Wednesday, June 10, 2015

तुम



रोम रोम मुस्कुराया है मेरा
कहीं तुम भी मुस्कराये हो 

होने न होने के परे तुम
विश्वास बन
जीने की इच्छा जगाते हो 

चाहती हूँ
बन कर भोर की किरण
तुम्हारी अलसाई आंखों की चमक बन जाऊं
या भोर का शीतल झोका बन
सहलाकर तुम्हारे गालों को
स्वागत करूं जिन्दगी का 

सूरज से तपते तुम्हारे कंठ में
जल बन उतर जाऊं
रात तुम्हारे सिरहाने
बचपन की कोई मीठी याद बन
तुम्हें गुदगुदाऊं 

या फिर तुम्हारे खेतों की
भीगी मिट्टी की सौंधी खुशबू बन
तुम्हारी सांसो में मिल जाऊं

3 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, नहीं रहे रॉक गार्डन के जनक - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. अच्‍छी लगी कवि‍ता

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