Friday, October 16, 2015

आवारगी पर उतरती आशिकी


आज तुम्हारा ये कहना कि
याद आ रही थी तुम्हें मेरी
मुझे न जाने कितने अर्थ थमा
ओझल हो गया
और जा पंहुचा 
उन विराने में
जहाँ पहली बार
मन के भीतर खुला था दरवाजा
और देखा था हमने
एक दूसरे की संभावनाओं को
कैसा तो हमारे बीच बह रह था मानस रस
जैसे कभी बह होगा
उन प्रेमियों के बीच
जिन्होंने सहरा में छानी थी खाक प्रेम के लिए
हमारा होना न होना होकर रह गया था
में आज भी तुम्हारी उन सांसो को सहेज रही हूँ
जो मेरे हिस्से आई थी
आज आशिकी आवारगी पर उतर आई है
आज भीतर से बाहर की भटकन है
आज हिंडोला 
 होता मन है

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