Sunday, March 12, 2023

पानी का पहरुह -- अनुपम मिश्र

जीवन मुट्ठी की रेत की तरह फिसलता है। पल- पल निकलते लम्हें ज़िन्दगीं की तलाश करते है।समय की चाल बेअसर हो आगे सरकती रहती है।शैने- शैने जीवन यूँ ही निकल जाता है, निष्प्रयोजन।

हमारी कामनाओं का आकाश तो हमेशा खुला रहता है लेकिन कर्मों और विचारों की पगडंडिया बंद रहती है।टूटे मन और खंडित व्यक्तित्व की इस भीड़ में लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है जो न सिर्फ अपने बारे में बल्कि पूरे समाज के बारे में जीवन के बारे में भी सोचते है और ऐसे जीते है जो पानी पर भी अपनी कहानी लिख जाते है।

जी हां मैं बात कर रही हूँ, भारतीय गाँधीवादी, लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद, Ted व्यक्ता व जल संरक्षणवादी अनुपम मिश्र की।


"भाषा लोगों को तो आपस मे जोड़ती ही है, यह किसी व्यक्ति को उसके परिवेश से भी जोड़ती है। अपनी भाषा से लबालब भरे समाज मे पानी की कमी नहीं हो सकती और न ही ऐसा समाज पर्यावरण को लेकर निष्ठुर हो सकता है। इसलिए पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करने वाले लोगों को अपनी भाषाओं के प्रति संजीदा होना पड़ेगा। अपनी भाषाओं को बचाए रखने, मान- सम्मान बख़्शने के लिए आगे आना होगा। यदि भाषाएं बची रहेंगी तो हम अपने परिवेश से जुड़े रहेंगे और पर्यावरण के संरक्षण का काम अपने आप आगे बढ़ेगा।" -- अनुपम मिश्र


पर्यावरण के प्रश्न को पारंपरिक दृष्टि से निकाल कर उसमें एक नये विचार का समावेश करना और उसे भाषा से जोड़ने की अनुपम दृष्टि "अनुपम मिश्र" जैसे पर्यावरणविद की ही हो सकती है। तकनीकी साँचो से सुलझा कर स्वभाषा के साथ जोड़ने की कवायद कोई पर्यावरणविद कैसे कर सकता है जब तक उसमें साहित्य की लोकभाषा की समझ न हो।

इस बात पर कितना आश्चर्य होता है न कि लोकभाषा हमारे बीच से कितनी तेजी से विस्मृत हो रही है। शायद आज के समय ही ऐसा है जो हर चीज को विस्मृत करता चला जा रहा है , तब भाषा को बचा कर पानी को बचाने की बात एक पर्यावरणविद ही कर सकता है या कोई छिपा साहित्यकार।

यह जानने के लिए की आख़िर अनुपम मिश्र ने क्यों, कैसे भाषा को पानी से जोड़ा हमें उनके बारे में जानना होगा।

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्रा और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के यहाँ सन 1948 में हुआ था। हिन्दी के कवि के यहाँ जन्म लेना ही उन्हें भाषा के पास ले लाया। एक लेख में अनुपम मिश्र ने बताया कि उनके पिता घर पर कभी भी अंग्रेजी का प्रयोग नही करते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्होंने कभी लोक भाषा एवं हिन्दी भाषा का साथ नही छोड़ा।

सन १९६८ में संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से लेने के बाद अनुपम मिश्र दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़ गए। संस्थान के मंत्री राधाकृष्ण के कहने पर एक चिट्ठी लेकर बीकानेर सिद्धराज ढ़डढ़ा जी के पास गए। वहाँ जाकर अनुपम जी ने पहली बार बरसात के पानी को जमा किया हुआ देखा, जो उनके लिए बहुत ही आश्चर्य का विषय था। पहला तो यह कि बरसात का पानी इकठ्ठा करने की जरूरत को देखकर यानि कि पानी की इतनी असुविधा और दूसरा की पानी जमा करने का तरीक़ा जो बहुत ही प्राचीन था। उन्होंने एक कुंड ( टांका)में जो घर के आंगन में स्थित था और जिसमें बरसात का पानी लगभग एक साल के लिए इकठ्टा किया गया था, उसे देखा तो जाना कि पानी की किल्लत और उसे सहेजना क्यों जरूरी है। 

मरुभूमि में पानी का संग्रह उन्होंने क्या देखा उनका जो आंतरिक रूपांतर हुआ उससे उनकी ज़िन्दगीं ही बदल गई। इसी घटना के बाद अनुपम मिश्र पानी और पानी अनुपम मिश्र दोनों ही एक दूसरे के पर्याय बन गये।

अनुपम मिश्र इस घटना के बाद ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत हो गये और उन्होंने इस और कार्य की भी शुरुआत कर दी जो उनकी मृत्यु तक चलती रही।

