहा पति है ? ये विचारणीय प्रश्न है क्या आज की नारी समाज, घर, संस्क्रती, आर्थिक सम्बन्ध, पुरषों के साथ उसके सम्बन्ध, स्वयम के प्रति उसका नजरिया, शिक्षा के प्रति उसका नजरिया बदलने के वाबजूद अपने को अकेला, कमजोर, दुखी नहीं पति है ? अब जबकि समाज में नारी ने अपने आस्तित्व की नई परिभाषाए लिख दी है तो फिर वो दुखी, एकांगी क्यों ? यह पर में बता दू की सबसे ज्यादा कामकाजी महिलाये ही इसका शिकार है. इसमे कोई दो राय  नहीं हो सकती  की बहुत कुछ  बदला है पर इस बदलाव  को देखने  वालो  का नजरिया नहीं बदला .सहन , समझोता , करना,खुशियों   का परित्याग  और कल्याण  करने  जैसे कई सामाजिक दवाब स्त्री के ऊपर पड़ते है. अगर हम भावनात्मक खुशि और जिंदगीभर संतुष्ट  जीवन जीने का अवसर खो देने की बात न करे तब भी सामाजिक मानदंडो को बनाए रखने की कीमत स्त्री के जीवन पर नि: संदेह काफी ज्यादा पड़ती है. प्रतिकूल सम्बन्ध का स्पष्ट भौतिक प्रभाव स्त्री के स्वास्थ्य पर पड़ता है फिर पुरे समाज पर, जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए.जब लगातार घर में विरोधी या नकारात्मक और तनाव से भरा माहौल का सामना करना पड़े या समाज में तो स्त्री क्या करे ? एक उतर ये हो सकता है कि जीवन का फिर से निर्माण करे  जो कि  समाज  में  एक  स्त्री  के  लिए  आनेतिक  माना जाता  है    या  समझोता  कर  ले  जो  क़ि स्त्री  बहुतायत  में  करती  है  . फिर  बात  वाही  जा कर   रूक  जाती  है  क़ि  स्त्री    के  लिए  जीवन  सीधा- साधा   क्यों  नहीं  होता  ? उसे  हमेशा  जी  अच्छा , ठीक , आप  जो  कहेगे , इन शब्दों  को  लेकर  ही  क्यों  जीवन  जीना  पड़ता  है . में इस लेख के माध्यम से कोई विवाद नहीं खड़ा करना चाहती हू और ना ही तथाकथित स्त्री आन्दोलन क़ि हिमायती हूँ मैं तो अपने विचारो के साथ तमाम उन स्त्रियों क़ि मन क़ि बात रख रही हूँ जो सिर्फ अपने विचार घर, समाज में रखना चाहती है उसे मानने के लिए बाध्य नहीं करना चाहती है .लेकिन अब समय आ गया है क़ि स्त्रियों को ये तय करना ही पड़ेगा क़ि उन्हें किसी और के द्वरा बने -बनाये समाज में रहना है या अपना आशियाना खुद बनाना है. आशियाना बनाते समाये हमें किसी और के नज़रिये क़ि जरुरत नहीं है अगर हमें जरुरत महशुश हुई तो एक बार फिर हमारे हिस्से हमेशा क़ि तरहा दुःख, संत्राप, अकुलाट ही आएगी. स्त्री जाती को जीवन के अर्थ खुद खोजने होगे ये ध्यान   रख कर क़ि सारी मानव जाती के सृजन के साथ-साथ उसे संस्कारी भी बनाना है .      


         

6 comments:

  1. जिनमें योग्यता है और हिम्मत है वो महिलाएं अपना मुकाम हासिल भी कर रही है

    ReplyDelete
  2. उसे हमेशा जी अच्छा , ठीक , आप जो कहेगे , इन शब्दों को लेकर ही क्यों जीवन जीना पड़ता है very true

    ReplyDelete
  3. नारी ही समाज को सही दिशा दे सकती है ये अब उसे तय करना है कि वो किस ओर बढ रही है। सही दशा और दिशा ही उसे उच्च मुकाम पर पहुँचा सकती है। अच्छा आलेख। शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  4. समाज में जागरूकता पैदा होना आवश्यक है , सार्थक पोस्ट , आभार

    ReplyDelete
  5. striyon ko purush ka vanchniy sahyog kuchh vaisa hi hai jaise janlokpal ke liye sarkar ka sahyog.

    ReplyDelete