Friday, October 23, 2015

बीते पल राहगुजर

अक्टूबर का माह मुझे कोमल सा लगता है.इस माह में ठंड धीरे- धीरे दस्तक देती है .किसी का हौले-हौले यू आना कितना सुकून देता है . संधि के बाद का मिलन हमेशा सुखद होता है वो फिर ऋतू- संधि ही क्यों न हो .ये महिना मुझे ऐसा लगता है मनो अलाप ले रहा हो धूप का, बदली हुई हवा का उत्सव का और दस्तक देता है वर्ष के जाने का मनो अपने विगत होने का जश्न मना रहा हो .....वैसे ही जैसे कितने ही लम्हें विगत होते है .वक्त की ठहरी परछाइयां को हटाकर आओ आशाओं की रहा पर निकल जाए ऐसा ही कुछ कहता है ये माह, पर हैं इतना याद रखना बीते बरस की सुखद स्मृतियों को तह कर के रखना है...... क्यों ?
अरे ये बीते पल ही तो राहगुजर है आने वाले पल के........

Tuesday, October 20, 2015

प्रेम की लाश पर पलाश



पता नहीं दूर जंगल में
कब्र दो प्रेमियों की है
या प्रेम की
कोलाहल से दूर
बस कब्र है और प्रेम है 
कभी कभी जंगल से निकलता हुआ
पथिक कोई सुस्ताने के लिए
करता है कब्र पर विश्राम
तब कब्र की रूह को मिलता है सुकून
जब ग्रहण हटता है
और निकलता है चाँद
सितारे उतर आते है कब्र पर
तब कब्र से निकल
दो शारीर की रूह
जो अब एक है
आलिंगनबद्ध होकर
चाँद को देखती है
सितारों से बातें करती है
चम्पा की डालियों को चूमती है
और तभी होती है आकाशवाणी
बस और नहीं
तुम्हे फिर से लेना होगा जन्म
तब रूह हस कर
किसी शाख पर
ले लेती है फांसी
खो जाती है ब्लैक होल में
सुना है कब्र के ऊपर
जो पेड़ है वो पलाश है
स्वेच्छा से उगता है पलाश
प्रेम , प्रेम भी स्वेच्छा से ही किया जाता है
और जीया, जीया भी स्वेच्छा से ही जाता है
अब दो प्रेमी कब्र के ऊपर पलाश बन जी रहे है

Friday, October 16, 2015

आवारगी पर उतरती आशिकी


आज तुम्हारा ये कहना कि
याद आ रही थी तुम्हें मेरी
मुझे न जाने कितने अर्थ थमा
ओझल हो गया
और जा पंहुचा 
उन विराने में
जहाँ पहली बार
मन के भीतर खुला था दरवाजा
और देखा था हमने
एक दूसरे की संभावनाओं को
कैसा तो हमारे बीच बह रह था मानस रस
जैसे कभी बह होगा
उन प्रेमियों के बीच
जिन्होंने सहरा में छानी थी खाक प्रेम के लिए
हमारा होना न होना होकर रह गया था
में आज भी तुम्हारी उन सांसो को सहेज रही हूँ
जो मेरे हिस्से आई थी
आज आशिकी आवारगी पर उतर आई है
आज भीतर से बाहर की भटकन है
आज हिंडोला 
 होता मन है

Wednesday, October 7, 2015

जनता का तंत्र है क्या .....


लोकतंत्र में व्यवस्थापिका को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है इस रूप में इसका उत्तरदायित्त्व भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण  है . भारत में व्यवस्थापिका अपने वास्तविक उतरदायित्व की कोई छाप नही छोड़ पाया. व्यवस्थापिका की सर्वोच्च शक्ति के सन्दर्भ में उसके कर्तव्यों का आभाव है. यह अपनी गरिमा के अनुरूप भारतीय समाज में मूल्य एवं आदर्श स्थापित नहीं कर सका है .यह राजनीति , सत्ता,अधिकार एवं व्यक्तिगत सुख -समृद्धि के इर्द -गिर्द सिमट कर रहा गया है.परिणामस्वरूप भारतीय समाज में असंतोष,अराजकता, भ्रष्टाचार जैसी नकारात्मक प्रवृतिया आम हो चली है. आवश्यकता इस बात कि है कि विभिन्न उपायों एवं सुधारों के द्वारा व्यवस्थापिका के व्यापक एवं प्रभावी उत्तरदायित्व को सुनिश्चित किया जाये.वस्तुत: यहा वास्तविक लोकतंत्र को स्थापित कर सकता है .

Tuesday, October 6, 2015

चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा ......