यह वह समय था जब देश मे पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नही खुला था। सरकार और जनता का शायद ही इस विषय पर ध्यान जाता हो।लेकिन अनुपम मिश्र पर्यावरण- संरक्षण के मुद्दे पर बहुत ही गंभीर थे, और निरन्तर जनचेतना और सरकार को जागरूक करने में लगे हुए थे।

अनुपम मिश्र लगातार बिना सरकारी मदद के पर्यावरण पर पूरी तल्लीनता से कार्य कर थे। जैसे सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम , सूख चुकी अखुरी नदी का पुनर्जीवन। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजिस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवन, बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का कार्य भी किया है। तरुण भारत संघ के अध्यक्ष रह कर उनके पानी के लिए किये गए कार्य भी अद्वितीय है।उनके काम को देखें तो उन्होंने पर्यावरण पर क़ाबिले तारीफ़ काम किया है।

अद्भुत, अतुलनीय, अनोखा, अप्रतिम, बेमिसाल, अनुठा, अपूर्व, बेजोड़ उनके नाम के समानार्थी उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। सोये, ऊबे, उदासीन समाज मे लुप्त होते पानी के प्रति चेतना जागृत करने का काम कोई अनुपम ह्रदय वाला ही कर सकता है। उनकी हर कोशिश सिर्फ पर्यावरण के लिए ही थी। वह पानी के लिए ही अपनी कोशिश के जरिए पहचाने गये। उनकी सबसे बड़ी बात यह रही कि उन्होंने ऐसे लोग तैयार किये जो बिना किसी शौर शराबे के अपने - अपने अंचलों में, समुदाय के बीच उनकी आवाज बन कर पानी की पहचान बन कर काम मे लगे है।

वह खुद पर्यावरण के किसी एक कार्य तक सीमित नही रहे। उन्होंने न सिर्फ पानी के संरक्षण का कार्य किया बल्कि बाढ़ जैसी भयावह समस्या का हल बताया। उनका पर्यावरण को देखने व समाधान का तरीक़ा बिल्कुल ही अलहदा था। उन्होंने जल संकट का समाधान ऐसे रूप में प्रस्तुत किया कि जल संकट समाधान विश्वसनीय व कम लागत वाला लगा।

अनुपम मिश्र हर बार कहते थे कि पर्यावरण की समस्याओं का समाधान उसका हल हमारे पास सदियों से हमारे लोक में है। बस हमें इतना भर करना है कि हम उन बिसार दिये को पुनः याद करें और उन्हें थोड़ा सा झाड़- पोछ कर अपना लें। उनका कहना था कि मुश्किल यह है कि लोक के यह तरीक़े हमारी कुंजी थे , हम ने उस कुंजी को दूर फेंक दिया है अब पर्यावरण का सुधार हो तो कैसे ?

अनुपम मिश्र ने उस कुंजी को न सिर्फ खोजा बल्कि उससे पर्यावरण को खोला भी। उन्होंने ऐसे सभी लोक कार्य जो जल को संरक्षित करते है, उस पर कार्य किया। उनका कहना था कि जीवन पांच महाभूत से बना है अगर उस पर संकट आएगा तो सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक संकट भी उठ खड़े होंगे।इसलिए जरूरी है कि हम पांच महाभूतों की बेहतरी के लिए कार्य करें।

मध्यकालीन भारत मे जल व्यवस्था का विश्वकोश जो अनुपम मिश्रा ने तैयार किया था। जिसमें जल संग्रह के भूले- बिसरे तरीक़ों को ही नही पुनर्जीवित किया बल्कि अप्रचलित हो चुके शब्दों को भी पुनर्जीवित किया। अपनी अनुसंधान प्रक्रिया में उन्होंने प्राचीन भारत की जाति  व्यवस्था उसके आर्थिक आधार के ढांचे का भी प्रामाणिक आधार खड़ा किया।

किसी भी कार्यक्षेत्र में कार्य करना बहुत ही महत्वपूर्ण है लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उस कार्य को ही जीवन मे उतार लेना लेकिन शायद उससे भी बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है दूसरों को अपने कार्य से इस कदर बदल देना की वह एक परम्परा बन जाए।

बस यही अनुपम मिश्र ने पर्यावरण पर किया, जो उन्हें दूसरे से जुदा करता था। उन्होंने भाषा और साहित्य के साथ पर्यावरण को तो जोड़ा ही उन्होंने खुद को प्राचीन लुप्त पर्यावरण परम्परा से खुद को जोड़ा कर इतिहास रच दिया।



एक बानगी देखिए -- "आज भी खरे है तालाब" 

