बचपन में मालवा के बिताए सालों में मां के साथ जब भी बाज़ार जाती थी तो काकीजी के हाथ से बनी डबल लौंग सेव खाना कभी नही भूलती वो मुझे इतने पसंद थे कि उनके लिए मैं कुछ भी छोड़ सकती थी। लेकिन खाते ही जो मुंह जलता सो बस की बोलती बंद ।
जबान की बोलती बंद आंखे बोलती वो भी आंसुओ की भाषा.... तब काकी रामजी की मूरत के सामने से मिश्री की डली उठा कर मेरे मुहं में रख देती... अब दोनों स्वाद मेरी जबान पर होते।
मिश्री की डली मैं ने भी उठा कर अपने मुंह में रखी मुझे क्या पता था डबल लौंग वाले सेव का स्वाद भी चला आएगा....😊
बाप रे बाप तुम्हारा गुस्सा पहली बार जब मेरा इससे सामना हुआ तो... तुम किसी को डांट रहे थे और मैं अंदर ही अंदर कांप रही थी कुछ कहना चाहती थी लेकिन सब भूल गई थी समझ नही आ रहा था पहली बार मोहिनी मुस्कान लिए जो मिला था वो क्या यही है....। लो मैं कहां फंस गई।😊
मिश्री की डाली कब की घुल गई थी अब केवल लौंग का स्वाद ही जुबा पर था। लेकिन प्यारा था।
न तुम भाई, न बंधु, न सखा न...।
लेकिन मन साध रहा था शायद कोई रिश्ता....।
गंगा के मैदान पर पहली बार तुम्हें देखा तो जाना फाल्गुन पंचाग का अंतिम महीना नही पहला महीना होता है
कुछ था जो मन से चित्त की तरफ चलने लगा था ।
आसमान कितना ऊपर था धरती कितनी नीचे कुछ पता ही नही चला जैसे हर तरफ क्षितिज ही क्षितिज....जाती ठंड मुझ में एक सिहरन छोड़े जा रही थी।
अजीब जगह थी जहां तुम मिले थे वहां अलसाई सुबह थी उदास शाम थी और तन्हा रात ,लेकिन रात की सारी उदासी सुबह की मीठी आवाज़ में गुम हो जाती... कितनी कशिश थी उस बुलावे में.... उफ़्फ़
दोपहर की रौनकों का कस्बा है ये जगह जहां एक दिन दोपहर में मैं ने तुम्हारी आहट को पहचाना था आहट क्या थी रिफ़त- ए- चाहत थी जो लम्हा लम्हा रूह में समा रही थी.... पल पल रहत में दिन निकल रहे थे।
धूप के साए कम होने लगते थे कि फिर आने के लिए तुम चले जाते और मैं तुम्हें देखती उसी खिड़की से । बस उसके बाद शुरू होता तुम्हें देखने का सिलसिला तुम्हारा आना पल पल देखती ये जानते हुए भी कि तुम अभी नही आओगे।
तुम्हारे आने की आहट कैसे तो मन मे गुदगुदी लाती मैं अपने को बमुश्किल संभाल पाती....।
फ़क़त बिजनिस में उलझे तुम, तुम कविता लिखने वाली लड़की के मन की बात पता नही समझते थे या नही लेकिन डूबता सूरज दिखाने पर तुम्हारी मुस्कान गहरी होती ।कभी कभी मेरी कुछ कविता सी बातें पढ़ते तुम मुझे कोई और ही लगते.... तुम भी अब रच रहे थे ,कविता नही मुझे और मैं रच रही थी पल- पल हर पल मन में पलते तुम्हारे अहसासों को।
कैसे तुम्हें बताती कि तुम्हारे साथ बिताए पल सितारों की तरह टंक गये है मेरे अंतस में या
कि मेरी सीधी- सुलझी बातें और तुम्हारा उलझे- उलझे मुझे देखना
कि मेरी ढेर सी अभिलाषाएं कि तुम्हारी विवशताएं....।
कि वो दो आंखे जो मुझे सच बयान करती थी और जिन्हें मैं चूमना चाहती हूं मरने से पहले।
