Wednesday, August 29, 2018

कविता का दिक्‌ काल

कुछ ठेके पर उठी कविताएं
अपने आप पर रश्क़ कर सकती है उनके मालिक कुछ ख़ास किस्म के होते है। दुनिया उन्हें सलाम करती है।
वैसे सजदा करते उनकी भी उम्र बीत रही है।

कुछ इतनी खुशकिस्मत नहीं
वो फुटपाथ पर ही जन्म लेकर वही मर जाती है हालाँकि मुझे ख़ुशी है कि वो उनकी तरह नहीं जिनकी रूह तक बजबजा रही है ।

ऐसी कविताएं अक्सर नज़र आ जाती है जो प्रेम को याद करती है बार-बार और फिर आहे भरती है हालाँकि प्रेम को फ़ना हुए एक युग बीत गया

कुछ कविताएं ऐसी जादू की टोपी पहनातीे है बस एक हाथ हिलाया और तमाम नामजद पुरस्कार उनकी जादू के झोली में।

इंसानी हांथों में बिछी दरारों की तरह कुछ कविताएं हर उस दरार में घुस झांकती है जिसमे वर्षो से थकी रूह सांस लेना भी भूलती जा रही है।

नतीजा दरारों में ही दम तोड़ती है

कुछ तो अजीब अहमक (लोग उन्हें ऐसा ही कहते है) किस्म की कविताएं है कभी -कभी अपनी धौंकनी सी सांसों से तमाम अंगारे गिराती है, और उन पर अपने फूंक का मंतर मार-मार कर दफन हुई बातों को जिन्दा करने की कोशिश करती है ,क्योंकि उन्हें लगता है कुछ बातें दफन नहीं हुई जबरदस्ती जिन्दा दफना दी गई है।

कुछ कविताओं का ये भी शौक भी है वो कब्र खोद दुर्घटनाओं को निकालती और घटना बना लोगो के बीच सनसनी फैला कर चर्चा में रहना चाहती है ।

लेकिन एक दर्द है एक कविता का (जब दर्द गहरा हो तो प्रश्न बन जाता है )वो ये कि जब सब कविता है तो वो साथ क्यों नहीं ?

वैसे ये समय क्या है ? कविता का लोकतंत्र, भेड़तंत्र, तानाशाही या तमगाशाही ?
जो भी हो कुछ कविताएं सर को उठाए न्याय मांग रही है.... मिलेगा क्या?


1 comment:

  1. बहुत सुंदर वर्णन किया है आपने

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