Saturday, September 29, 2018

शहर क्यूँ साएँ साएँ करता है

हवा में ठंडक है शायद गांव में कांस फूला है
आज धूप का मिजाज़ किसी प्रेमिका सा है जो बार-बार छत पर आती जाती है इंतजारे इश्क में । बाहर हल्का शोर है लेकिन भीतर शून्य है। ये दिल्ली शहर है जहां अक्सर इंसान शून्य  में ही रहता है मानसिक शून्यता,वैचारिक शून्यता। सड़के भरी नहीं  मैनहोल खाली है असाढ़ सूखा सूखा  निकल गया । मैं नई दिल्ली के पाश एरिया में हूं लो मोहल्ले का भी वर्ग भेद।
शहरी उदासी है मुवा   जी पी एस पड़ोसी का पता नहीं बताता इसलिए अपनों सा भाव नहीं आता। जल्द ही शायद पड़ोसियों की जानकारी जी पी एस बताने लगे या कुछ ज्यादा आफर मिले तो उनके पते के साथ हालचाल मुफ्त...... खैर

कुछ अधमरे कुछ अहंकार द्वारा मार डाले गये कुछ खुद में ही बस जिन्दा ऐसे लोगो के बीच मौत हलचल कर रौनक कर जाती है मेरी बालकनी से लगी बालकनी में जो बैठता था वो आदमी इन जिन्दा मरे हुये लोगो में जान डाल गया भाई निश्चित तू स्वर्ग में जायेगा उसकी पत्नी  और प्यारी सी तीन बेटियां पर अकेली मुर्दा बस्ती में रहेंगी मुर्दा बन...
बालकनी के पास लगा पेड़ जब तक हूं तब तक हूं के भाव के साथ खड़ा रहता है उस पर रहता अकेला कौआ कभी-कभी काँव कर के औपचारिकता कर लेता है पर कभी काँव-काँव नहीं करता रस्म निभाता हुआ अपने को विश्वास देता हुआ कि वो जिन्दा है।
कुछ दिनों से न जाने कहां से एक गिलहरी भी चली आई है अकेली रोजी ढूँढती हुई  उसे देख कौआ ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई शायद कुछ जात-पातवर्ग भेद आदि की समस्या हो या अति बुद्धिजीविता या आदि हो अकेलेपन का या...।
गिलहरी उछल रही है अभी-अभी पंगडंडियां छोड़ी है कोई बात नहीं अकेलापन एक देह लगा रोग है जल्दी गिरफ्त में होगी।
रोज की तरह अखबार  वाला अपनी साईकल पर युद्ध के मलबे हत्या ,चोरी के ब्यौरेबेजान बातों का बोझ लादे जा रहा है न जाने कब हौसलों के किस्सेसार्थक शब्दअमन की बातें लाएगा तब तक इंतजार।
कुछ नन्ने कुछ भारी ज़ख्म लिए शहरी जंगल में भटकते किरदार अचानक आवाजे करते है शोर उठता है देखती हूं हमारे पूर्वज (बंदर) चले आ रहे है शुक्र है उन्हें देख लगभग दो साल बाद सामूहिकता का बोध हुआ।
आते ही उन्होंने भाई चारा निभाना शुरू कर दिया और एक अमरुद वाले से अमरुद उठा-उठा कर आपस में बाट कर खाते हुये भाई चारा का पाठ सिखाया तभी कुछ पूर्वजों ने बच्चो को पढना शुरू कर दिया उन्होंने कुछ अमरुद और लिये अमरुद के पड़ोसी छोले भटूरे वाले ठेले पर गिराये उससे कुछ भटूरे उठाये और खाते हुये बच्चों को विनिमय सिद्धांत क्या होता है सिखाया ।
इसे कहते है खेल-खेल में सिखाना । इस बार का बेस्ट  टीचर अवार्ड किसको देना चाहिये ये बताने की जरुरत नहीं है।
कुछ बंदर डाल पकड़ कर हिला रहे है जिन्हें देख एक पिता काफ़ी वर्षो बाद खोता है गांव मेंसुनाता है अपने बेटे को पेड़ पर चढ़ डाल हिलाकर आम गिराने की कहानी जिसे सुन कर बच्चा पहली बार बच्चा बन कर देखता है सपना बंदर बनने का ।
पड़ोसी बुढ़िया  अपनी बहू को सुनाती है ऊँची डाल पर बंधे हुये झूले की  प्रेम कहानी जिसे उसने छिपा दिया था आप धापी में बहू जो शायद आज पहली बार बहू सी लगती है शर्मा कर देखती है ख्वाब झूला झूलने का ।
मोहल्ले के नन्ने युवा फिर से बच्चे बन शोर मचाते है अब बच्चे बन्दर ,बन्दर बच्चे एक हो जाते है।
डार्विन का कहा सच होता है ।
काश हम सब फिर से बंदर हो जाए।
उदासी छटी है  जिन्दा लोग सच में जिन्दा है कुछ देर ही सही शहरी सुसभ्यता का चोला उतार कर सब हल्का महसूस कर रहे है जंगली होना अच्छा है हैं न ।

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-10-2018) को "राधे ख्यालों में खोने लगी है" (चर्चा अंक-3111) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

    ReplyDelete
  2. हार्दिक आभार शारदा जी

    ReplyDelete