जिंदगी मौत भी एक उम्र में मालूम हुआ।
मेरा होना था महज़ मेरे न होने के लिए।।
स्व. कुंवर रघुवीरसिंह ने सच ही लिखा इस दुनिया में प्रत्येक चीज का मूल्य चुकाना पढता है और जो जीवन उसने दिया है उसका भी मूल्य वो मृत्यु से ले लेता है तभी तो कहा गया है जगत मिथ्या ।
स्पिनोजा ने भी लिखा है कि जो ईश्वर को प्यार करता है वह निश्चित न समझे कि ईश्वर भी उसे उतना ही प्यार करेगा।
मानव ईश्वर से अलग है वो आशा रखता है, मानव से भी ईश्वर से भी ,नहीं करेगा तो जायगा कहां ? आशा, निराशा के इस उतार-चढ़ाव के बंधी रस्सी पर चलते हम वो नट है जिसके खेल का आनंद कोई और ऊपर बैठा लेता है।
आज हमारी प्रवृतियों और हम में लड़ाई छिड़ी है यही हमारे जीवन की उलझन है। हम जिसे तर्क कहते है अच्छे-बुरे की पहचान कहते है और जिसे इस पहचान से असलियत समझने का दावा करने वाली बुद्धि कहते है वो इतनी उलझी है कि वो कल्याण नहीं अकल्याण करती घूम रही है।दूषित हो बजबजाने वाली वस्तु सड़न तो फैलाएगी ही और हम उस सड़न में अपने तर्कों की रस्सी से फंसे भटक रहे है।
जायज और नैतिक के बीच इतना बड़ा अंतर आ गया है कि इनके बीच व्यक्तिगत स्वार्थ आत्मकेंद्रित हो समाज की टोपी के नीचे ''कीमत की आंक'' छिपाकर अव्यवस्था फैला कर खुश है।
फ़र्थ- समाज से आज तक एक ही प्रश्न कर रहा है तुम्हारे आदेश क्या है ? लेकिन समाज ,उसे युद्ध और बर्बरता से फुर्सत कहां । आस्टिन प्रयोग छोड़ कहीं से पुरानी न्यायसंगत परिभाषा ले बताते है समाज के नियमों के उल्लघंन के फलस्वरूप मिला दंड वही आदेश है।
आज विचारधारा बंदली है या हमने उनकी व्याख्या बदल दी जो भी हो हम आदेशों में उलझे प्राणी है आदेश स्पष्ट नहीं जीवन स्पष्ट नहीं ये समस्या यूं तो दिखाई वैसे नहीं पड़ती जैसी है लेकिन सबसे बुरी बात इसका हल अभी तो मानवजाति के पास नहीं।बस एक ही कोशिश होनी चाहिए हम मानव को मानव समझे।
आज की व्यापक अव्यवस्था कर्तव्य, कानून, धर्म में विभिन्नता आ जाने के कारण है, जिससे सभ्य समाज में असामंजस्य की स्थिति उत्पन्न की है लेकिन ये स्थिति सरल समाजों में नहीं है सो हे आधुनिक सभ्यता अपने सभ्यता के बोझ को थोड़ा-थोड़ा कम करो इसी में हम सबका कल्याण है।
मेरा होना था महज़ मेरे न होने के लिए।।
स्व. कुंवर रघुवीरसिंह ने सच ही लिखा इस दुनिया में प्रत्येक चीज का मूल्य चुकाना पढता है और जो जीवन उसने दिया है उसका भी मूल्य वो मृत्यु से ले लेता है तभी तो कहा गया है जगत मिथ्या ।
स्पिनोजा ने भी लिखा है कि जो ईश्वर को प्यार करता है वह निश्चित न समझे कि ईश्वर भी उसे उतना ही प्यार करेगा।
मानव ईश्वर से अलग है वो आशा रखता है, मानव से भी ईश्वर से भी ,नहीं करेगा तो जायगा कहां ? आशा, निराशा के इस उतार-चढ़ाव के बंधी रस्सी पर चलते हम वो नट है जिसके खेल का आनंद कोई और ऊपर बैठा लेता है।
आज हमारी प्रवृतियों और हम में लड़ाई छिड़ी है यही हमारे जीवन की उलझन है। हम जिसे तर्क कहते है अच्छे-बुरे की पहचान कहते है और जिसे इस पहचान से असलियत समझने का दावा करने वाली बुद्धि कहते है वो इतनी उलझी है कि वो कल्याण नहीं अकल्याण करती घूम रही है।दूषित हो बजबजाने वाली वस्तु सड़न तो फैलाएगी ही और हम उस सड़न में अपने तर्कों की रस्सी से फंसे भटक रहे है।
जायज और नैतिक के बीच इतना बड़ा अंतर आ गया है कि इनके बीच व्यक्तिगत स्वार्थ आत्मकेंद्रित हो समाज की टोपी के नीचे ''कीमत की आंक'' छिपाकर अव्यवस्था फैला कर खुश है।
फ़र्थ- समाज से आज तक एक ही प्रश्न कर रहा है तुम्हारे आदेश क्या है ? लेकिन समाज ,उसे युद्ध और बर्बरता से फुर्सत कहां । आस्टिन प्रयोग छोड़ कहीं से पुरानी न्यायसंगत परिभाषा ले बताते है समाज के नियमों के उल्लघंन के फलस्वरूप मिला दंड वही आदेश है।
आज विचारधारा बंदली है या हमने उनकी व्याख्या बदल दी जो भी हो हम आदेशों में उलझे प्राणी है आदेश स्पष्ट नहीं जीवन स्पष्ट नहीं ये समस्या यूं तो दिखाई वैसे नहीं पड़ती जैसी है लेकिन सबसे बुरी बात इसका हल अभी तो मानवजाति के पास नहीं।बस एक ही कोशिश होनी चाहिए हम मानव को मानव समझे।
आज की व्यापक अव्यवस्था कर्तव्य, कानून, धर्म में विभिन्नता आ जाने के कारण है, जिससे सभ्य समाज में असामंजस्य की स्थिति उत्पन्न की है लेकिन ये स्थिति सरल समाजों में नहीं है सो हे आधुनिक सभ्यता अपने सभ्यता के बोझ को थोड़ा-थोड़ा कम करो इसी में हम सबका कल्याण है।