तालाब निर्माण करने वाली अनेकानेक जातियों में से एक है – गजधर. गजधर वास्तुकार थे. गांव-समाज हो या नगर-समाज, उनके नवनिर्माण की, रख-रखाव की जिम्मेदारी गजधर निभाते थे. नगर नियोजन से लेकर छोटे से छोटे निर्माण के काम गजधर के कंधों पर टिके थे. वे योजना बनाते थे, कुल काम की लागत निकालते थे, काम में लगने वाली सारी सामग्री जुटाते थे और इस सबके बदले वे अपने जजमान से ऐसा कुछ नहीं मांग बैठते थे जो वे दे न पाएं. लोग भी ऐसे थे कि उनसे जो कुछ बनता, वे गजधर को भेंट कर देते. काम पूरा होने पर पारिश्रमिक के अलावा गजधर को सम्मान भी मिलता था. सरोपा भेंट करना अब शायद सिर्फ सिख परंपरा में ही बचा है पर अभी कुछ ही पहले तक राजस्थान में गजधर को गृहस्थ की ओर से बड़े आदर के साथ सरोपा भेंट किया जाता रहा है. पगड़ी बांधने के अलावा चांदी और कभी सोने के बटन भी भेंट दिए जाते थे. जमीन भी उनके नाम की जाती थी. पगड़ी पहनाए जाने के बाद गजधर अपने साथ काम करने वाली टोली के कुछ और लोगों का नाम बताते थे, उन्हें भी पारिश्रमिक के अलावा यथाशक्ति कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी. (पृ. १८, आ.ख.ता.) 

"आज भी खरे है तालाब" हमारी लुप्त होती जल सम्पदा को दर्शाती पुस्तक है। जो कहीं न कहीं हमें इस भाव से भारती है कि हमारी लोक संस्कृति बेहद समृद्ध थी। इस पुस्तक में जलाशयों का ज्ञान ही नही बल्कि जिन्हें जलाशयों ज्ञान था उनकी लोक संस्कृति, अंधविश्वास, लोक मान्यताएं, लोक साधनाएं, मेले- ठेले ( जो अधिकाशतः मंदिर, तालाब, नदी आदि के पास लगते थे ) लोक विश्वास, जातियां, मिथक, खानपान, प्रेम, विवाह, न्याय, अन्याय इसमें संदर्भित है।

असल मे भारत मे लोक- मान्यताएं ही ऐसी है जिसमें कोई भी कार्य चाहें वह तालाब बनाने का हो या कुआँ खोदने का उसमें हमारे आपसी संबंध, खानपान, उत्सव, शामिल हो जाते है। इसे हम आज भी छत ढलते समय देख सकते है।

अनुपम मिश्र ने पर्यावरण को साहित्य में भी समेटा है जिसमें पुस्तक हैं--

◆राजिस्थान की रजत बूँदे

◆साफ माथे का समाज

◆ आज भी खरे है तालाब


"आज भी खरे है तालाब ब्रेन लिपि सहित तेरह भाषा मे प्रकाशित हुई है। इसकी एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं।


पुरुस्कार और सम्मान --

अनुपम मिश्र को २००९ में टेड ( टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित किया था।)

"आज भी खरे हैं तालाब" के लिए उन्हें २००११ में देश के प्रतिष्ठित 'जमनालाल बजाज पुरस्कार' से समानित किया गया था।

१९९६ में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार 'इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। उन्हें 'कृष्ण बलदेव वैद' पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।


प्रकृति सदा से है। सदा रहेगी। लेकिन संस्कृति मनुष्य का सृजन है। मनुष्य और अस्तित्व की प्रीति रीति और चित्त का संस्कार भी। अनुपम मिश्र को यह चित्त के संस्कार अपने पिता भवानी प्रसाद मिश्र से मिले थे। तभी उन्होंने संस्कृति के सतत सृजन कर्म और उसके सबसे बड़े फल भाषा को अपने कार्य का आधार बनाया। असल मे भाषा अद्भुत लब्धि है। लोक भाषा हमें गढ़ती है। बेशक हमनें ही भाषा गढ़ी लेकिन उस भाषा ने जिन मनुष्यों को गढ़ा उन्होंने भाषा को सामाजिक संपदा बना दिया। इसके सबसे बड़े उदाहरण अनुपम मिश्र थे। उन्होंने लोक भाषा के लोक व्यवहार से ही जाना कि एकाकी की कोई संस्कृति नहीं होती। इकाई होना दुख और अनंत होना आनंद है। इसलिए उन्होंने पर्यावरण के प्रश्न पर लोगों को जोड़ा साथ ही जोड़ा अपने साथ परंपरागत भाषा व्यवहार। जिससे उन्हें परंपरागत जल सहजने के तरीक़े, बाढ़ से निपटने के तरीक़े आदि पता चले।

उन्होंने लोक भाषा के माध्यम से लोक व्यवहार को और फिर पर्यावरण को समझा।असल मे वेद की ऋचाएं ही मानव और प्रकृति की प्रथम ध्वनियाँ थी। जो धीरे- धीरे लोक में बसी, और इसी लोक को पकड़ कर अनुपम मिश्र ने हमें हमारी भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व पर्यावरण से मिलवाया।

अनुपम मिश्रके लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि हम इस मिलन को स्थाई बना लें और पर्यावरण की इस धुन को सुनते रहे। जो कह रही है कि --

जलम् एव जीवनम् और लोक ही भारतीय अनुभूति का परम तत्व।






 

     

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