किरण कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा न होकर उन तमाम व्यक्तियों के रोजमर्रा की जद्दोजहद का एक समुच्चय है जिनमे हर समय जीवन सरिता अपनी पूरी ताकत के साथ बहती है। किरण की दुनिया में उन सभी पहलुओं को समेट कर पाठको के समक्ष रखने का प्रयास किया गया है जिससे उनका रोज का सरोकार है। क्योंकि 'किरण' भी उनमे से एक है।
Friday, April 23, 2021
कोरोना महामारी चुनोतियाँ और भारतीय समाज
कोई भी खतरा विनाश में परिवर्तित हो इससे पहले मनुष्य इसे रोक सकता है ,कारण सभी आपदा मनुष्य द्वारा उत्पन्न होती है। मानवीय असफलता का परिणाम ये आपदाएं अनुचित आपदा प्रबंधन के कारण न सिर्फ अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाती है बल्कि समाज मे असन्तुलन व अफरा- तफरी की असामान्य स्थिति को भी जन्म देती है।
आपदा मानव निर्मित वो जोखिम है जो समाज को नकारात्मक रूप से न सिर्फ मानसिक, शारीरिक बल्कि आर्थिक रूप से ज्यादा प्रभावित करती है, जैसा कि अभी कोविड- 19 में हमने देखा और अब 21 में भी देख रहे है।
इस बीमारी ने पूरी दुनिया की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोलेकर रख दी है। जाहिर है स्वास्थ्य को लेकर ढुलमुल रवैया अपनाने वाले देश भारत की भी स्थिति विश्व स्वास्थ्य स्थिति से अलग नही।
शीर्ष वित्तीय संस्थान अभी भी कोरोना वायरस महामारी के वास्तविक नतीजे का आकलन कर रहे है । नजरिया अत्यधिक अनिश्चित है, संभावनाएं इस पर निर्भर करती हैं कि स्वास्थ्य संकट की अवधि और महामारी के आर्थिक प्रभावों को कम करने वाली नीतियों की प्रभावशीलता कितनी होगी।
कोविड महामारी एक गहरी वैश्विक घटना है। यह बंद सीमाओं पर नहीं रुकता है और यह बताता है कि हम कितने असहाय हैं। महामारी से निपटने में एक दूसरे देश का सयोग बेहद महत्वपूर्ण है। यह चिकित्सा और प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में निश्चित रूप से सच है, वायरस की बेहतर समझ तक पहुंचने के लिए, चिकित्सा उपचार में सुधार, और वैक्सीन होना कितना जरूरी है।
वैश्विक संकट के रूप में, कोविड-19 महामारी ने संभावनाओं के क्षितिज खोले हैं और यह एक अलग तरीके से दुनिया को फिर से आकार देने का अवसर हो सकता है।
कई सामाजिक वैज्ञानिकों ने दुनिया के लिए मनुष्य के प्रति अधिक संवेदनशील, देखभाल, और सामाजिक असमानताओं और मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ की आवश्यकता पर जोर दिया।
हालाँकि, ये संकट अन्य सामाजिक मॉडल के लिए भी मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अब तक, संकट के प्रबंधन में नई प्रतिस्पर्धाओं में वृद्धि हुई है।
व्यापक आर्थिक मदद पैकेजों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के बजाय राष्ट्रीय निगमों को बचाने पर ध्यान केंद्रित किया है।
महामारी एक नए सत्तावादी युग का मार्ग भी प्रशस्त कर सकती है, जिसमें नई प्रौद्योगिकियों के साथ बायोपॉलिटिक्स की भूमिका होगी।
