Tuesday, October 20, 2015

प्रेम की लाश पर पलाश



पता नहीं दूर जंगल में
कब्र दो प्रेमियों की है
या प्रेम की
कोलाहल से दूर
बस कब्र है और प्रेम है 
कभी कभी जंगल से निकलता हुआ
पथिक कोई सुस्ताने के लिए
करता है कब्र पर विश्राम
तब कब्र की रूह को मिलता है सुकून
जब ग्रहण हटता है
और निकलता है चाँद
सितारे उतर आते है कब्र पर
तब कब्र से निकल
दो शारीर की रूह
जो अब एक है
आलिंगनबद्ध होकर
चाँद को देखती है
सितारों से बातें करती है
चम्पा की डालियों को चूमती है
और तभी होती है आकाशवाणी
बस और नहीं
तुम्हे फिर से लेना होगा जन्म
तब रूह हस कर
किसी शाख पर
ले लेती है फांसी
खो जाती है ब्लैक होल में
सुना है कब्र के ऊपर
जो पेड़ है वो पलाश है
स्वेच्छा से उगता है पलाश
प्रेम , प्रेम भी स्वेच्छा से ही किया जाता है
और जीया, जीया भी स्वेच्छा से ही जाता है
अब दो प्रेमी कब्र के ऊपर पलाश बन जी रहे है

1 comment:


  1. जय मां हाटेशवरी...
    आप ने लिखा...
    कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
    हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
    दिनांक 25/10/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
    पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
    इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
    टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    कुलदीप ठाकुर...

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