कि तुम्हारे सामने झुकता मेरा सर लाज थी उस प्यार की जो अब मन से चित्त में उतर चुका था।
कि जब भी मैं तुम्हारे पीछे- पीछे चलती मैं मन ही मन रचती अपने अंदर पग पग तुम्हारे प्यार को ..।
ढलता हुआ सूरज मैं देखा करती और तुम अपने लैपटॉप में काम करते रहते शायद खुद से मुझ से बेख़बर और मैं हर लम्हा संभाल रही होती इस आशा में कि कभी तो तुम उन अहसास से गुजरोगे जिन से मैं गुजर रही हूं।
प्रेम तो प्रकृति है
ये कोई व्यवहार थोड़ी है कि,
तुम करो तो ही मै भी करू
तुम्हारी आहट से धड़कते इस दिल मे ढ़ेरो स्पर्श लिए मैं जा रही हूं ये जानते हुए कि हमारे बीच मे कोई वादा नही वादा जैसा कोई रिश्ता नही फिर भी कुछ ख्वाहिशें थी , थे कुछ सपनें भी जो मैं ने अंजाने ही में खुली आंखों से देखे थे ।
यकीन करो मेरा में ने आंखे बंद भी की लेकिन न जाने कब कैसे तुम उनमे समा गये।
पता ही नही चला....।
ख्वाहिश थी कि हल्की बारिश में एक लंबी सड़क पर तुम मेरा हांथ पकड़ कर चलो और बारिश की बूंदे हमारे तन मन को भिंगो दे
कि तुम बाइक चलाओ और मैं तुम्हारे पीछे बैठी तुम्हारी पीठ पर अपना सर रखें तुम्हें रूह तक महसूस करूं।
कि किसी गुमनाम से थियेटर में हम साथ- साथ हो और लाइट बंद होते ही हौले से तुम मेरा हांथ थाम लो
कि मैं तुम्हें सोता हुआ देखूं.....।
कि कभी- कभी तुम्हारी डांट खा कर बच्चों की तरह तुमसे ही लिपट जाऊं
कि किसी दिन मैं इठलाकर तुम से रंग बिरंगी चुड़िया लेने के लिए कहूं और तुम उन्हें ले कर मेरे हांथो में पहना दो
कि तुम्हारे नाम की मेहंदी लगा कर तुम्हें दिखाऊं
कि तुम किसी चांदनी रात में मोगरे की वेणी धीरे से मेरे बालों में लगा दो ।
तुम जानते हो न मुझे सफेद रंग पसंद है.....।
कि किसी दिन दूर कहीं किसी जगह तुम्हारी पीठ पर अपने प्यार का चुम्बन टांक दूं
कि....।
ख्वाहिशों का क्या ... जानती हूं मौन का धर्य साथ लेकर चलना ही होगा इस अधूरे प्रणय बंध में किस ठौर कहां तुमको जोडू ,बोलूं तो क्या बोलूं।
अब विदा लेती हूं दोस्त विदाई के इन पलों के शुक्रिया करना चाहती हूँ शुक्रिया करना चाहती हूँ उस आहट का जिसके आने से जीने की उमंग आती थी, जिंदगी में सलीका आता था, आती थी रोहानी खुशबू और आता था अपने को शेष रखने का भाव।
यहां से सिर्फ मैं नही जाऊंगी दोस्त 'हम' जाएंगे कहां छोड़ा तुमने कभी अकेला न अलसाई सी सुबह में न भींगती रातों में न पूर्ण चांद में न अमावस में।अब हर पल तुम मेरे साथ ही रहोगे ।
जानती हूं जीवन की आपा-धापी गंगा छोड़ते ही शुरू होगी लेकिन इस बार इस आपा-धापी में पुर-सुकूँ मिलेगा
चांद अब पूरी कलाएं दिखाएगा अमावस की काली रातें मेरे हिस्से नही होंगी।
अब विदा लेती हूं दोस्त तुम्हारी प्यारी सी मुस्कान से, इंतज़ार करती रहूंगी कि मुस्कान से बोल फूटे और तुम वो कहा दो जो में सुनना चाहती हूँ।