इस बीमारी के बाद कुछ सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं मसलन स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़ा सुधार और वैश्वीकरण का तेज़ होना, क्यूंकि एक बात तो तय है कि जब दुनिया इस बीमारी से उबरेगी तो वैसी नहीं रह जायेगी , जैसी अभी है।
कोरोनोवायरस ने विज्ञान को सार्वजनिक स्थान के केंद्र में वापस ला दिया है, यहां तक कि उन देशों में भी जहां अंधविश्वास की जगह गहरी थी। सामाजिक वैज्ञानिक ऐसे तथ्यों के साथ आए हैं जो उतने ही कठिन और निर्विवाद हैं जबकि वायरस स्वयं हम में से किसी को भी संक्रमित कर सकता है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियां और सामाजिक असमानताएं कम से कम उतनी ही मायने रखती हैं, जितनी हमारे शरीर के वायरस के घातक परिणाम के कारण।
महामारी के असली माहौल ने मनुष्यों के बीच, देशों के बीच और नागरिकों और सरकारों के बीच विश्वास में बहुत सी दोषपूर्ण चीजों को उजागर किया है ।
यह समाज, नीति निर्माताओं और नागरिकों पर भी निर्भर करेगा कि वे इस संकट से कैसे निपटें।
ये महामारी न केवल एक सैनिटरी संकट है। यह एक सामाजिक, पारिस्थितिक और राजनीतिक संकट भी है इसलिए इस महामारी को न सिर्फ वैज्ञानिक बल्कि मनोवैज्ञानिक तरह से निपटने की जरूरत है।
यह तय है कि ये समय हमें अपने बारे में, हमारे सामाजिक संबंधों और जीवन के बारे में आम तौर पर बड़े सवाल उठाने के लिए प्रेरित कर रह है ।
यह संकट केवल सार्वजनिक और पर्यावरणीय स्वास्थ्य या अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है, हम जो देख रहे हैं, वह आधुनिकता के संकट और व्यापक, पैमाने पर उसकी पूंजीवादी व्यवस्था के संकट का एक सच है।
इस संकट से गुजरने के बाद, हम हमेशा की तरह "काम " पर वापस लौटने में शायद वैसे सक्षम नहीं होंगे।
कोरोना आपदा ने हमें परिवार, समुदाय के महत्व पर , और प्रेम, आतिथ्य, और देखभाल एवं नैतिकता, और फिर एक पूरे राष्ट्र-राज्य और मानवता के स्तर तक पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित किया है।
भारत जैसे देश में लोगों के बीच भौतिक सुविधाओं की होड़ भी एक बड़ा प्रश्न है एक से ज्यादा गाड़ियां, बड़े घर, ज्यादा कमरों के घर इस मानसिकता को भी बदलने का समय आ गया है।
प्रकृति के संसाधनो का अन्धाधुंध दोहन ने भी परिस्थियों को और प्रतिकूल बनाया है। भारत जैसे देश में तो स्थिति और भी ज्यादा विकट है. नदियों का दैवियकरण कर के हमने उन्हें समाप्त ही कर दिया है।
पूरे विश्व मे खानपान को जो प्रवत्ति है जिसमे लोग आधा खाना खाकर आधा फेंक देते हैं, आज के समय में अनाज कि किल्लत शायद इस सोच को बदलने को प्रोत्साहित करे।
हमें अपने खान- पान की आदतों पर भी नज़र डालनी होगी ये सिर्फ किसी देश तक सीमित नही है बल्कि पूरे विश्व को इस पर ध्यान देना होगा । हाल ही हमनें देखा कि जानवरों के माध्यम से मानव में वायरस किस तरह फैला। क्या इस तरह का खाना वास्तव में इतने स्वादिष्ट हैं?
