Monday, September 28, 2015

मशीन से आदमी

आधी रात को तुम 
थके अनमने से 
लौटते हो घर को 
कहीं कोई आँखे 
राह पर तुम्हारी टिकी है 
तुम्हारे एक एक पग के साथ चलती
तुम्हारे रस्ते को बुहारती
तुम्हें निहारती,
दूर कहीं वंशी की धुन
भंग कर देती है तुम्हारी तंद्रा
और तुम निकल आते हो
अपनी रोज रोज की जद्दोजहद से
देखते हो बुहारे रास्ते को
सोचते हो निहारती आँखों को
फिर भर लेते हो
वंशी के सातो सुर
ह्र्दय में अपने
और बन जाते हो
मशीन से फिर आदमी 

Tuesday, September 22, 2015

अपूर्णता

कुछ आहटें ऐसी होती हैं, जो सुन्दरतम क्षण से हमें जोड़ती हैं | उन आहटों के कुछ लम्हें हम जी पाये | कितना मधुर था वह क्षण! ... और जो अनसुना रह गया था , वह शायद और मधुर अपूर्णता थी | लगता है, मानो हम उन्हीं मोहक लम्हों के क़रीब हैं|  |जीवन की इस आपाधापी में धड़कती साँसें बन्द हो, गुमनाम हो जातीं और हम उन्हीं साँसों की मादकता का एहसास तक नहीं कर पाते | हाँ, आज एहसास हो रहा है--- एक क़िस्म की अपूर्णता भी ज़रूरी है, ज़िन्दगी के लिए .......|

Tuesday, September 8, 2015

उसकी दुआओं का ऐसा असर है .....


जुल्म की इन्तहा कर कर के परेशान हैं वो
हमने मुस्कान फेंक दी आज तक हैरान हैं वो
गया था परदेस मेरी चूड़ियों की तलाश में
सुना है कलाइयां सजा दी है किसी और की
मंजिल तो ढूंढ ही लेंगे इतना तो हुनर रखते है
थोड़ा वक्त लगेगा ये दीवार गिरेगी न कैसे
ख्वाब मरते नही मिटते नही बस सो जाते हैं
जगा के उनकी तामीर का हुनर हम भी जानते है
जो जेहन में आया वही हमने लिखा
चलता वही है जो बाजार का चलन है
उसकी दुआओं का ऐसा असर है
गम आता नही मेरी चौखट पर
जुल्म सी सी कर लिहाफ बना डाला है
हर बार ओढ़ लेते हैं जुल्म होने पर

Saturday, September 5, 2015

सारयात अश्वान इति सारधि :



नृत करती आकाशगंगाए
और ग्रह नक्षत्र तारे
नाद करता आकाश
इनके बीच जो काला घना अंधकार है
वो तुम हो युग्म कृष्ण
तुम्ही तो हो
एक अनाहत की गूंज
तुम्हारी वो बंसी
गुरु है हमारी
अरे ओं बंसी तुम गति हो और आवृति भी
जो जोडती हो हम मानव को
एक लय और ताल में
अरे पारिजात
सारयात अश्वान इति सारधि :
हमारे जीवन संचालक
तुम ही हो हमारे प्रारंभ और अंत
अरे ओं युग्म
हमें काल के प्रवाह से निकाल
उर्ध्वगामी बनाओ

Saturday, August 29, 2015

बाबुल की यादें



पिता को समर्पित ----------

बाबा हम कहाँ समेट पाएंगे तुम्हें शब्दों में 
तुम तो अनुभूति थे खोए हुए पलो की 
दस्तक थे उस अंतर्मन की 
जब जिन्दगी रुकी रुकी थकी थकी लगती थी 
तब धीरे से रातो की उन बातो में 
बचपन के किस्से सुनाकर 
और हमें हँसा कर 
ले जाते थे आशाओं के समंदर में
हमारे होने का एहसास करते तुम 
बाबा आज तुम नहीं
तब उन तमाम किस्सों में खोज रही हूँ
उन बीते पलो को
और जी रही हूँ बचपन को
बाबा आप हमेशा विचार बन बहते रहना अंतस में
तभी तो में मौन बन ठहर पाउंगी