Friday, April 8, 2011

बसंत में पतझड़

आँखों के कोरो से कुछ गीला- गीला गिरता है.
दिल से भी कुछ रुकता-रुकता झरता है .
कसक सी होती है दिल में , 
बसंत में पतझड़ सा लगता है .
आँखों के कोरो से कुछ गीला- गीला गिरता है .
हर बार कहा हर बार रहा ,
उनसे मेरा जो नाता है 
ना माना मीत मेरा वो सब ,
उसे बंधन भी जकड़न लगता है .
आँखों की कोरो से कुछ गीला- गीला गिरता है .
ना जाने वो प्यार की भाषा ,
ना जाने मन की अभिलाषा ,
कसक सी होती है दिल में ,
शहर अन्जाना लगता है .
आँखों के कोरो से कुछ गीला-गीला गिरता है .
ना समझ सकी ना समझा सकी उनको ,
ये प्यार बेगाना लगता है .
आँखों की कोरो से कुछ गीला-गीला गिरता है .       
      

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