वृक्ष्र से विलग हुई पतियों का कोई अस्तित्व ही नहीं रहता लेकिन उस छन जब पत्तिया विलग होती है वृक्ष का भी अस्तित्व न के बराबर होता है. ऐसा ही है हमारा मन जब प्यार नहीं पता तब हम दुःख के सतत प्रवाह में बहने लगते है. धरती में बिखरी पतियों के उड़ने जैसे हमारी जिन्दगी का भी कोई अस्तित्व नहीं होता.
झरने लगा पत्ते जैसे मन
बढ़ने लगी उदासी मन की
उड़ने लगी चेहरे की रंगत
बुझने लगी मन की रंगीनी
मन पर छाई धूसर धूप सी
मन की सुधियाँ हुई अनबनी
उन से बिछड़ के रुक गई
जैसे प्रगती जीवन की
जैसे प्रगती जीवन की
साँस रुकी हम खड़े है जैसे
पतझड़ के बाद खड़े वृछ जैसे
लुटी -लुटी सी प्रकति जैसे
मन मेरा तरसा हो ऐसे
चिल चिली धूप में बिन पानी के
साँस अटकती गौरैया सी
मन ऐसे तरसा है जैसे
ठहर गई गरम दुपहरिया जैसे
आग बरसती मन में ऐसे
गरम लू चलती हो जैसे
मन के इस वीराने में
अब न हरियाली छाई
छ गई यादो की पतझड़
बीत गई रहनुमाई बसंत की
आग बरसती मन में ऐसे
ReplyDeleteगरम लू चलती हो जैसे
मन के इस वीराने में
अब न हरियाली छाई
छ गई यादो की पतझड़
बीत गई रहनुमाई बसंत की अंतिम पंक्तियाँ बहुत अच्छी, सुन्दर रचना, बधाई ....
बहुत उम्दा!!
ReplyDeleteपेड़ में अगर पत्ते ना हो तो ना फूल आते है ना ही फल . पेड़ और पत्ते एक दुसरे के पूरक है . इन्सान के जीवन में पतझड़ और बसंत आते है जाते है . सुँदर काव्य रचना . थोडा था ध्यान दिया करिए वर्तनी की त्रुटियों पर .
ReplyDeleteआग बरसती मन में ऐसे
ReplyDeleteगरम लू चलती हो जैसे
मन के इस वीराने में
अब न हरियाली छाई
वाह किरण जी वाह.बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
आप मेरे ब्लॉग पे आये अच्छा लगा और आपके विचारो पड कर मन प्रसन हो गया बस आप से येही आशा है की अप्प असे ही मेरा उत्साह बढ़ाते रहेंगे और अपने कुछ गलतियों की बात की जो आगे से मैं जरुर धयान में रखुगा
ReplyDeleteधन्यवाद्
दुःख भी पर्यावरणीय हो सकता है !अदभुत
ReplyDeleteचिल चिली धूप में बिन पानी के
ReplyDeleteसाँस अटकती गौरैया सी
मन ऐसे तरसा है जैसे
ठहर गई गरम दुपहरिया जैसे
बेहतरीन.
सादर
वाह किरण क्या बात है. यह अंदाज़ भी पसंद आया
ReplyDeleteछ गई यादो की पतझड़
ReplyDeleteबीत गई रहनुमाई बसंत की.....bhut khubsurati se apne shabdo me bhaavo piroya haI... VERY NICE...