अजीब सा होता है मन हमेशा जो जी रहा होता है उसके विपरीत चाहता है. जब नौकरी कर रही थी तो फुरसत के पलो को चुराती थी आज जब अवैतनिक अवकाश पर हूँ ,और फुरसत है तो मन काम करना चाहता है.इसी उधेड़ बुन में हूँ कि ख्याल आता है आज अकेले दिल्ली देखू ,ख्याल अच्छा है पर किसकी नजर से देखू दिल्ली को.
इतिहास की नजर से देखू तो दिल्ली कहेगी इसमे नया क्या है बहुतो ने देखा है. अपनी नजर से देखूँगी तो दिल्ली के साथ अनन्य करुँगी। इसलिए आज दिल्ली को उसकी ही नजर से देखती हूँ। देखू दिल्ली अपने बारे में क्या कहना चाहती है।
कभी किसी जगह या इंसान के आंतरिक स्वरूप के साथ देखना हो तो मूक नहीं मौन होकर देखो कहते है उसको संपूर्ण रूप से उसके पूरे वजूद के साथ समझ जाओगे। बस में भी यही करने निकल पड़ती हूँ। घूमते- घामते पहुचती हूँ स्टेशन, स्टेशन के बाहर की तरफ एक बैंच पर बैठ कर आते जाते लोगो को देखती रहती हूँ। मौन तो नहीं हो पाती मूक जरूर हूँ।
दिमाग में सनातन प्रश्न चल रहा है एक दिन सबको जाना है फिर क्यों इंसान इतना हैरान परेशान है. फिर उन विचारो को झटका देकर भगाने की कोशिश करती हूँ कि तभी भागो-भागो की आवाज आने लगती है देखती हूँ कुछ बेहद ही गरीब लोग पर, भिखारी नहीं इधर से उधर होने लगते है मैं भी बैंच छोड़ कर स्टेशन की दुसरी तरफ चली आती हूँ,जहा कुछ कम गहमा-गहमी है तभी मेरी नजर एक औरत पर पड़ती है, अरे इसे भी तो मेने भागते देखा था मैं उसके पास जाती हूँ इतने कष्ट में भी उसके चहरे पर मुस्कान है मेरा चेहरा तुरंत उसका प्रतियुत्तर देता है.
मैं पूछती हूँ वो तुम सब लोगो को भगा क्यों रहे थे मुस्कुरा कर वो कहती है नई हो अखबार से आई हो क्या करोगी मैम साहब हर साल तो वो अखबार वाले हमारी कहानी छापते है पर क्या होता है मैं कहती हूँ मैं अखबार वाली नहीं, कहानी लिखुंगी पर छापूगी नहीं दिल्ली देखने आई हूँ वो पहले तो मेरी बात सुनकर अपनी बड़ी -बड़ी आँखे जो गरीबी से अंदर धस गई फैला लेती है फिर जोर से हस पड़ती है में उसे मन ही मन नमन करती हूँ इतनी गरीबी और लाचारी में उसकी हसी कायम है और एक हम तथाकथित ऐशो आराम की जिंदगी बसर करने वाले को इनसे सबक लेना चाहिए खैर वो कहती है अरे मैम साहब दिल्ली देखना है तो आप क़ुतुबमीनार दखो वो बड़ा दरवाजा देखो यहाँ क्या रखा है
मैं उसकी बात अनसुनी करके उसे खोदती हूँ तुम्हारा घर कहा है वो चहरे पर फीकी मुस्कान लाती है और कहती है अभी थोड़ी देर पहले था अब नहीं अरे क्यों मेने कहा ऐसा ही होता है हर वार ,हम जुग्गी वाले है न मैम साहब क्या करू मेरी किस्मत ही ख़राब है और उसने जो कहानी बताई वो कुछ ऐसी थी माँ बाप थोड़ा बड़े होने पर मर गए चाचा दिल्ली स्टेशन पर एक दिन छोड़ कर जो गए तो आज तक नहीं लोैटे फिर एक दिन कोई एन. जी. ओ वाले ले गए वही रही मेरा मरद वही सफाई का काम करता था उससे मैंने शादी कर ली सोचा था अब सुख से रहूगी रही भी दोनों काम करते और रात को अपनी टूटी-फूटी जुग्गी में सो जाते थे। दो साल में आठ से दस बार भगाया गया है हमें। अब तो समझ नहीं आता मैम साहब क्या करे. हमारे इसी कारन वोट नहीं बन पाते इसलिए कोई हम पर ध्यान नहीं देता। मैंने उसका नाम पूछा उसने अपना नाम तारा बताया और आगे बड़ गई और मैं सोचने लगी संविधान तो सभी नागरिको को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की बात करता है। सरकार जो योजनाए बनती भी है इन बेघर लोगो के लिए उनसे ये बेखबर रहते है। कोई समाधान नहीं।
मैं उठ कर चल दी कही दूर रेडियो पर एक ग़ज़ल की आवाज आ रही थी ....चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला ……… मैं अब मौन हूँ मैंने शायद दिल्ली देख ली है