सबसे पहले, कोरोना काल की स्थिति में ये बात बहुत अच्छे से स्पष्ट हुई है कि दुनिया वास्तव में कैसे परस्पर जुड़ी हुई है।
एक वैश्विक गांव की छवि को एक रूपक से एक वास्तविकता में बदल देती है, लेकिन हमें अभी भी अधिक वैश्विक एक जुटता और अधिक मानवतावादी वैश्वीकरण उत्पन्न करने की आवश्यकता है ।
ऐसा करने के लिए सफलतापूर्वक एक बहु-स्तरीय अवधारणा की आवश्यकता होती है , जो अंततः अधिक स्वास्थ्य मुसीबतों, महामारी, मृत्यु और आपदाओं के लिए प्रभावी त्वरक के रूप में कार्य करता है।
इन बहु-स्तरीय संबंधों की जांच व्यक्ति, समाज और प्रकृति को फिर से जोड़े बिना नहीं की जा सकती है।
उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन और राजनीतिक आर्थिक प्रणाली को संबोधित करते हुए लोगों को पृथ्वी और मानवता के संबंधों पर सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाने के बिना ये नहीं किया जा सकता है।
ये सही है कि इस वैश्विक संकट ने शोषण, फैलाव और नवउदारवादी पूंजीवाद को सुदृढ़ करने के लिए नई रणनीतियों को प्रेरित किया और हमारे लालच और स्वार्थ की पहुंच को बढ़ाया, लेकिन इसने हमें अपने सामाजिक न्याय को समझने और पुनः प्राप्त करने के नए तरीकों का पता लगाने और प्रदान करने का अवसर भी दिया है।
हम जानते हैं कि पर्यावरण के लिए संघर्ष हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था की पसंद से अविभाज्य है, और हमारी वांछित आर्थिक प्रणाली की प्रकृति से - और ये मानव और प्रकृति के बीच के संबंध कभी भी तत्काल या अंतरंग रूप से नहीं जुड़े हैं जैसा कि वे अब हैं।
चिंता करने के लिए बहुत कुछ है। इस महामारी के संकट के बारे में कुछ भी अच्छा नहीं है।इससे हजारों लोगों को जान से हांथ धोना पड़ा है, जिससे लाखों लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, और अरबों लोगों को महत्वपूर्ण बुनियादी अधिकारों से वंचित होना पड़ रहा हैं।
यह महामारी जितनी अधिक समय तक रहेगी, संस्कृति, समाज और अर्थव्यवस्था पर इसके विनाशकारी प्रभाव उतने ही गंभीर होंगे।
इसलिए, समाज को सरकार को अपनी सोच को व्यापक ढंग से बदलना होगा । सरकार को बड़ी और छोटी कंपनियों पर कुछ ऐसे नियम लागू करना चाहिए जिसमे कोई अतिरेक नहीं, बल्कि अधिमानतः अस्थायी छंटनी की सब्सिडी व सामान्य तौर पर, रोजगार की सुरक्षा महत्वपूर्ण होगी।
कोरोना के बाद, दुनिया - और काम की दुनिया - अलग होगी। हाल के दशकों में आर्थिक नीति के प्रभावी मानक ढह गये है । महामारी के बाद यह बदलाव जारी रहेगा। यह अतिदेय था और कोरोना संकट ने इसे तेज कर दिया है।
हम सभी के लिए यह तय करना भी आसान होगा कि हमें वास्तव में क्या चाहिए। यहां तक कि हम क्रिकेट के बिना पूरी तरह से अच्छी तरह से रह सकते है। लेकिन हम बेकर्स, किसानों, चिकित्सा सहायकों,ड्राइवरों और सहायक पड़ोसियों के बिना नहीं रह सकते थे। इससे पता चलता है कि हम सभी को एक अच्छी तरह से काम करने वाले सामाजिक बुनियादी ढांचे की आवश्यकता है।
यदि आप पेशेवर क्रिकेट खिलाड़ी की मासिक आय की तुलना चिकित्सा नर्स से करते हैं, तो यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है कि हमारे समाज में कुछ सही नहीं है।
वैदिक धर्म से निःसृत हिन्दू जीवनशैली जो व्यष्टि से ले कर समष्टि तक तथा सृष्टि से ले कर परमेष्टि तक के समस्त जीवों के प्रति सह अस्तित्व पर कायम है हमें पुनः उसे समझना ही होगा ये हमारे समाज,स्वास्थ्य, पर्यावरण के लिए उसे बचाने के लिए बेहद जरूरी है।
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