आज आफिस में मैं बहुत ही अच्छे मूड में हूँ अपनी फाईल निपटा के नागर जी दवरा लिखित चैतन्य महाप्रभु किताब के आखरी चार पन्ने समाप्त करती हूँ मन खुश है कोई भी ऐसे महापुरुष के बारे में पढ कर मेरा मन हमेशा ही प्रफुल्लीत हो जाता है होटो से अपनी लिखी हुई एक पुरानी कविता फूट पड़ी तब तक मन हुआ चाय पी जाये घंटी पे हाथ जाता ही है की चपरासी के दर्शन होते है मैम जी बाटनी मैम आप से मिलना चाहती है आरे मैं आश्चर्य चकित होती हूँ उन्हें परमिशन की क्या आवश्यकता आने दो ,जी वो कहा कर चला जाता है .
अरे सुगंधा जी क्या बात है सब ठीक तो है मेरे आफिस में आप टीचर तो कभी भी आ सकते है फिर ये औपचारिकता क्यों ?
सुगंधा जी - मैम आज बात सिर्फ पढाई की नहीं है
अरे सुगंधा जी क्या बात है सब ठीक तो है मेरे आफिस में आप टीचर तो कभी भी आ सकते है फिर ये औपचारिकता क्यों ?
सुगंधा जी - मैम आज बात सिर्फ पढाई की नहीं है
मैं - तो जो है वो कहो , और सुगंदा जी शुरू हो जाती है मैम - मैं इस महीने लेट आई कई वार उसका उस दिन वो कारन था उस दिन जो नहीं आ पाई सही टाइम से उसका ......... वो मुझे कारण गिनाती है और लगातार तीस मिनिट तक वो अपनी सारी समस्या मुझे सुना कर प्रसन्न दिखाई देती है . सुगंधा जी कहती है मैम मै बहुत बेचैन थी आप ने मेरी समस्या सुन ली अब मेरी बेचैनी दूर हो गई . बेचैनी भी बड़ी आजीब होती है जब होती है तो उसके आगे हमें कुछ नहीं दिखाई पड़ता ऐसा लगता है की ये इक रस्ते की और इशारा कर रही होती है . हमारे जेहन मे जब रास्ता साफ होता है , तो बेचैनी नहीं होती. वहा तो होती ही तब है , जब कुछ धुंधला होता है . सो वहा रस्ते की धुंधलाहट ही बेचैनी है . और यह सचमुच सकारात्मक हो सकती है और वहा सकारात्मक तब होती है जब हम उस बेचैनी के सुर को पहचानते है . और कुछ करने को तैयार हो जाते है . हम अपनी इच्छा को कर्म मे बदलने की ठानते है तो बेचैनी कम हो जाती है . जब- जब हमें कुछ अधूरापन होता है तो बेचैनी होती है उसे भरने के लिए हमें कुछ करना होता है यही शायद बेचैनी का सुर है . आखिर उस बेचैनी के बिना हम अपना अधूरापन कैसे दूर कर सकते है . बेचैनी के वारे मे इतना सब सोचते-सोचते पता ही नहीं चला कब घर जाने का टाइम हो गया . चपरासी अन्दर आता है मैम चाये लाऊ ये मुझे टाइम की याद दिलाने की उसका तरीका है मैं जानती हूँ वो बेचैन है पान मसाला खाने के लिए जो मेरे जाने
के बाद ही हो सकता है मैं उसकी बेचैनी समझते हुए अपनी सीट छोड़ देती हूँ . घर का ख्याल आते ही मैं बेचैन हो जाती हूँ अरे मुझे तो अभी बहुत सा काम .................
सही फ़रमाया आपने , बैचेनी का कोई इलाज नहीं हैं सार्थक लेखन आभार ......
ReplyDelete...मैं जानती हूँ वो बेचैन है पान मसाला खाने के लिए जो मेरे जाने
ReplyDeleteके बाद ही हो सकता है मैं उसकी बेचैनी समझते हुए अपनी सीट छोड़ देती हूँ ... dant nahi lagayee...
chaliye office ka vratant badiya laga...laga jaisa ham bhi aapke hi aas-pass hai..
haardik shubhkamnayen..
बैचेनी भी जरुरी है ...
ReplyDeleteGyan Darpan
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बेचैनी को बखूबी उकेरा है।
ReplyDeletebahut hee sundar
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